मन्नै लादे केसरिया बाणा मां भजन
मन्नै लादे केसरिया बाणा मां भजन
मन्नै जोगी के संग जाना मां,
पहर खड़ाऊं नाचूंगी,
ऐसी रोगण मैं हो गई,
एक जोगण मीराबाई थी,
एक जोगण मैं हो गई।।
चाहे सूली सेज चढ़ा दो मां,
चाहे विष का प्याला पिया दो मां,
मेरे जोगी की फटकार लगी,
उस जोगी से मिलवा दो मां,
हँसना मन्नै सिखा दो मां,
हँसना मन्नै सिखा दो मां,
दुख भोगण मैं हो गई,
एक जोगण मीराबाई थी,
एक जोगण मैं हो गई।।
मन्नै मंदिर मस्जिद छान लिए,
घणी घूमी गुरुद्वारा मां,
मन्नै इसी बावली कर राखी,
मन्नै मां दिख सा सारा मां,
मंगती बन के मांगूं सूं,
ऐसी जोगण मैं हो गई,
एक जोगण मीराबाई थी,
एक जोगण मैं हो गई।।
मेरी सखी सहेली पूछतो,
फक्कड़ मरजाना बता दियो,
औरंगनगर के श्मशाना में,
मेरा ठिकाना बता दियो,
जोग से जोग मिला दियो,
संजोगण मैं हो गई,
एक जोगण मीराबाई थी,
एक जोगण मैं हो गई।।
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जब किसी आत्मा में विरह, प्रेम और समर्पण की ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है, तो वह संसार के सभी बंधनों, सुख-दुख, मान-अपमान और सांसारिक आकर्षणों से ऊपर उठ जाती है। यह अवस्था साधारण नहीं, बल्कि अत्यंत दुर्लभ और दिव्य होती है, जहाँ व्यक्ति अपनी पहचान, इच्छाएँ और अभिलाषाएँ त्यागकर केवल अपने आराध्य की खोज में निकल पड़ता है। उसके लिए अब जीवन का उद्देश्य केवल मिलन, भक्ति और आत्मसमर्पण रह जाता है। वह हर कठिनाई, हर पीड़ा और हर परीक्षा को मुस्कुराते हुए स्वीकार करता है, क्योंकि उसके भीतर प्रेम और विश्वास की अग्नि प्रज्वलित है। यह भाव उसे निर्भीक, स्वतंत्र और आनंदित बना देता है, और वह हर परिस्थिति में अपने आराध्य का नाम लेकर आगे बढ़ता है।
इस मार्ग पर चलने वाले साधक के लिए संसार के मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे केवल बाहरी पड़ाव बन जाते हैं—वास्तविक खोज तो अपने भीतर के परमात्मा की होती है। जब यह खोज प्रबल हो जाती है, तो साधक को कोई भी स्थान, परिस्थिति या समाज की राय रोक नहीं सकती। वह अपने प्रेम, भक्ति और संन्यास की राह में अकेला होने के बावजूद पूर्ण महसूस करता है। उसकी पहचान अब केवल उसके आराध्य से है, और वह स्वयं को उसी के रंग में रंगा हुआ अनुभव करता है। यह अवस्था जीवन के परम सत्य, आनंद और मुक्ति की ओर ले जाती है, जहाँ साधक हर पीड़ा को भी हँसी-खुशी स्वीकार कर लेता है, और उसका जीवन एक जीवंत भक्ति-गाथा बन जाता है।
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Author - Saroj Jangir
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