युद्ध को देदो हे माधव विश्राम भजन
युद्ध को देदो हे माधव विश्राम कृष्णा भजन
युद्ध को देदो हे माधव विश्राम,
अपनों के प्राण ले कांपेंगे हाथ,
त्यागूं गांडीव मैं ले लू वनवास,
भयावह खेल का क्या ही परिणाम।
सुन्न हैं हृदय से भ्रमित हूं आज,
अपने ही वंश के हरु क्यू प्राण,
जो नगर बसे अपने कुल के शवों पे,
चाहिए ना हमें उस भूमि का ताज।
उधर बाण लगा पितामाह को,
और पीड़ा की चीख यहां मेरे ही होगी,
उधर लहू बहा तात श्री का,
संग पराजय भी मेरी बहेगी,
गुरु द्रोण जिन्होंने हर ज्ञान दिया,
अपने शिष्यों में सर्वोच्चतम स्थान दिया,
जिनसे सिखा प्रत्यंचा चढ़ाना,
तलवार कोई कैसे उन आगे उठेगी।
कैसे बनने दूं हे माधव रण भूमि को,
अपने ही कुल का शमशान में,
जिन हाथों ने छुए हैं चरण वो,
हाथ क्यों चले हैं शीश को काटने,
अपने ही भाइयों के लहू का प्यासा,
कुलनाशक ना बन सकता मैं,
दृश्य भयावह की कल्पना मात्र से,
लगी है आत्मा कांपने।
हो रहा लाखो चिता का आभास,
सुनुं विधवाओं का मरण विलाप,
दिख रहा बुझा घरों का चिराग,
कानों में आ रही मांओं की पुकार,
लहू ही लहू है भूमि गुलाल,
कटे हैं शीश जो लगी क़तार,
भाई ही भाई को रहा उजाड़,
युद्ध ये कर सकता माधव मैं ना।
माधव मैं ना कर सकता,
पापी ये युद्ध,
भले दुर्योधन ने किया,
सदैव ही साथ हमारे कपट,
दंड बस उन्हें मिले जिसने किया,
पांचाली का चीर हरण,
लहू की वर्षा में क्यूं ही भीगेगा,
निष्पाप ये आर्यावर्त।
बहा पाऊं ना अपनो का रक्त,
कुल ढहा तो जाउंगा नरक,
कैसे मैं अपने आचार्यों,
भाईयों मित्रो को देखूंगा मृत,
थाम दो युद्ध ये मांग के भिक्षा,
जी लूंगा डरा है मन,
त्यागूं मैं चार गांव और दे दूंगा,
कौरवो को इंद्रप्रस्थ।
हे केशव मैं क्या ही करूं,
मुझे कुछ तो बताओ,
मोह छलावे से मुझे बचाओ,
मरीचिका में ये धसे हैं नेत्र,
गिरा जा रहा हूं उठ भी ना पाऊं,
गुरु मेरे मेरी बुद्धि हैं भ्रम में,
मार्गदर्शी मुझे मार्ग दिखाओ,
शरण में आया तुम्हारी हे माधव,
क्या सही गलत मेरा भेद मिटाओ।
अपने ही कुल के मरण से,
कैसे हो धर्म स्थापित,
शीत इन स्वरों में काफी,
अपने ही हाथों से अपने प्राण हर,
चिता में अग्नि ना दूं मैं कदा भी,
राह दो स्वामी क्या अनुचित और,
उचित पड़ा हैं भ्रम में राही,
ज्ञान की ज्योति जलाओ हे,
माधव हे सारथी,
भगवन मेरे चक्रधारी।
अपनों के प्राण ले कांपेंगे हाथ,
त्यागूं गांडीव मैं ले लू वनवास,
भयावह खेल का क्या ही परिणाम।
सुन्न हैं हृदय से भ्रमित हूं आज,
अपने ही वंश के हरु क्यू प्राण,
जो नगर बसे अपने कुल के शवों पे,
चाहिए ना हमें उस भूमि का ताज।
उधर बाण लगा पितामाह को,
और पीड़ा की चीख यहां मेरे ही होगी,
उधर लहू बहा तात श्री का,
संग पराजय भी मेरी बहेगी,
गुरु द्रोण जिन्होंने हर ज्ञान दिया,
अपने शिष्यों में सर्वोच्चतम स्थान दिया,
जिनसे सिखा प्रत्यंचा चढ़ाना,
तलवार कोई कैसे उन आगे उठेगी।
कैसे बनने दूं हे माधव रण भूमि को,
अपने ही कुल का शमशान में,
जिन हाथों ने छुए हैं चरण वो,
हाथ क्यों चले हैं शीश को काटने,
अपने ही भाइयों के लहू का प्यासा,
कुलनाशक ना बन सकता मैं,
दृश्य भयावह की कल्पना मात्र से,
लगी है आत्मा कांपने।
हो रहा लाखो चिता का आभास,
सुनुं विधवाओं का मरण विलाप,
दिख रहा बुझा घरों का चिराग,
कानों में आ रही मांओं की पुकार,
लहू ही लहू है भूमि गुलाल,
कटे हैं शीश जो लगी क़तार,
भाई ही भाई को रहा उजाड़,
युद्ध ये कर सकता माधव मैं ना।
माधव मैं ना कर सकता,
पापी ये युद्ध,
भले दुर्योधन ने किया,
सदैव ही साथ हमारे कपट,
दंड बस उन्हें मिले जिसने किया,
पांचाली का चीर हरण,
लहू की वर्षा में क्यूं ही भीगेगा,
निष्पाप ये आर्यावर्त।
बहा पाऊं ना अपनो का रक्त,
कुल ढहा तो जाउंगा नरक,
कैसे मैं अपने आचार्यों,
भाईयों मित्रो को देखूंगा मृत,
थाम दो युद्ध ये मांग के भिक्षा,
जी लूंगा डरा है मन,
त्यागूं मैं चार गांव और दे दूंगा,
कौरवो को इंद्रप्रस्थ।
हे केशव मैं क्या ही करूं,
मुझे कुछ तो बताओ,
मोह छलावे से मुझे बचाओ,
मरीचिका में ये धसे हैं नेत्र,
गिरा जा रहा हूं उठ भी ना पाऊं,
गुरु मेरे मेरी बुद्धि हैं भ्रम में,
मार्गदर्शी मुझे मार्ग दिखाओ,
शरण में आया तुम्हारी हे माधव,
क्या सही गलत मेरा भेद मिटाओ।
अपने ही कुल के मरण से,
कैसे हो धर्म स्थापित,
शीत इन स्वरों में काफी,
अपने ही हाथों से अपने प्राण हर,
चिता में अग्नि ना दूं मैं कदा भी,
राह दो स्वामी क्या अनुचित और,
उचित पड़ा हैं भ्रम में राही,
ज्ञान की ज्योति जलाओ हे,
माधव हे सारथी,
भगवन मेरे चक्रधारी।
अर्जुन युद्धभूमि में खड़े होकर गहरे द्वंद्व में पड़ जाता है। अपने ही स्वजनों के विरुद्ध युद्ध करने की कल्पना से उसके हाथ कांपने लगते हैं। वह श्रीकृष्ण से प्रार्थना करता है कि इस भयावह युद्ध को रोक दें, क्योंकि अपने ही बंधु-बांधवों का संहार करना उसके लिए असहनीय है। उसे लगता है कि यदि इस युद्ध में विजय भी मिली, तो वह शोक और पश्चाताप से भरी होगी। पितामह भीष्म और गुरु द्रोण, जिन्होंने उसे शिक्षा और संस्कार दिए, उनके विरुद्ध हथियार उठाना उसके लिए असंभव है। उसे ज्ञात है कि इस युद्ध में केवल शारीरिक पीड़ा ही नहीं, बल्कि मानसिक वेदना भी अत्यधिक होगी।
युद्ध के इस भीषण परिणाम को देखकर अर्जुन कर्तव्य और भावना के बीच उलझ जाता है। वह सोचता है कि क्या धर्म के नाम पर अपनों का वध उचित है? क्या विजय का कोई मूल्य है यदि वह अपने ही कुल का विनाश करके प्राप्त की जाए?
Man Ka Arjun - Vayuu | Krishna And Arjun | Mahabharat Song | Hindi Rap
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Artist :- Vayu
Song :- Man Ka Arjun
Prod/Mix/Master :- Vayuu
Poster/Video :- अज्ञात
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Poster/Video :- अज्ञात
अर्जुन का मन युद्ध के भयावह दृश्य से काँप उठता है। अपने ही कुल के प्राण लेने का विचार हृदय को सुन्न कर देता है। वह सोचता है, जिस भूमि पर अपनों का लहू बहे, वह ताज कैसा? जैसे कोई पुत्र अपने पिता के सामने तलवार न उठा सके, वैसे ही अर्जुन गुरु द्रोण और पितामह भीष्म के सामने हथियार कैसे उठाए? जिन चरणों को छुआ, उन सिरों को काटने का दुख आत्मा को कंपा देता है।
सामने विधवाओं का विलाप, माताओं की पुकार, और बुझते चिरागों का मंजर दिखता है। भाई-भाई को उजाड़े, ऐसा युद्ध अर्जुन का मन स्वीकार नहीं करता। वह कहता है, मैं कुलनाशक नहीं बन सकता। दुर्योधन का पाप सारा आर्यावर्त क्यों भोगे? पांचाली के अपमान का दंड केवल दोषी को मिले, न कि निर्दोषों का लहू बहे।
अर्जुन इंद्रप्रस्थ तक त्यागने को तैयार है, बस यह युद्ध रुक जाए। वह माधव से मार्ग माँगता है, क्योंकि मोह और भ्रम ने उसकी बुद्धि को जकड़ लिया है। जैसे कोई अंधेरे में भटकता यात्री दीपक की आस रखता है, वैसे ही अर्जुन केशव से ज्ञान की ज्योति माँगता है। वह शरण में आया है, यह प्रार्थना करता हुआ कि सही-गलत का भेद मिटे और धर्म का मार्ग दिखे।
माधव, चक्रधारी, सारथी—अर्जुन का हर शब्द उनकी शरण में है। वह बस इतना चाहता है कि अपनों के मरण से धर्म की स्थापना न हो। यह पुकार केवल युद्ध का भय नहीं, बल्कि आत्मा की वह छटपटाहट है, जो सत्य और करुणा के बीच संतुलन खोजती है।
सामने विधवाओं का विलाप, माताओं की पुकार, और बुझते चिरागों का मंजर दिखता है। भाई-भाई को उजाड़े, ऐसा युद्ध अर्जुन का मन स्वीकार नहीं करता। वह कहता है, मैं कुलनाशक नहीं बन सकता। दुर्योधन का पाप सारा आर्यावर्त क्यों भोगे? पांचाली के अपमान का दंड केवल दोषी को मिले, न कि निर्दोषों का लहू बहे।
अर्जुन इंद्रप्रस्थ तक त्यागने को तैयार है, बस यह युद्ध रुक जाए। वह माधव से मार्ग माँगता है, क्योंकि मोह और भ्रम ने उसकी बुद्धि को जकड़ लिया है। जैसे कोई अंधेरे में भटकता यात्री दीपक की आस रखता है, वैसे ही अर्जुन केशव से ज्ञान की ज्योति माँगता है। वह शरण में आया है, यह प्रार्थना करता हुआ कि सही-गलत का भेद मिटे और धर्म का मार्ग दिखे।
माधव, चक्रधारी, सारथी—अर्जुन का हर शब्द उनकी शरण में है। वह बस इतना चाहता है कि अपनों के मरण से धर्म की स्थापना न हो। यह पुकार केवल युद्ध का भय नहीं, बल्कि आत्मा की वह छटपटाहट है, जो सत्य और करुणा के बीच संतुलन खोजती है।
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Author - Saroj Jangir
इस ब्लॉग पर आप पायेंगे मधुर और सुन्दर भजनों का संग्रह । इस ब्लॉग का उद्देश्य आपको सुन्दर भजनों के बोल उपलब्ध करवाना है। आप इस ब्लॉग पर अपने पसंद के गायक और भजन केटेगरी के भजन खोज सकते हैं....अधिक पढ़ें। |

