ज़रा हलके गाड़ी हांको कबीर भजन

ज़रा हलके गाड़ी हांको कबीर भजन प्रहलाद सिंह टिपानिया

 
ज़रा हलके गाड़ी हांको कबीर भजन प्रहलाद सिंह टिपानिया

धीरे धीरे रे मना,
और धीरे सब कुछ होए
माली सींचे सौ घड़ा,
ऋतु आये फल होए

ज़रा हल्के गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले
ज़रा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले
ज़रा हलके गाड़ी हांको

गाड़ी मेरी रंग रंगीली,
पईया है लाल गुलाल
हांकन वाली छैल छबीली,
बैठन वाला राम, ओ भईया
ज़रा हलके गाड़ी हांको

गाड़ी अटकी रेत में
और मजल पड़ी है दूर
इ धर्मी धर्मी पार उतर गया
ने पापी चकनाचूर, ओ भईया
ज़रा हलके गाड़ी हांको

देस देस का वैद बुलाया,
लाया जड़ी और बूटी
वा जड़ी बूटी तेरे काम न आई
जद राम के घर से छूटी, रे भईया
ज़रा हलके गाड़ी हांको
चार जना मिल मतो उठायो,
बांधी काठ की घोड़ी
लेजा के मरघट पे रखिया,
फूंक दीन्ही जैसे होली, रे भईया
ज़रा हलके गाड़ी हांको

बिलख बिलख कर तिरिया रोवे,
बिछड़ गयी रे मेरी जोड़ी
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
जिन जोड़ी तिन तोड़ी, रे भईया
ज़रा हलके गाड़ी हांको 
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सो गड़ा,ऋतू आय फल होय।
जरा हलके गाड़ी हाको
जरा हलके गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले।
गाड़ी म्हारी रंग रंगीली,
पहिया है लाल गुलाब
हांकन वाली छैल छबीली,
बैठन वाला काल।
जरा हलके। ….
गाड़ी अटकी रेत में जी,
मजल पडी है दूर।
धर्मी धर्मी पार उतर ग्या,
पापी चकना चूर।
जरा हलके। ….
देश देश का वैद बुलाया,
लाया जडी और बूटी
जडी बूटी तेरे काम न आई,
जड़ राम के घर की छूटी।
जरा हलके। ….
चार जना मिल मतों उठायो,
बांधी काठ की घोडी।
ले जाके मरघट पे रखदी,
फूँक दिनी जस होली।
जरा हलके। ….
बिलख बिलख कर त्रिया रोये,
बिछड़ गयी मेरी जोड़ी।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,
जिन जोड़ी उन तोडी।
जरा हलके। ….
!! मेरे राम गाड़ी वाले !!
जरा हलके गाड़ी हांको,मेरे राम गाड़ी वाले।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,मेरे राम गाड़ी वाले।
गाड़ी म्हारी रंग रंगीली,पहिया है लाल गुलाब।
हांकन वाली छैल छबीली,बैठन वाला काल।
जरा हलके। ….
गाड़ी अटकी रेत में जी, मजल पडी है दूर।
धर्मी धर्मी पार उतर ग्या,पापी चकना चूर।
जरा हलके। ….
देश देश का वैद बुलाया,लाया जडी और बूटी
जडी बूटी तेरे काम न आई,जड़ राम के घर की छूटी।
जरा हलके। ….
चार जना मिल मतों उठायो,बांधी काठ की घोडी।
ले जाके मरघट पे रखदी, फूँक दिनी जस होली।
जरा हलके। ….
बिलख बिलख कर त्रिया रोये,बिछड़ गयी मेरी जोड़ी।
कहे कबीर सुनो भाई साधो,जिन जोड़ी उन तोडी।
जरा हलके। ….
 

जरा हल्के गाड़ी हांको | Jara Halke Gadi Hanko mere Ram Gadi Wale | Prahlad Singh Tipanya

ज़रा हलके गाड़ी हांको

कबीर साहेब का यह बहुत ही सुन्दर भजन पद्म श्री प्रहलाद सिंह टिपानिया जी के द्वारा गाया गया है।  इस भजन में काया, आत्मा के सबंध में वर्णन प्राप्त होता है। इस तन के विषय में साहेब की वाणी है की यह गाड़ी रंग रंगीली है और इसके पहिये रंग बिरंगे हैं। इस गाड़ी को हाँकने वाला छैल छबीला है और बैठने वाले राम हैं। विषय विकार और सांसारिक कार्यों में यह गाड़ी अटक जाती है। इस अटकी हुई गाड़ी के सबंध में उल्लेखनीय है की जो सत्य के मार्ग पर चलते हैं, उनकी गाड़ी पार हो जाती है, लेकिन जो अधर्मी होते हैं वे भव सागर में ही डूब करके रह जाते हैं। जब राम के घर से बुलावा आता है तो देस विदेश के वैद्य भी कुछ नहीं सुधार कर सकते हैं। जोड़ने वाला वही है, और वही तोड़ने वाला है। Kabir Bhajan को जिन दो चार दस लोकगायकों ने अद्भुत गाया है..उनमें एक नाम पद्मश्री Prahlad singh Tipanya जी का है..इस निर्गुण को सुनने के बाद सहसा यकीन हो जाता है कि कबीर के राम राजा दसरथ के राम नहीं हैं.. वो भगवत्ता हैं मात्र एक भगवान नहीं..
 
जरा हल्के गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले,
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
गाड़ी म्हारी रंग रंगीली,
पहिया है लाल गुलाल,
हाकण वाली छेल छबीली,
बैठण वालो राम ।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
गाड़ी अटकी रेत में,
मेरी मजल पड़ी है दूर,
धर्मी धर्मी पार उतर गया,
पापी चकना चूर ।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
देस देस का वेद बुलाया,
लाया जड़ी और बूटी,
जड़ी बूटी तेरे काम ना आई,
जब राम के घर की टूटी ।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
चार जणा मिल माथे उठायो,
बाँधी कांठ की घोड़ी,
ले जाके मरघट पे रखदि,
फूंक दीन्ही जस होरी ।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
बिलख बिलख कर तिरिया रोवे,
बिछड़ गई मेरी जोड़ी,
कहे कबीर सुनो भई साधु,
जिन जोड़ी तीन तोड़ी ।
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।
जरा हल्के गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले,
जरा धीरे धीरे गाड़ी हांको,
मेरे राम गाड़ी वाले ।

ज़रा हलके गाड़ी हांको

कबीर साहेब का 'राम' पारंपरिक रूप से पूजे जाने वाले अयोध्या के राजा, दशरथ पुत्र राम नहीं हैं, बल्कि यह निर्गुण (Formless) और निराकार (Attributeless) परम ब्रह्म हैं। कबीर के राम कण-कण में व्याप्त एक सार्वभौमिक सत्ता हैं, जो समस्त सृष्टि का आधार हैं। उनके लिए, सच्चे राम को बाहरी आडंबरों या तीर्थयात्राओं में खोजने की आवश्यकता नहीं है; यह राम हर मनुष्य के अन्तरमन (Inner Self) में निवास करता है। कबीर साहेब ने अपने दोहों के माध्यम से इसी आंतरिक राम के प्रति प्रेम और भक्ति (Devotion) जगाने पर ज़ोर दिया है, जो केवल सच्चे सद्गुरु (True Teacher) के मार्गदर्शन और आत्म-ज्ञान से प्राप्त किया जा सकता है, और यह अवधारणा जाति, धर्म या संप्रदाय के बंधनों से पूर्णतया मुक्त है।
 
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