आरती गजबदन विनायक की लिरिक्स Aarti Gajbadan Vinayak Ki Lyrics

आरती गजबदन विनायक की लिरिक्स Aarti Gajbadan Vinayak Ki Lyrics, Ganesh Aarti


आरती गजबदन विनायककी। सुर-मुनि-पूजित गणनायककी॥ x2
आरती गजबदन विनायककी॥
एकदन्त शशिभाल गजानन, विघ्नविनाशक शुभगुण कानन।
शिवसुत वन्द्यमान-चतुरानन, दुःखविनाशक सुखदायक की॥
आरती गजबदन विनायककी॥

ऋद्धि-सिद्धि-स्वामी समर्थ अति, विमल बुद्धि दाता सुविमल-मति।
अघ-वन-दहन अमल अबिगत गति, विद्या-विनय-विभव-दायककी॥
आरती गजबदन विनायककी॥

पिङ्गलनयन, विशाल शुण्डधर, धूम्रवर्ण शुचि वज्रांकुश-कर।
लम्बोदर बाधा-विपत्ति-हर, सुर-वन्दित सब विधि लायककी॥
आरती गजबदन विनायककी॥
 

श्री गणेश के बारे में : श्री शिव और पार्वती के पुत्र हैं गणेश जी। श्री गणेश गणों के स्वामी हैं इसलिए इन्हे गणेश कहा जाता है। श्री गणेश जी के मस्तस्क पर हाथी होने के कारन इनको गजानंद और गजानन भी कहा जाता हैं।  
 

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श्री गणेश जी को समस्त शुभ कार्यों में सर्वप्रथम पूजा जाता है इसलिए इन्हे प्रथम पूज्य भी कहा जाता है। इनको पूजने वाले सम्प्रदाय को गाणपत्य कहा जाता है। श्री गणेश को कई नामों से याद किया जाता है ये हैं सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लंबोदर, विकट, विघ्न-नाश,विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचंद्र, गजानन। गणेश जी का वाहन चूहा माना जाता है। 

श्री गणेश जी वाहन चूहा क्यों हैं : एक बार श्री गणेश जी का युद्ध गजमुखासुर नाम के असुर से हुआ। गजमुखासुर को वरदान प्राप्त था की उसका अंत किसी अस्त्र से नहीं होगा इसलिए श्री गणेश जी अपने दांत का एक टुकड़ा तोडा और असुर पर प्रहार किया। गजमुखासुर हार कर मूषक बन कर भागने लगा तो श्री गणेश ने मूषक को अपना वाहन बना कर उसे जीवन दान दे दिया। 

श्री गणेश जी को करें प्रसन्न : श्री गणेश जी की पूजा से पहले संकल्प लेना चाहिए और संकल्प के लिए हाथ में फूल, जल, और चावल से लें। श्री गणेश जी को लाल चौकी पर बिठाना चाहिए। ताम्बे के पात्र में जल अर्पित करने के लिए रोली, कुकू, अक्षत, और पुष्प अर्पित करें। 
श्री गणेश जी को प्रशन्न करने के लिए उन्हें मोदक का भोग लगाया जाता है। गणेश पूजा के दौरान द्रुवा घास का उपयोग किया जाना चाहिए। दूर्वा घास को कभी भी गणेश जी के चरणों में अर्पित नहीं करना चाहिए। लाल सिन्दूर भी श्री गणेश को प्रिय है। बुधवार को श्री गणेश जी की पूजा से विशेष आशीर्वाद प्राप्त होता है। शुद्ध आसन में बैठकर सभी पूजन सामग्री को एकत्रित कर पुष्प, धूप, दीप, कपूर, रोली, मौली लाल, चंदन, मोदक आदि गणेश भगवान को समर्पित कर, इनकी आरती की जाती है।

श्री गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम क्यों : सभी पवित्र और शुभ कार्यों में श्री गणेश जी की पूजा सर्वप्रथम की जाती है। लेकिन क्यों ऐसा नियम है की विघ्न हर्ता श्री गणेश जी की पूजा सर्प्रथम की जाती है।श्री गणेश बुद्धि, व्यवहारिकता, उदारता और सहजता की प्रतिमूर्ति हैं साथ ही उन्हें शुभ, तेजस्वी भी माना जाता है। श्री गणेश जी के पिता शिव हैं जो भोलेनाथ हैं, भक्तों के कष्ट दूर करने वाले हैं। ऐसी मान्यता है की एक बार प्रतियोगिता आयोजित की गयी जिसमे यह तय हुआ की जो पृथ्वी का चक्कर सबसे पहले लगा लेगा वही विजेता होगा। यह प्रतियोगिता कार्तिकेय और गणेश के बीच में करवाई गयी। कार्तिकेय अपने वाहन मोर से परिक्रमा के निकल गए थे तथा साथ ही अन्य देवी देवता भी अपने वाहनों में बैठकर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए निकल पड़े। श्री गणेश जी का वाहन मूषक है। विचार करने के बाद श्री गणेश जी ने अपने माता पिता के ही परिक्रमा करनी शुरू कर दी और सात बार परिकर्मा की। उन्होंने माता पिता को ही पूरा संसार माना। इसलिए श्री गणेश जी को सबसे पहले पूजा जाता है।
 
एक अन्य मत के अनुसार के जब श्री शिव जी ने श्री गणेश जी का मस्तक काटा तो माता पार्वती जी श्री शिव पर बहुत क्रोधित हो गयी। श्री शिव ने पार्वती जी मनाने के लिए हाथी का मस्तक श्री गणेश  जी के लगाने के बाद भी श्री पार्वती जी जब शांत नहीं हुई और उन्होंने शिव से कहा की यदि मेरा पुत्र जीवित नहीं होता है तो मैं सम्पूर्ण श्रष्टि को आग लगा दूंगी, समाप्त कर दूंगी। शिव के कहने पर सभी देवता ऐसे जीव की खोज में निकल पड़े जिनका सर श्री गणेश जी के सर पर लगाया जा सके। 
 
देवता एक हाथी के बच्चे का मस्तक लेकर आये जिसकी माँ पीठ करके सोयी हुई थी। श्री शिव ने बालक गणेश के हाथी के बच्चे का मस्तक लगाकर जीवित तो कर दिया लेकिन माँ पार्वती इससे भी खुश नहीं हुई और कहने लगी की सभी लोग मेरे पुत्र का मजाक उड़ाएंगे। तब शिव ने उन्हें आश्वत किया की श्री गणेश संसार में पूजे जाएंगे और प्रत्येक शुभ कार्य से पहले श्री गणेश जी की पूजा अर्चना की जायेगी। इन्हे विघ्न हर्ता के रूप में पूजा जाएगा। 
 
श्री गणेश जी के पवित्र मन्त्र है जिनके जाप करने शी श्री गणेश प्रसन्न होते हैं और समस्त शुभ कार्यों  आह्वान करते हैं उनकी रक्षा करते हैं।
  • ॐ श्री गणेशाय नम:
  • गं गणपतये नम:
  • ॐ गं गणपतये नम:
  • ॐ गं ॐ गणाधिपतये नम:
  • ॐ सिद्धि विनायकाय नम:
  • ॐ गजाननाय नम.
  • ॐ एकदंताय नमो नम:
  • ॐ लंबोदराय नम:
  • ॐ वक्रतुंडाय नमो नम:
  • ॐ गणाध्यक्षाय नमः

श्री गणेश जी का मूल मंत्र : समस्त मंत्रो में गणेश जी के मूल मंत्र का पाठ करने से बड़ी से बड़ी विघ्न बाधा दूर हो जाती हैं और बिगड़े हुए कार्य भी पूर्ण हो जाते हैं।


ॐ गं गणपतये नमः |
ॐ श्री विघ्नेश्वराय  नमः ||


श्री गणेश जी के गायत्री मन्त्र का जाप करने से समस्त बाधाओं का अंत होता है और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सुख सुविधाओं की प्राप्ति होती है विकास और सम्पन्नता की राह खुलती है।  ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।।

श्री गणेश जी विशेष कृपा  के लिए दिए गए मंत्र से विशेष लाभ प्राप्त होता है। सौभाग्य प्राप्ति के लिए इस मंत्र से विशेष लाभ होता है। जीवन में अकारण आने वाली बाधाएं दूर हो जाती है। व्यापर में लाभ प्राप्त होता है और रुके हुए कार्य शुरू हो जाते हैं।

 ॐ श्रीं गं सौभाग्य गणपतये वर्वर्द सर्वजन्म में वषमान्य नम:।।

श्री गणेश का तांत्रिक मन्त्र निम्न है जिसका उपयोग जीवन में सम्पन्नता और क्लेश आदि को दूर करने के लिए किया जाता है।

ॐ ग्लौम गौरी पुत्र, वक्रतुंड, गणपति गुरू गणेश।
ग्लौम गणपति, ऋद्धि पति, सिद्धि पति। करों दूर क्लेश।।

आरती का महत्त्व : पूजा पाठ और भक्ति भाव में आरती का विशिष्ठ महत्त्व है। स्कन्द पुराण में आरती का महत्त्व वर्णित है। आरती में अग्नि का स्थान महत्त्व रखता है। अग्नि समस्त नकारात्मक शक्तियों का अंत करती है। अराध्य के समक्ष विशेष वस्तुओं को रखा जाता है। अग्नि का दीपक घी या तेल का हो सकता है जो पूजा के विधान पर निर्भर करता है। वातावरण को सुद्ध करने के लिए सुगन्धित प्रदार्थों का भी उपयोग किया जाता है। कर्पूर का प्रयोग भी जातक के दोष समाप्त होते हैं। 
आरती के दौरान भजन गाने का भी अपना महत्त्व है। आरती की जोत लेने का भी नियम है। आरती की थाली को गोल ॐ के आकार में घुमाना शुभकर माना जाता है। आरती पूर्ण होने के बाद दोनों हाथों से आरती की लौ को लेकर आखों और माथे के ऊपर लगाना लाभकारी माना जाता है। शास्त्रों में उल्लेख है की आरती में शामिल होने मात्र से लाभ प्राप्त होता है। 

आरती के साथ संगीत वाद्य यंत्रो का भी उपयोग किया जा सकता है। जिस देव की पूजा करनी हो उससे सबंधित भजन को ऊँचे स्वर में गाना चाहिए ऐसा करने से आस पास का वातावरण सुद्ध होता है और चैतैन्य शक्ति का प्रवाह होता है। आरती करते समय अराध्य को मन में सुमिरन करना चाहिए और सुद्ध भावना से अपने इष्ट को याद करें। आरती को पूर्व निश्चित राग में गाना चाहिए। संगीतमय आरती सभी सुनने वाले और जातक में मानसिक स्थिरता और प्रशन्नता प्रदान करती है। 

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में आरती के महत्त्व के बारे में उल्लेख है की जिस प्रकार दीप-ज्योति नित्य ऊध्र्व गति से प्रकाशमान रहती है, उसी प्रकार दीपदान यानी आरती ग्रहण करने वाले जातक आध्यात्मिक दृष्टि से उच्च स्तर को प्राप्त करता है। 
यथैवोध्र्वगतिर्नित्यं राजन: दीपशिखाशुभा। दीपदातुस्तथैवोध्र्वगतिर्भवति शोभना।।
स्कन्दपुराण में वर्णित किया गया है की 
मंत्रहीन क्रियाहीन यत् कृतं पूजनं हरे।
सर्व सम्पूर्णता मेति कृतं नीराजने शिवे ।।
श्लोक का अर्थ है की आरती करने से पूजा पाठ और मन्त्र जाप में पूर्णता प्राप्त होती है। 

आरती करते समय ध्यान रखना चाहिए की आरती के समय शरीर स्वच्छ हो, स्नान करके आरती की जानी चाहिए। आरती के समय पवित्र चित्त से एकाग्र होकर आरती बोलनी चाहिए। आरती स्पष्ट बोली या गानी चाहिए। शंख, घंटे घड़ियाल और ढोल का प्रयोग करना चाहिए। आरती बिना मन्त्र और भजन के भी स्वतंत्र रूप से की जा सकती है। घी से आरती करते समय घी पंचामृत होना चाहिए।


भगवान की भक्ति क्यों की जानी चाहिए : ईश्वर की भक्ति और भजन हम स्वंय की आध्यात्मिक और मानसिक उन्नति के लिए करते हैं। इसमें ईश्वर को कोई लाभ नहीं होता है। ईश्वर की भक्ति करने से ऐसा नहीं है की सीधे सीधे कोई लाभ होता हो जैसे कोई गड़ा धन मिल जाएगा, लॉटरी लग जाएगी या कोई अन्य लाभ हो जाएगा। ईश्वर की भक्ति से मानसिक ऊर्जा का संचार होता है और सकारात्मक विचारों का प्रवाह होता है। सकारात्मक विचार्रों से परिपूर्ण व्यक्ति बड़ी से बड़ी बाधाओं का हल निकाल सकता है। स्वंय पर विश्वास बढ़ता है। 

ईश्वर की भक्ति से अहंकार का नाश होता है और उसके आचरण में शुद्धता आती है। जीव मात्र के लिए दया भाव विकसित होता है। चित्त निर्मल होता है और आत्म विश्वास बढ़ता है। जीवन में संतुष्टि का भाव पैदा होता है और मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। भजन और ईश्वर की स्तुति करने वाला व्यक्ति संतोषी प्रवति का हो जाता है। उसे आवश्यकता से अधिक भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता महसूस नहीं होती है।


ईश्वर के प्रति समर्पण भाव होना हमारा ईश्वर के प्रति समर्पण भाव दिखता है। आज हमें जो भी प्राप्त है वोभगवान् के द्वारा ही दिया गया है, वो दाता है कोई माने या ना माने। पूरी श्रष्टि का जनक है भगवान् और यदि हम उसके प्रति समर्पण भाव दिखाते हैं तो हमें हमारी लघुता का बोध होता है। अहंकार के नष्ट होने पर जीव मात्र के लिए दया भाव विकसित होता है। 
 
भजन प्रथम चरण है, इसके बाद ही चिंतन और मनन शुरू होता है। व्यक्ति स्वंय चिंतन करता है की वो कहाँ से आया है, कहाँ को जाना है। उसके जीवन का उद्देश्य क्या है। यदि यह संसार उसका घर नहीं है तो उसका ठिकाना है कहा, इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने को व्यक्ति प्रेरित होता है लेकिन ये तभी संभव है जब व्यक्ति ईश्वर के प्रति समर्पण भाव रखे और उसकी प्रार्थना करे। शरीर और मन स्वंय ही शिथिल पड़ने लग जाते हैं। एक स्थान पर चित्त लग जाता है, चंचलता समाप्त हो जाती है। मस्तिष्क का उद्वेलन शांत होता जाता है। ईश्वर में ध्यान लगना शुरू हो जाता है और मन एकाग्र हो जाता है। यह सोने जैसा नहीं है इसमें शरीर शांत होता जाता है और मन से ईश्वर का सुमिरन किया जाता है। साधक स्वंय को परम सत्ता के नजदीक पाने लगता है। 
 
भजन और मनन के बाद आत्मबोध आता है। व्यक्ति स्वंय से सवाल पूछता है। आत्मबोध से ही तृष्णा और लोभ शांत हो जाते हैं। सांसारिक जीवन के रहते भजन भाव और आत्म चिंतन के लिए समय निकलना चाहिए। श्रम किये बगैर तो परिवार चलता हैं। लेकिन श्रम, विश्राम और सामाजिक रिश्ते नातों के बाद भी कुछ समय हमें ईश्वर के भक्ति भाव के लिए निकलना चाहिए। श्री राधे, श्री कृष्ण।

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