जाणां रे मोहणा जाणां मारी प्रीती

जाणां रे मोहणा जाणां मारी प्रीती

जाणां रे मोहणा, जाणां मारी प्रीती
जाणां रे मोहणा, जाणां मारी प्रीती।।टेक।।
प्रेम भगती रो पैड़ा म्हारो अवरू ण जाणां रीत।
इमरत पाइ विषां क्यूँ बीज्यां कूँण गांव री रीत। 
 मीरां रे प्रभु हरि अविणासी, अपणो जणारो मीत।।
(मोहणा=मोह लेने वाले, पैड़ा=मार्ग, अवरू=दूसरी, कूँण=किस)
 
प्रेम और भक्ति का मार्ग सरल नहीं होता—यह आत्मा की गहन यात्रा है, जहाँ कोई दूसरा उपाय, कोई अन्य रीति नहीं, केवल समर्पण ही पथ का दिशा-सूचक बनता है। जब यह भावना अपने शुद्धतम रूप में पहुँचती है, तब साधक को कोई विकल्प नहीं सूझता, क्योंकि उसके लिए प्रेम ही एकमात्र सत्य रह जाता है।

इस संसार की रीति यदि विष बोकर अमृत पाने की है, तो वह अधूरी और भ्रमित है। सच्चे प्रेम में कोई छल नहीं, कोई विष नहीं—यह तो केवल निर्मल श्रद्धा और पूर्ण समर्पण है। जब व्यक्ति सांसारिक प्रपंचों से ऊपर उठ जाता है, तब उसे इस प्रेम की वास्तविकता का आभास होता है, और वह उस अमृत का अनुभव करता है, जो सांसारिक सीमाओं से परे है।

परमात्मा केवल क्षणिक संयोग नहीं, बल्कि वह अविनाशी सत्य है। जब आत्मा इस सत्य को पहचान लेती है, तब उसके लिए कोई अन्य सहारा नहीं रहता, कोई अन्य अनुराग नहीं बचता—केवल प्रभु के प्रेम में ही उसका संपूर्ण अस्तित्व समर्पित हो जाता है। यही भक्ति की पूर्णता है—जहाँ साधक का प्रेम उसके प्रियतम में पूर्ण रूप से विलीन हो जाता है।
 
हरि गुन गावत नाचूंगी॥
आपने मंदिरमों बैठ बैठकर। गीता भागवत बाचूंगी॥१॥
ग्यान ध्यानकी गठरी बांधकर। हरीहर संग मैं लागूंगी॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। सदा प्रेमरस चाखुंगी॥३॥

तो सांवरे के रंग राची।
साजि सिंगार बांधि पग घुंघरू, लोक-लाज तजि नाची।।
गई कुमति, लई साधुकी संगति, भगत, रूप भै सांची।
गाय गाय हरिके गुण निस दिन, कालब्यालसूँ बांची।।
उण बिन सब जग खारो लागत, और बात सब कांची।
मीरा श्रीगिरधरन लालसूँ, भगति रसीली जांची।।

अपनी गरज हो मिटी सावरे हम देखी तुमरी प्रीत॥ध्रु०॥
आपन जाय दुवारका छाय ऐसे बेहद भये हो नचिंत॥ ठोर०॥१॥
ठार सलेव करित हो कुलभवर कीसि रीत॥२॥
बीन दरसन कलना परत हे आपनी कीसि प्रीत।
मीरां के प्रभु गिरिधर नागर प्रभुचरन न परचित॥३॥

शरणागतकी लाज। तुमकू शणागतकी लाज॥ध्रु०॥
नाना पातक चीर मेलाय। पांचालीके काज॥१॥
प्रतिज्ञा छांडी भीष्मके। आगे चक्रधर जदुराज॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर। दीनबंधु महाराज॥३॥

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरां लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥

अब तौ हरी नाम लौ लागी।
सब जगको यह माखनचोरा, नाम धर्‌यो बैरागीं॥
कित छोड़ी वह मोहन मुरली, कित छोड़ी सब गोपी।
मूड़ मुड़ाइ डोरि कटि बांधी, माथे मोहन टोपी॥
मात जसोमति माखन-कारन, बांधे जाके पांव।
स्यामकिसोर भयो नव गौरा, चैतन्य जाको नांव॥
पीतांबर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
गौर कृष्ण की दासी मीरां, रसना कृष्ण बसै॥

बंसीवारा आज्यो म्हारे देस। सांवरी सुरत वारी बेस।।
ॐ-ॐ कर गया जी, कर गया कौल अनेक।
गिणता-गिणता घस गई म्हारी आंगलिया री रेख।।
मैं बैरागिण आदिकी जी थांरे म्हारे कदको सनेस।
बिन पाणी बिन साबुण जी, होय गई धोय सफेद।।
जोगण होय जंगल सब हेरूं छोड़ा ना कुछ सैस।
तेरी सुरत के कारणे जी म्हे धर लिया भगवां भेस।।
मोर-मुकुट पीताम्बर सोहै घूंघरवाला केस।
मीरा के प्रभु गिरधर मिलियां दूनो बढ़ै सनेस।।

अरज करे छे मीरा रोकडी। उभी उभी अरज॥ध्रु०॥
माणिगर स्वामी मारे मंदिर पाधारो सेवा करूं दिनरातडी॥१॥
फूलनारे तुरा ने फूलनारे गजरे फूलना ते हार फूल पांखडी॥२॥
फूलनी ते गादी रे फूलना तकीया फूलनी ते पाथरी पीछोडी॥३॥
पय पक्कानु मीठाई न मेवा सेवैया न सुंदर दहीडी॥४॥
लवींग सोपारी ने ऐलची तजवाला काथा चुनानी पानबीडी॥५॥
सेज बिछावूं ने पासा मंगावूं रमवा आवो तो जाय रातडी॥६॥
मीरा कहे प्रभु गिरिधर नागर तमने जोतमां ठरे आखडी॥७॥

आज मारे साधुजननो संगरे राणा। मारा भाग्ये मळ्यो॥ध्रु०॥
साधुजननो संग जो करीये पियाजी चडे चोगणो रंग रे॥१॥
सीकुटीजननो संग न करीये पियाजी पाडे भजनमां भंगरे॥२॥
अडसट तीर्थ संतोनें चरणें पियाजी कोटी काशी ने कोटी गंगरे॥३॥
निंदा करसे ते तो नर्क कुंडमां जासे पियाजी थशे आंधळा अपंगरे॥४॥
मीरा कहे गिरिधरना गुन गावे पियाजी संतोनी रजमां शीर संगरे॥५॥
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