जपजी साहिब पाठ Japji Sahib Full Path Harshdeep Kaur

जपजी साहिब पाठ लिरिक्स हिंदी Japji Sahib Full Path Lyrics by Harshdeep Kaur

 
जपजी साहिब पाठ लिरिक्स हिंदी Japji Sahib Full Path Lyrics

जपजी साहिब अत्यंत ही पावन और दिव्य पाठ है यह गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित है। इसके रचनाकार गुरु नानद देव साहेब जी हैं और इसका संकलन गुरु अंगद देव जी के द्वारा किया गया है। इसकी शुरुआत मूल मन्त्र से होती है और इसमें ३८ पौड़ी हैं। इस पोस्ट में इसे हिंदी में लिखा गया है, लिखने में यदि कोई गलती हो गई हो, तो कृपया कमेंट से सूचित करने का श्रम करें-धन्यवाद। 
 
जपजी साहिब गुरु नानक देव जी के द्वारा रचित है। इस अमृतवाणी को गुरु अंगद देव जी के द्वारा संकलित किया गया है। सामान्य बोल चाल की भाषा में जपजी साहिब में जीवात्मा को सूक्ष्म तत्व ज्ञान सरल तरीके से समझाया गया है और संसार को गुरु साहिब ने अपने ज्ञान से प्रकाशित किया है, अतः यह गुरु साहिब की पवित्र वाणी है।
जपजी साहिब के मूल श्लोक का अर्थ है की ईश्वर एक है।
यह मूल मन्त्र से शुरू होता है और इसमें कुल ३८ पौड़ी हैं। इसका अंतिम श्लोक गुरु अंगद देव जी के द्वारा रचित है। जपजी साहिब को सामान्यतया सुबह पढ़ा जाता है। 
 
ੴ सत नाम करता पुरख निरभओ निरवेर 
अकाल मूरत अजूनी सैभं गुर प्रसाद ॥
॥ जप ॥
आद सच जुगाद सच,
है भी सच, नानक होसी भी सच,
सोचै सोच न होवई जे सोची लख बार,
चुपे चुप न होवई जे लाए रहा लिव तार,
भुखिआ भुक्ख ना उतरी, जे बनां पुरीआ भार,
सहस सिआणपा लख होहे त इक ना चलै नाळ,
किव सचिआरा होईऐ किव कूड़ै टूटे पाल,
हुकुम रजाई चालणा नानक लिखिआ नाल।

 
हुकमी होवन आकार, हुकम ना कहिया जाई,
हुकमी होवन जीअ, हुकम मिलै बड़ियाई,
हुकमी उतम नीच, हुकम लिख दुख सुख पाईयह,
इकना हुकमी बख्शीश, इक हुकमी सदा भवाईयह,
हुकमै अंदर सभ को, बाहर हुकम न कोए,
नानक हुकमै जे बुझै,  तो ओमै कहै न कोए ॥२॥

गावे को ताण, होवे किसै ताण,
गावे को दात, जाणै नीसाण,
गावे को गुण, बड़ियाईया चार,
गावे को विद्या विखम वी चार,
गावे को साज करे तन खेह,
गावे को जीअ लै फिर देह,
गावे को जापे दिसै दूर,
गावे को वेखै हादरा हदूर,
कथना कथी ना आवे तोट,
कथ कथ कथी कोटी कोट कोट,
दे दा दे लैदे थक पाहे,
जुगा जुगंतर खाही खाहे,
हुकमी हुकम चलाए राहो,
नानक विगसै वे-परवाहो।

साँचा साहिब साँच नाय, भाखिआ भाओ अपार,
आखह मंगह देह देह, दात करे दातार,
फेर के अगै रखिये, जित दिसै दरबार,
मुहो कि बोलण बोलिये, जित सुण धरे प्यार,
अमृत वेला सच नाव, बड़ियाई विचार,
करमी आवे कपड़ा, नदरी मोख दुवार,
नानक ऐवे जाणीऐ सब आपे सचिआर।
थापेया ना जाए कीता ना होए,
आपे आप निरंजन सोय,
जिन सेविया तिन पाया मान,
नानक गाविय गुणी निधान,
गाविये, सुणिये, मन रखीऐ भाव,
दुख परहर, सुख घर लै जाए,
गुरमुख नादम गुरमुख वेदम गुरमुख रहेया समाई,
गुर ईसर गुर गोरख, बरमा गुर पारबती माई,
जे हओ जाणा आखा नाहीं, कहणा कथन ना जाई,
गुरां इक देह बुझाई, सबना जीआ का इक दाता,
सो मैं विसर ना जाई।

तीरथ न्हावा जे तिस भावा, विण भाणे के नाय करी,
जेती सिरठ उपाई वेखा, विण करमा के मिलै लई,
मत विच रतन जवाहर माणक, जे इक गुर की सिख सुणी,
गुरा इक देह बुझाई, सबना जीआ का इक दाता,
सो मैं विसर ना जाई। 

जे जुग चारे आरजा, होर दसूणी होय,
नवा खण्डा विच जाणीअ, नाळ चलै सब कोय,
चंगा नाव रखाए कै, जस कीरत जग लेय,
जे तिस नदर ना आवई त वात न पुछै के,
कीटा अंदर कीट कर, दोसी दोस धरे,
नानक निरगुण गुण करे, गुणवंतेआ गुण दे,
तेहा कोए ना सुझई ज तिस गुण कोय करे।


सुणिअै सिद्ध पीर सुर नाथ,
सुणिअै धरत धवळ आकास,
सुणिअ दीप लोअ पाताल,
सुणिअ पोहे न सकै काल,
नानक भगता सदा विगास,
सुणिअै दूख पाप का नाश.
 
सुणिअ ईसर बरमा इन्द,
सुणिअ मुख सालाहण मंद,
सुणिअ जोग जुगत तन भेद,
सुणिअ सासत सिमरत वेद,
नानक भगतां सदा विगास,
सुणिअ दूख पाप का नाश।

सुणिअ सत संतोख ज्ञान,
सुणिअ अठसठ का असनान,
सुणिअ पड़ पड़ पावहे मान,
सुणिअ लागै सहज ध्यान,
नानक भगता सदा विगास,
सुणिअ दूख पाप का नाश।

सुणिअ सरा गुणा के गाह,
सुणिअ सेख पीर बादशाह,
सुणिअ अंधे पावे राहो,
सुणिअ हाथ होवे असगाह,
नानक भगता सदा विगास,
सुणिअ दूख पाप का नाश।

मन्ने की गत कही न जाए,
जे को कहै पिछै पछुताए,
कागद कलम ना लिखणहार,
मंने का बहे करन विचार,
ऐसा नाम निरंजन होय,
जे को मंन जाणै मन कोय। 
 
मन्ने सुरत होवै मन बुध,
मन्ने सगल भवण की सुध,
मन्ने मुहे चोटा ना खाय,
मन्ने जम कै साथ ना जाय,
ऐसा नाम निरंजन होय,
जे को मंन जाणै मन कोय।

मन्ने मारग ठाक न पाय,
मन्ने पत सिओ परगट जाय,
मन्ने मग ना चलै पंथ,
मन्ने धरम सेती सनबंध,
ऐसा नाम निरंजन होये,
जे को मंन जाणै मन कोय।


मन्ने पावै मोख दुआर,
मन्ने परवारै साधार,
मन्ने तरै, तारे गुर सिख,
मन्ने नानक भवहे न भिख,
ऐसा नाम निरंजन होय।
जे को मंन जाणै मन कोय।


पंच परवाण, पंच परधान,
पंचे पावहे, दरगहे मान,
पंचे सोहे, दर राजान,
पंचा का गुर एक ध्यान,
जे को कहै करै विचार,
करते कै करणै, नाहीं सुमार,
धौल धरम दया का पूत,
संतोख थाप, रखिआ जिन सूत,
जै को बुझै होवै सचिआर,
धवलै उपर केता भार,
धरती होर परै होर होर,
तिस ते भार तलै कवण जोर,

जीअ जात रंगा के नांव,
सबना लिखिआ गुढी कलाम,
एहो लेखा लिख जाणै कोय,
लेखा लिखिआ केता होय,
केता ताण सुआलिहो रूप,
केती दात जाणै कौण कूत,
कीता पसाओं एको कवाओ,
तिस ते होए लख दरीआओ,
कुदरत कवण कहा विचार,
वारिआ न जावा एक वार,
जो तुध भावे साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार।  

असंख जप असंख भाओ,
असंख पूजा असंख तप ताओ,
असंख ग्रंथ मुख वेद पाठ,
असंख जोग मन रहहे उदास,
असंख भगत गुण ज्ञान विचार,
असंख सती असंख दातार,
असंख सूर मुह भख सार,
असंख मौन लिव लाए तार,
कुदरत कवण कहा विचार,
वारिआ न जावा एक वार,
जो तुध भावे साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार।

असंख मूरख अंध घोर,
असंख चोर हरामखोर,
असंख अमर कर जाहे जोर,
असंख गलवढ हत्या कमाहे,
असंख पापी पाप कर जाहे,
असंख कूड़िआर कूड़े फिराहे,
असंख म्लेच्छ मल भख खाहे,
असंख निंदक सिर करह भार,
नानक नीच कहे विचार,
वारिआ ना जावा एक वार,
जो तुध भावे साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार।

असंख नाव असंख थाव,
अगम अगम असंख लोअ,
असंख कहह सिर भार होए,
अखरी नाम अखरी सालाह,
अखरी ज्ञान गीत गुण गाह,
अखरी लिखण बोलण बाण,
अखरा सिर संजोग वखाण,
जिन एहे लिखे तिस सिर नाहे,
जिव फुरमाए तेव तेव पाहे,
जेता कीता तेता नाओ,
विण नावे नाही को थाओ,
कुदरत कवण कहा विचार,
वारिआ न जावा एक वार,
जो तुध भावे साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार।

असंख जप असंख भाओ,
असंख पूजा असंख तप ताओ,
असंख ग्रंथ मुख वेद पाठ,
असंख जोग मन रहहे उदास,
असंख भगत गुण ज्ञान वीचार,
असंख सती असंख दातार,
असंख सूर मुह भख सार,
असंख मोन लिव लाए तार,
कुदरत कवण कहा विचार,
वारिआ न जावा एक वार,
जो तुध भावै साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार।


असंख मूरख अंध घोर,
असंख चोर हरामखोर,
असंख अमर कर जाहे ज़ोर,
असंख गलवढ हत्या कमाहे,
असंख पापी पाप कर जाहे,
असंख कूड़िआर कूड़े फेराहे,
असंख मलेछ मल भख खाहै,
असंख निंदक सिर करह भार,
नानक नीच कहै विचार,
वारिआ ना जावा एक वार,
जो तुध भावै साई भली कार,
तू सदा सलामत निरंकार। 
 
असंख नांव असंख थाव,
अगम अगम असंख लोअ,
असंख कह ह सिर भार होय,
अखरी नाम अखरी सालाह,
अखरी ज्ञान गीत गुण गाह,
अखरी लेखण बोलण बाण,
अखरा सिर संजोग वखाण,
जिन एहे लिखे तिस सिर नाहै,
जिव फुरमाए तेव तेव पाहै,
जेता किता तेता नाओ,
विण नावै नाहीं को थाओ,
कुदरत कवण कहां विचार,
वारिया ना जावा एक वार,
जो तुध भावै साई भलीकार,
तू सदा सलामत निरंकार।

भरीअ हत्थ पैर तन देह,
पाणी धोते उतरस खेह,
मूत पळीती कपड़ होय,
दे साबुण लईअ ओहो धोय,
भरीअ  मत पापा कै संग,
ओहो धापे नावै कै रंग,
पुनि पापी आखण नाहे,
कर कर करणा लिख लै जाहौ,
आपै बीज आपे ही खाहौ,
नानक हुकमी आवहो जाहौ।


तीरथ तप दया दत दान,
जै को पावै तेल का मान,
सुणेआ मंनिया मन कीता भाओ,
अंतरगत तीरथ मल नाओ,
सभ गुण तेरे मै नाहीं कोय,
विण गुण कीते भगत न होय,
सुअसत आथ बाणी बरमाओ,
सत सुहाण सदा मन चावो,
कवण सु वेला वखत कवण कवण थित कवण वार,
कवण सेरुती माहो कवण जित होआ आकार,
वेल ना पाईआ पंडती जे होवै लेख पुराण,
वखत ना पाइओ काजिया जे लिखन लेख कुराण,
थित वार ना जोगी जाणै रुत माहों ना कोई,
जा करता सिरठी कओ साजे आपे जाणे सोइ,
किव कर आखा किव सालाही किओ वरनी किव जाणा,
नानक आखण सभ को आखे, इक दू इक सिआणा,
वडा साहिब वडी नाई, किता जा का होवै,
नानक जे को आपौ जाणै, अगै गया न सोहै।

पाताला पाताल लख आगासा आगास,
ओड़क ओड़क भाल थके, वेद कहन इक बात,
सहस अठारह कहन कतेबा, असुलू इक धात,
लेखा होय त लिखीऐ लेखै होए विणास,
नानक वड्डा आखीऐ आपे जाणै आप।

सालाही सालाहे एती सुरत ना पाईया,
नदीआ अतै वाह पवह समुंद न जाणीअहे,
समुंद साह सुलतान, गिरहा सेती माल धन,
कीड़ी तुल न होवनी जे तिस मनहो न वीसरहे।  

अंत ना सिफती कहण ना अंत,
अंत ना करणे देण ना अंत,
अंत ना वेखण सुणण न अंत,
अंत ना जापे किआ मन मंत,
अंत ना जापे किता आकार,
अंत ना जापै पारावार,
अंत कारण केते बिललाहै,
तां के अंत न पाए जाहै,
एहो अंत ना जाणै कोय,
बहुता कहीऐ बहुता होय,
वड्डा साहिब ऊचा थाओ,
ऊचे उपर ऊँचा नाओ,
एवड ऊचा होवै कोय,
तिस ऊचे कओ जाणै सोय,
जेवड आप जाणे आप आप,
नानक नदरी करमी दात।


बहुता करम लिखिया ना जाय,
वड्डा दाता तिल ना तमाय,
केते मंगह जोध अपार,
केतेया गणत नहीं विचार,
केते खप तुटह बेकार,
केते ले ले मुकर पाहे,
केते मूरख खाही खाहे,
केतेआ दूख भूख सदमार,
एहे भि दात तेरी दातार,
बंद खलासी भाणै होय,
होर आख न सके कोय,
जे को खाएक आखण पाय,
ओहो जाणै जेतीआ मुहे खाय,
आपे जाणै आपे देय,
आखह सेब केई केय,
जिस नो बखसे सिफत सालाह,
नानक पातसाही पातसाह।

अमुल गुण अमुल वापार,
अमुल वापारीए अमुल भण्डार,
अमुल आवह अमुल लै जाहै,
अमुल भाए अमुला समाहै,
अमुल धरम अमुल दीबाण,
अमुल तुल अमुल परवाण,
अमुल बख़्शीश अमुल नीसाण,
अमुल करम अमुल फुरमाण,
अमुलो अमुल आखिया ना जाय,
आख आख रहे लिव लाय,
आखहे वेद पाठ पुराण,
आखह पड़े करह वखिआण,
आखह बरमे आखहे इंद,
आखह गोपी तें गोविंद,
आखह ईसर आखहे सिध,
आखह केते कीते बुध,
आखह दानव आखहे देव,
आखह सुर नर मुन जन सेव,
केते आखह आखण पाहै,
केते कह कह उठ उठ जाहे,
एते कीते होर करेहे,
ता आख न सकह केई केए,
जेवड भावै तेवड होय,
नानक जाणै साचा सोय,
जे को आखै बोल बिगाड़,
ता लिखीऐ सिर गावारा गंवार।

सो दर केहा सो घर केहा जित बह सरब समाले,
वाजे नाद अनेक असंखा केते बामन हारे,
केते राग परी स्यों कहीअन केते गावणहारे,
गावह तुहनो पौण पाणी बैसंतर,
गावै राजा धरम दुआरे,
गावह चित गुपत लिख जाणह,
लिख लिख धरम विचारे,
गावह ईसर बरमा देवी,
सोहन सदा सँवारे,
गावह इंद इदासण बैठे,
देवतिया दर नाळे,
गावह सिध समाधी अंदर,
गावण साध विचारे,
गावणजती सती संतोखी,
गावह वीर करारे,
गावण पंडित पड़न रखीसर,
जुग जुग वेदा नाळे,
गावह मोहणीआ मन मोहन,
सुरगा मछ पयाले,
गावणरतन उपाए तेरे,
अड़सठ तीरथ नाळे,
गावहे जोध महाबल शूरा,
गावह खाणी चारे,
गावह खंड मंडल भर पंडा,
कर कर रखे धारे,
सेई तुधनो गावह जो तुध भावन,
रते तेरे भगत रसाले,
और केते गावणसे मै चित न आवन,
नानक क्या विचारे,

सोई सोई सदा सच साहिब,
साचा साची नाई,
है भी होसी जाए न जासी,
रचना जिन रचाई,
रंगी रंगी भाती कर कर,
जिनसी माया जिन उपाई,
कर कर वेखै कीता अपणा,
जिव तिस दी वडिआई,
जो तिस भावे सोई करसी,
हुकम न करणा जाई,
सो पातसाहो साहा पातसाहिब,
नानक रहण रजाई। 

मुंदा संतोख सरम पत झोली,
ध्यान की करह विभूत,
खिंथा काल कुआरी काया,
जुगत डंडा परतीत,
आई पंथी सगळ जमाती,
मन जीतै जग जीत,
आदेस तिसै आदेश,
आद अनील अनाद अनाहत,
जुग जुग एको भेष।

भुगत ज्ञान दया भंडारण,
घट घट वाजह नाद,
आप नाथ नाथी सबी जा की,
रिध सिध अवरा साद,
संजोग विजोग दुए कार चलावहे,
लेखे आवहे भाग,
आदेस तिसै आदेश,
आद अनील अनाद अनाहत,
जुग जुग एको भेष।

एका माई जुगत विआई,
तिन चेले परवाण,
इक संसारी इक भंडारी,
इक लाए दीबाण,
जिव तिस भावै तिवै चलावै,
जिव होवै फुरमाण,
ओहो वेखै ओना नदर ना आवै,
बहुता एहो विडाण,
आदेस तिसै आदेश,
आद अनील अनाद अनाहत,
जुग जुग एको भेष।

आसण लोए, लोए भंडार,
जो किछ पाया, सूं एका वार,
कर कर वेखै सिरजणहार,
नानक सचे की साची कार,
आदेस तिसै आदेश,
आद अनील अनाद अनाहत,
जुग जुग एको भेष।

इक दू जीभौ लख होहे,
लख होवह लख बीस,
लख लख गेड़ा आखीअह,
एक नाम जगदीस,
एत राहे पत पवड़ीआ,
चढ़इहें होए इकीस,
सुण गला आकास की,
कीटा आई रीस,
नानक नदरी पाईऐ,
कूड़ी कूड़ै ठीस।

आखण जोर चुपै नह जोर,
जोर न मंगण देण ना जोर,
जोर ना जीवण मरण ना जोर,
जोर न राज माल मन सोर,
जोर ना सुरती ज्ञान वीचार,
जोर न जुगती छुटै संसार,
जिस हथ जोर कर वेखै सोए,
नानक उतम नीच ना कोय। 

राती रुती थिती वार,
पवण पाणी अगनी पाताळ,
तिस विच धरती थाप रखी धरम साल,
तिस विच जीअ जुगत के रंग,
तिन के नाम अनेक अनंत,
करमी करमी होए विचार,
सच्चा आप सचा दरबार,
तिथै सोहन पंच परवाण,
नदरी करम पवै नीसाण,
कच्च पकाई ओथै पाए,
नानक गया जापै जाए।

धरम खण्ड का एहो धरम,
ज्ञान खण्ड का आखो करम,
केते पवण पाणी वैसंतर केते कान्ह महेस,
केते बरमे घाड़त घड़ीअह रूप रंग के वेस,
केतीआ करम भूमी मेर केते केते धू उपदेस,
केते इंद चंद सूर केते केते मण्डल देस,
केते सिध बुध नाथ, केते केते देवी वेस,
केते देव दानव मुन केते, केते रतन समुंद,
केतिया खाणी केतीआ बाणी केते पात नरिंद,
केतीआ सुरती सेवक केते नानक अंत न अंत।

ज्ञान खण्ड मह ज्ञान परचंड,
तिथै नाद बिनोद कोट अनंद,
सरम खंड की बाणी रूप,
तिथै घाड़त घड़ीऐ बहुत अनूप,
ता कीआ गला कथीआ ना जाहे,
जे को कहै पिछै पछुताए,
तिथै घड़ीअै सुरत मत मन बुध,
तिथै घड़ीअै सुरा सिधा की सुध।

करम खण्ड की बाणी जोर,
तिथै होर न कोई होर,
तिथै जोध महाबल सूर,
तिन मह राम रहिआ भरपूर,
तिथै सीतो सीता महिमा माहे,
ता के रूप न कथने जाहे,
ना ओह मरह न ठागे जाहे,
जिन कै राम वसै मन माहे,
तिथे भगत वसह के लोअ,
करह अनंद सचा मन सोए,
सच खंड वसै निरंकार,
कर कर वेखै नदर निहाल,
तिथै खंड मंडल वरभंड,
जे को कथै त अंत ना अंत,
तिथै लोअ लोअ आकार,
जिव जिव हुकम तिवै तिव कार,
वेखै विगसै कर वीचार,
नानक कथना करड़ा सार। 

जत पाहारा धीरज सुनिआर,
अहरण मत वेद हथीआर,
भओ खला अगन तप ताओ,
भांडा भाओ अमृत तित ढाल,
घड़ीअै सबद सची टकसाल,
जिन कओ नदर करम तिन कार,
नानक नदरी नदर निहाल।

पवण गुरू पाणी पिता माता धरत महत,
दिवस रात दुए दाई दाया खेलै सगल जगत,
चंगिआईआ बुरिआईआ वाचै धरम हदूर,
करमी आपो आपणी के नेड़ै के दूर,
जिनी नाम धिआया गए मसकत घाल,
नानक ते मुख उजले केती छुटी नाळ। 
 
भजन श्रेणी : पंजाबी भजन /शबद (Punjabi Bhajan)


Japji Sahib Full Path by Harshdeep Kaur

ੴ ਸਤਿ ਨਾਮੁ ਕਰਤਾ ਪੁਰਖੁ ਨਿਰਭਉ ਨਿਰਵੈਰੁ ਅਕਾਲ ਮੂਰਤਿ ਅਜੂਨੀ ਸੈਭੰ ਗੁਰ ਪ੍ਰਸਾਦਿ॥
॥ ਜਪੁ॥
ਆਦਿ ਸਚੁ ਜੁਗਾਦਿ ਸਚੁ॥ ਹੈ ਭੀ ਸਚੁ ਨਾਨਕ ਹੋਸੀ ਭੀ ਸਚੁ॥ ੧॥
ਸੋਚੈ ਸੋਚਿ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਸੋਚੀ ਲਖ ਵਾਰ॥
ਚੁਪੈ ਚੁਪ ਨ ਹੋਵਈ ਜੇ ਲਾਇ ਰਹਾ ਲਿਵ ਤਾਰ॥
ਭੁਖਿਆ ਭੁਖ ਨ ਉਤਰੀ ਜੇ ਬੰਨਾ ਪੁਰੀਆ ਭਾਰ॥
ਸਹਸ ਸਿਆਣਪਾ ਲਖ ਹੋਹਿ ਤ ਇਕ ਨ ਚਲੈ ਨਾਲਿ॥
ਕਿਵ ਸਚਿਆਰਾ ਹੋਈਐ ਕਿਵ ਕੂੜੈ ਤੁਟੈ ਪਾਲਿ॥
ਹੁਕਮਿ ਰਜਾਈ ਚਲਣਾ ਨਾਨਕ ਲਿਖਿਆ ਨਾਲਿ॥ ੧॥
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਆਕਾਰ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਹਿਆ ਜਾਈ॥
ਹੁਕਮੀ ਹੋਵਨਿ ਜੀਅ ਹੁਕਮਿ ਮਿਲੈ ਵਡਿਆਈ॥
ਹੁਕਮੀ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਹੁਕਮਿ ਲਿਖਿ ਦੁਖ ਸੁਖ ਪਾਈਅਹਿ॥
ਇਕਨਾ ਹੁਕਮੀ ਬਖਸੀਸ ਇਕਿ ਹੁਕਮੀ ਸਦਾ ਭਵਾਈਅਹਿ॥
ਹੁਕਮੈ ਅੰਦਰਿ ਸਭੁ ਕੋ ਬਾਹਰਿ ਹੁਕਮ ਨ ਕੋਇ॥
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੈ ਜੇ ਬੁਝੈ ਤ ਹਉਮੈ ਕਹੈ ਨ ਕੋਇ॥ ੨॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਤਾਣੁ ਹੋਵੈ ਕਿਸੈ ਤਾਣੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਦਾਤਿ ਜਾਣੈ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਗੁਣ ਵਡਿਆਈਆ ਚਾਰ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਵਿਦਿਆ ਵਿਖਮੁ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਸਾਜਿ ਕਰੇ ਤਨੁ ਖੇਹ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜੀਅ ਲੈ ਫਿਰਿ ਦੇਹ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਜਾਪੈ ਦਿਸੈ ਦੂਰਿ॥
ਗਾਵੈ ਕੋ ਵੇਖੈ ਹਾਦਰਾ ਹਦੂਰਿ॥
ਕਥਨਾ ਕਥੀ ਨ ਆਵੈ ਤੋਟਿ॥
ਕਥਿ ਕਥਿ ਕਥੀ ਕੋਟੀ ਕੋਟਿ ਕੋਟਿ॥
ਦੇਦਾ ਦੇ ਲੈਦੇ ਥਕਿ ਪਾਹਿ॥
ਜੁਗਾ ਜੁਗੰਤਰਿ ਖਾਹੀ ਖਾਹਿ॥
ਹੁਕਮੀ ਹੁਕਮੁ ਚਲਾਏ ਰਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਵਿਗਸੈ ਵੇਪਰਵਾਹੁ॥ ੩॥
ਸਾਚਾ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚੁ ਨਾਇ ਭਾਖਿਆ ਭਾਉ ਅਪਾਰੁ॥
ਆਖਹਿ ਮੰਗਹਿ ਦੇਹਿ ਦੇਹਿ ਦਾਤਿ ਕਰੇ ਦਾਤਾਰੁ॥
ਫੇਰਿ ਕਿ ਅਗੈ ਰਖੀਐ ਜਿਤੁ ਦਿਸੈ ਦਰਬਾਰੁ॥
ਮੁਹੌ ਕਿ ਬੋਲਣੁ ਬੋਲੀਐ ਜਿਤੁ ਸੁਣਿ ਧਰੇ ਪਿਆਰੁ॥
ਅੰਮ੍ਰਿਤ ਵੇਲਾ ਸਚੁ ਨਾਉ ਵਡਿਆਈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕਰਮੀ ਆਵੈ ਕਪੜਾ ਨਦਰੀ ਮੋਖੁ ਦੁਆਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਏਵੈ ਜਾਣੀਐ ਸਭੁ ਆਪੇ ਸਚਿਆਰੁ॥ ੪॥
ਥਾਪਿਆ ਨ ਜਾਇ ਕੀਤਾ ਨ ਹੋਇ॥
ਆਪੇ ਆਪਿ ਨਿਰੰਜਨੁ ਸੋਇ॥
ਜਿਨਿ ਸੇਵਿਆ ਤਿਨਿ ਪਾਇਆ ਮਾਨੁ॥
ਨਾਨਕ ਗਾਵੀਐ ਗੁਣੀ ਨਿਧਾਨੁ॥
ਗਾਵੀਐ ਸੁਣੀਐ ਮਨਿ ਰਖੀਐ ਭਾਉ॥
ਦੁਖੁ ਪਰਹਰਿ ਸੁਖੁ ਘਰਿ ਲੈ ਜਾਇ॥
ਗੁਰਮੁਖਿ ਨਾਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਵੇਦੰ ਗੁਰਮੁਖਿ ਰਹਿਆ ਸਮਾਈ॥
ਗੁਰੁ ਈਸਰੁ ਗੁਰੁ ਗੋਰਖੁ ਬਰਮਾ ਗੁਰੁ ਪਾਰਬਤੀ ਮਾਈ॥
ਜੇ ਹਉ ਜਾਣਾ ਆਖਾ ਨਾਹੀ ਕਹਣਾ ਕਥਨੁ ਨ ਜਾਈ॥
ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ॥
ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ॥ ੫॥
ਤੀਰਥਿ ਨਾਵਾ ਜੇ ਤਿਸੁ ਭਾਵਾ ਵਿਣੁ ਭਾਣੇ ਕਿ ਨਾਇ ਕਰੀ॥
ਜੇਤੀ ਸਿਰਠਿ ਉਪਾਈ ਵੇਖਾ ਵਿਣੁ ਕਰਮਾ ਕਿ ਮਿਲੈ ਲਈ॥
ਮਤਿ ਵਿਚਿ ਰਤਨ ਜਵਾਹਰ ਮਾਣਿਕ ਜੇ ਇਕ ਗੁਰ ਕੀ ਸਿਖ ਸੁਣੀ॥
ਗੁਰਾ ਇਕ ਦੇਹਿ ਬੁਝਾਈ॥
ਸਭਨਾ ਜੀਆ ਕਾ ਇਕੁ ਦਾਤਾ ਸੋ ਮੈ ਵਿਸਰਿ ਨ ਜਾਈ॥ ੬॥
ਜੇ ਜੁਗ ਚਾਰੇ ਆਰਜਾ ਹੋਰ ਦਸੂਣੀ ਹੋਇ॥

ਨਵਾ ਖੰਡਾ ਵਿਚਿ ਜਾਣੀਐ ਨਾਲਿ ਚਲੈ ਸਭੁ ਕੋਇ॥
ਚੰਗਾ ਨਾਉ ਰਖਾਇ ਕੈ ਜਸੁ ਕੀਰਤਿ ਜਗਿ ਲੇਇ॥
ਜੇ ਤਿਸੁ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵਈ ਤ ਵਾਤ ਨ ਪੁਛੈ ਕੇ॥
ਕੀਟਾ ਅੰਦਰਿ ਕੀਟੁ ਕਰਿ ਦੋਸੀ ਦੋਸੁ ਧਰੇ॥
ਨਾਨਕ ਨਿਰਗੁਣਿ ਗੁਣੁ ਕਰੇ ਗੁਣਵੰਤਿਆ ਗੁਣੁ ਦੇ॥
ਤੇਹਾ ਕੋਇ ਨ ਸੁਝਈ ਜਿ ਤਿਸੁ ਗੁਣੁ ਕੋਇ ਕਰੇ॥ ੭॥
ਸੁਣਿਐ ਸਿਧ ਪੀਰ ਸੁਰਿ ਨਾਥ॥
ਸੁਣਿਐ ਧਰਤਿ ਧਵਲ ਆਕਾਸ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੀਪ ਲੋਅ ਪਾਤਾਲ॥
ਸੁਣਿਐ ਪੋਹਿ ਨ ਸਕੈ ਕਾਲੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੮॥
ਸੁਣਿਐ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਇੰਦੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਮੁਖਿ ਸਾਲਾਹਣ ਮੰਦੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਜੋਗ ਜੁਗਤਿ ਤਨਿ ਭੇਦ॥
ਸੁਣਿਐ ਸਾਸਤ ਸਿਮ੍ਰਿਤਿ ਵੇਦ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੯॥
ਸੁਣਿਐ ਸਤੁ ਸੰਤੋਖੁ ਗਿਆਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਅਠਸਠਿ ਕਾ ਇਸਨਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਪੜਿ ਪੜਿ ਪਾਵਹਿ ਮਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਲਾਗੈ ਸਹਜਿ ਧਿਆਨੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੧੦॥
ਸੁਣਿਐ ਸਰਾ ਗੁਣਾ ਕੇ ਗਾਹ॥
ਸੁਣਿਐ ਸੇਖ ਪੀਰ ਪਾਤਿਸਾਹ॥
ਸੁਣਿਐ ਅੰਧੇ ਪਾਵਹਿ ਰਾਹੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਹਾਥ ਹੋਵੈ ਅਸਗਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਭਗਤਾ ਸਦਾ ਵਿਗਾਸੁ॥
ਸੁਣਿਐ ਦੂਖ ਪਾਪ ਕਾ ਨਾਸੁ॥ ੧੧॥
ਮੰਨੇ ਕੀ ਗਤਿ ਕਹੀ ਨ ਜਾਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਪਿਛੈ ਪਛੁਤਾਇ॥
ਕਾਗਦਿ ਕਲਮ ਨ ਲਿਖਣਹਾਰੁ॥
ਮੰਨੇ ਕਾ ਬਹਿ ਕਰਨਿ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੨॥
ਮੰਨੈ ਸੁਰਤਿ ਹੋਵੈ ਮਨਿ ਬੁਧਿ॥
ਮੰਨੈ ਸਗਲ ਭਵਣ ਕੀ ਸੁਧਿ॥
ਮੰਨੈ ਮੁਹਿ ਚੋਟਾ ਨਾ ਖਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਜਮ ਕੈ ਸਾਥਿ ਨ ਜਾਇ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੩॥
ਮੰਨੈ ਮਾਰਗਿ ਠਾਕ ਨ ਪਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਪਤਿ ਸਿਉ ਪਰਗਟੁ ਜਾਇ॥
ਮੰਨੈ ਮਗੁ ਨ ਚਲੈ ਪੰਥੁ॥
ਮੰਨੈ ਧਰਮ ਸੇਤੀ ਸਨਬੰਧੁ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੪॥
ਮੰਨੈ ਪਾਵਹਿ ਮੋਖੁ ਦੁਆਰੁ॥ ਮੰਨੈ ਪਰਵਾਰੈ ਸਾਧਾਰੁ॥
ਮੰਨੈ ਤਰੈ ਤਾਰੇ ਗੁਰੁ ਸਿਖ॥ ਮੰਨੈ ਨਾਨਕ ਭਵਹਿ ਨ ਭਿਖ॥
ਐਸਾ ਨਾਮੁ ਨਿਰੰਜਨੁ ਹੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਮੰਨਿ ਜਾਣੈ ਮਨਿ ਕੋਇ॥ ੧੫॥
ਪੰਚ ਪਰਵਾਣ ਪੰਚ ਪਰਧਾਨੁ॥
ਪੰਚੇ ਪਾਵਹਿ ਦਰਗਹਿ ਮਾਨੁ॥
ਪੰਚੇ ਸੋਹਹਿ ਦਰਿ ਰਾਜਾਨੁ॥
ਪੰਚਾ ਕਾ ਗੁਰੁ ਏਕੁ ਧਿਆਨੁ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਕਰੈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕਰਤੇ ਕੈ ਕਰਣੈ ਨਾਹੀ ਸੁਮਾਰੁ॥
ਧੌਲੁ ਧਰਮੁ ਦਇਆ ਕਾ ਪੂਤੁ॥
ਸੰਤੋਖੁ ਥਾਪਿ ਰਖਿਆ ਜਿਨਿ ਸੂਤਿ॥
ਜੇ ਕੋ ਬੁਝੈ ਹੋਵੈ ਸਚਿਆਰੁ॥
ਧਵਲੈ ਉਪਰਿ ਕੇਤਾ ਭਾਰੁ॥
ਧਰਤੀ ਹੋਰੁ ਪਰੈ ਹੋਰੁ ਹੋਰੁ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਭਾਰੁ ਤਲੈ ਕਵਣੁ ਜੋਰੁ॥
ਜੀਅ ਜਾਤਿ ਰੰਗਾ ਕੇ ਨਾਵ॥
ਸਭਨਾ ਲਿਖਿਆ ਵੁੜੀ ਕਲਾਮ॥
ਏਹੁ ਲੇਖਾ ਲਿਖਿ ਜਾਣੈ ਕੋਇ॥
ਲੇਖਾ ਲਿਖਿਆ ਕੇਤਾ ਹੋਇ॥
ਕੇਤਾ ਤਾਣੁ ਸੁਆਲਿਹੁ ਰੂਪੁ॥
ਕੇਤੀ ਦਾਤਿ ਜਾਣੈ ਕੌਣੁ ਕੂਤੁ॥
ਕੀਤਾ ਪਸਾਉ ਏਕੋ ਕਵਾਉ॥
ਤਿਸ ਤੇ ਹੋਏ ਲਖ ਦਰੀਆਉ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੬॥
ਅਸੰਖ ਜਪ ਅਸੰਖ ਭਾਉ॥
ਅਸੰਖ ਪੂਜਾ ਅਸੰਖ ਤਪ ਤਾਉ॥
ਅਸੰਖ ਗਰੰਥ ਮੁਖਿ ਵੇਦ ਪਾਠ॥
ਅਸੰਖ ਜੋਗ ਮਨਿ ਰਹਹਿ ਉਦਾਸ॥
ਅਸੰਖ ਭਗਤ ਗੁਣ ਗਿਆਨ ਵੀਚਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਸਤੀ ਅਸੰਖ ਦਾਤਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਸੂਰ ਮੁਹ ਭਖ ਸਾਰ॥
ਅਸੰਖ ਮੋਨਿ ਲਿਵ ਲਾਇ ਤਾਰ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੭॥
ਅਸੰਖ ਮੂਰਖ ਅੰਧ ਘੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਚੋਰ ਹਰਾਮਖੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਅਮਰ ਕਰਿ ਜਾਹਿ ਜੋਰ॥
ਅਸੰਖ ਗਲਵਢ ਹਤਿਆ ਕਮਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਪਾਪੀ ਪਾਪੁ ਕਰਿ ਜਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਕੂੜਿਆਰ ਕੂੜੇ ਫਿਰਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਮਲੇਛ ਮਲੁ ਭਖਿ ਖਾਹਿ॥
ਅਸੰਖ ਨਿੰਦਕ ਸਿਰਿ ਕਰਹਿ ਭਾਰੁ॥
ਨਾਨਕੁ ਨੀਚੁ ਕਹੈ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੮॥
ਅਸੰਖ ਨਾਵ ਅਸੰਖ ਥਾਵ॥
ਅਗੰਮ ਅਗੰਮ ਅਸੰਖ ਲੋਅ॥
ਅਸੰਖ ਕਹਹਿ ਸਿਰਿ ਭਾਰੁ ਹੋਇ॥
ਅਖਰੀ ਨਾਮੁ ਅਖਰੀ ਸਾਲਾਹ॥
ਅਖਰੀ ਗਿਆਨੁ ਗੀਤ ਗੁਣ ਗਾਹ॥
ਅਖਰੀ ਲਿਖਣੁ ਬੋਲਣੁ ਬਾਣਿ॥
ਅਖਰਾ ਸਿਰਿ ਸੰਜੋਗੁ ਵਖਾਣਿ॥
ਜਿਨਿ ਏਹਿ ਲਿਖੇ ਤਿਸੁ ਸਿਰਿ ਨਾਹਿ॥
ਜਿਵ ਫੁਰਮਾਏ ਤਿਵ ਤਿਵ ਪਾਹਿ॥
ਜੇਤਾ ਕੀਤਾ ਤੇਤਾ ਨਾਉ॥
ਵਿਣੁ ਨਾਵੈ ਨਾਹੀ ਕੋ ਥਾਉ॥
ਕੁਦਰਤਿ ਕਵਣ ਕਹਾ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਵਾਰਿਆ ਨ ਜਾਵਾ ਏਕ ਵਾਰ॥
ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵੈ ਸਾਈ ਭਲੀ ਕਾਰ॥
ਤੂ ਸਦਾ ਸਲਾਮਤਿ ਨਿਰੰਕਾਰ॥ ੧੯॥
ਭਰੀਐ ਹਥੁ ਪੈਰੁ ਤਨੁ ਦੇਹ॥
ਪਾਣੀ ਧੋਤੈ ਉਤਰਸੁ ਖੇਹ॥
ਮੂਤ ਪਲੀਤੀ ਕਪੜੁ ਹੋਇ॥
ਦੇ ਸਾਬੂਣੁ ਲਈਐ ਓਹੁ ਧੋਇ॥
ਭਰੀਐ ਮਤਿ ਪਾਪਾ ਕੈ ਸੰਗਿ॥
ਓਹੁ ਧੋਪੈ ਨਾਵੈ ਕੈ ਰੰਗਿ॥
ਪੁੰਨੀ ਪਾਪੀ ਆਖਣੁ ਨਾਹਿ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਕਰਣਾ ਲਿਖਿ ਲੈ ਜਾਹੁ॥
ਆਪੇ ਬੀਜਿ ਆਪੇ ਹੀ ਖਾਹੁ॥
ਨਾਨਕ ਹੁਕਮੀ ਆਵਹੁ ਜਾਹੁ॥ ੨੦॥
ਤੀਰਥੁ ਤਪੁ ਦਇਆ ਦਤੁ ਦਾਨੁ॥
ਜੇ ਕੋ ਪਾਵੈ ਤਿਲ ਕਾ ਮਾਨੁ॥
ਸੁਣਿਆ ਮੰਨਿਆ ਮਨਿ ਕੀਤਾ ਭਾਉ॥
ਅੰਤਰਗਤਿ ਤੀਰਥਿ ਮਲਿ ਨਾਉ॥
ਸਭਿ ਗੁਣ ਤੇਰੇ ਮੈ ਨਾਹੀ ਕੋਇ॥
ਵਿਣੁ ਗੁਣ ਕੀਤੇ ਭਗਤਿ ਨ ਹੋਇ॥
ਸੁਅਸਤਿ ਆਥਿ ਬਾਣੀ ਬਰਮਾਉ॥
ਸਤਿ ਸੁਹਾਣੁ ਸਦਾ ਮਨਿ ਚਾਉ॥
ਕਵਣੁ ਸੁ ਵੇਲਾ ਵਖਤੁ ਕਵਣੁ ਕਵਣ ਥਿਤਿ ਕਵਣੁ ਵਾਰੁ॥
ਕਵਣਿ ਸਿ ਰੁਤੀ ਮਾਹੁ ਕਵਣੁ ਜਿਤੁ ਹੋਆ ਆਕਾਰੁ॥
ਵੇਲ ਨ ਪਾਈਆ ਪੰਡਤੀ ਜਿ ਹੋਵੈ ਲੇਖੁ ਪੁਰਾਣੁ॥
ਵਖਤੁ ਨ ਪਾਇਓ ਕਾਦੀਆ ਜਿ ਲਿਖਨਿ ਲੇਖੁ ਕੁਰਾਣੁ॥
ਥਿਤਿ ਵਾਰੁ ਨਾ ਜੋਗੀ ਜਾਣੈ ਰੁਤਿ ਮਾਹੁ ਨਾ ਕੋਈ॥
ਜਾ ਕਰਤਾ ਸਿਰਠੀ ਕਉ ਸਾਜੇ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਸੋਈ॥
ਕਿਵ ਕਰਿ ਆਖਾ ਕਿਵ ਸਾਲਾਹੀ ਕਿਉ ਵਰਨੀ ਕਿਵ ਜਾਣਾ॥
ਨਾਨਕ ਆਖਣਿ ਸਭੁ ਕੋ ਆਖੈ ਇਕ ਦੂ ਇਕੁ ਸਿਆਣਾ॥
ਵਡਾ ਸਾਹਿਬੁ ਵਡੀ ਨਾਈ ਕੀਤਾ ਜਾ ਕਾ ਹੋਵੈ॥
ਨਾਨਕ ਜੇ ਕੋ ਆਪੌ ਜਾਣੈ ਅਗੈ ਗਇਆ ਨ ਸੋਹੈ॥ ੨੧॥
ਪਾਤਾਲਾ ਪਾਤਾਲ ਲਖ ਆਗਾਸਾ ਆਗਾਸ॥
ਓੜਕ ਓੜਕ ਭਾਲਿ ਥਕੇ ਵੇਦ ਕਹਨਿ ਇਕ ਵਾਤ॥
ਸਹਸ ਅਠਾਰਹ ਕਹਨਿ ਕਤੇਬਾ ਅਸੁਲੂ ਇਕੁ ਧਾਤੁ॥
ਲੇਖਾ ਹੋਇ ਤ ਲਿਖੀਐ ਲੇਖੈ ਹੋਇ ਵਿਣਾਸੁ॥
ਨਾਨਕ ਵਡਾ ਆਖੀਐ ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਆਪੁ॥ ੨੨॥ 
ਸਾਲਾਹੀ ਸਾਲਾਹਿ ਏਤੀ ਸੁਰਤਿ ਨ ਪਾਈਆ॥
ਨਦੀਆ ਅਤੈ ਵਾਹ ਪਵਹਿ ਸਮੁੰਦਿ ਨ ਜਾਣੀਅਹਿ॥
ਸਮੁੰਦ ਸਾਹ ਸੁਲਤਾਨ ਗਿਰਹਾ ਸੇਤੀ ਮਾਲੁ ਧਨੁ॥
ਕੀੜੀ ਤੁਲਿ ਨ ਹੋਵਨੀ ਜੇ ਤਿਸੁ ਮਨਹੁ ਨ ਵੀਸਰਹਿ॥ ੨੩॥
ਅੰਤੁ ਨ ਸਿਫਤੀ ਕਹਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਕਰਣੈ ਦੇਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਵੇਖਣਿ ਸੁਣਣਿ ਨ ਅੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਕਿਆ ਮਨਿ ਮੰਤੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਕੀਤਾ ਆਕਾਰੁ॥
ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਪੈ ਪਾਰਾਵਾਰੁ॥
ਅੰਤ ਕਾਰਣਿ ਕੇਤੇ ਬਿਲਲਾਹਿ॥
ਤਾ ਕੇ ਅੰਤ ਨ ਪਾਏ ਜਾਹਿ॥
ਏਹੁ ਅੰਤੁ ਨ ਜਾਣੈ ਕੋਇ॥
ਬਹੁਤਾ ਕਹੀਐ ਬਹੁਤਾ ਹੋਇ॥
ਵਡਾ ਸਾਹਿਬੁ ਊਚਾ ਥਾਉ॥
ਊਚੇ ਉਪਰਿ ਊਚਾ ਨਾਉ॥
ਏਵਡੁ ਊਚਾ ਹੋਵੈ ਕੋਇ॥
ਤਿਸੁ ਊਚੇ ਕਉ ਜਾਣੈ ਸੋਇ॥
ਜੇਵਡੁ ਆਪਿ ਜਾਣੈ ਆਪਿ ਆਪਿ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਕਰਮੀ ਦਾਤਿ॥ ੨੪॥
ਬਹੁਤਾ ਕਰਮੁ ਲਿਖਿਆ ਨਾ ਜਾਇ॥
ਵਡਾ ਦਾਤਾ ਤਿਲੁ ਨ ਤਮਾਇ॥
ਕੇਤੇ ਮੰਗਹਿ ਜੋਧ ਅਪਾਰ॥
ਕੇਤਿਆ ਗਣਤ ਨਹੀ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਕੇਤੇ ਖਪਿ ਤੁਟਹਿ ਵੇਕਾਰ॥
ਕੇਤੇ ਲੈ ਲੈ ਮੁਕਰੁ ਪਾਹਿ॥
ਕੇਤੇ ਮੂਰਖ ਖਾਹੀ ਖਾਹਿ॥
ਕੇਤਿਆ ਦੂਖ ਭੂਖ ਸਦ ਮਾਰ॥
ਏਹਿ ਭਿ ਦਾਤਿ ਤੇਰੀ ਦਾਤਾਰ॥
ਬੰਦਿ ਖਲਾਸੀ ਭਾਣੈ ਹੋਇ॥
ਹੋਰੁ ਆਖਿ ਨ ਸਕੈ ਕੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਖਾਇਕੁ ਆਖਣਿ ਪਾਇ॥
ਓਹੁ ਜਾਣੈ ਜੇਤੀਆ ਮੁਹਿ ਖਾਇ॥
ਆਪੇ ਜਾਣੈ ਆਪੇ ਦੇਇ॥
ਆਖਹਿ ਸਿ ਭਿ ਕੇਈ ਕੇਇ॥
ਜਿਸ ਨੋ ਬਖਸੇ ਸਿਫਤਿ ਸਾਲਾਹ॥
ਨਾਨਕ ਪਾਤਿਸਾਹੀ ਪਾਤਿਸਾਹੁ॥ ੨੫॥
ਅਮੁਲ ਗੁਣ ਅਮੁਲ ਵਾਪਾਰ॥
ਅਮੁਲ ਵਾਪਾਰੀਏ ਅਮੁਲ ਭੰਡਾਰ॥
ਅਮੁਲ ਆਵਹਿ ਅਮੁਲ ਲੈ ਜਾਹਿ॥
ਅਮੁਲ ਭਾਇ ਅਮੁਲਾ ਸਮਾਹਿ॥
ਅਮੁਲੁ ਧਰਮੁ ਅਮੁਲੁ ਦੀਬਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਤੁਲੁ ਅਮੁਲੁ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਬਖਸੀਸ ਅਮੁਲੁ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੁ ਕਰਮੁ ਅਮੁਲੁ ਫੁਰਮਾਣੁ॥
ਅਮੁਲੋ ਅਮੁਲੁ ਆਖਿਆ ਨ ਜਾਇ॥
ਆਖਿ ਆਖਿ ਰਹੇ ਲਿਵ ਲਾਇ॥
ਆਖਹਿ ਵੇਦ ਪਾਠ ਪੁਰਾਣ॥
ਆਖਹਿ ਪੜੇ ਕਰਹਿ ਵਖਿਆਣ॥
ਆਖਹਿ ਬਰਮੇ ਆਖਹਿ ਇੰਦ॥
ਆਖਹਿ ਗੋਪੀ ਤੈ ਗੋਵਿੰਦ॥
ਆਖਹਿ ਈਸਰ ਆਖਹਿ ਸਿਧ॥
ਆਖਹਿ ਕੇਤੇ ਕੀਤੇ ਬੁਧ॥
ਆਖਹਿ ਦਾਨਵ ਆਖਹਿ ਦੇਵ॥
ਆਖਹਿ ਸੁਰਿ ਨਰ ਮੁਨਿ ਜਨ ਸੇਵ॥
ਕੇਤੇ ਆਖਹਿ ਆਖਣਿ ਪਾਹਿ॥
ਕੇਤੇ ਕਹਿ ਕਹਿ ਉਠਿ ਉਠਿ ਜਾਹਿ॥
ਏਤੇ ਕੀਤੇ ਹੋਰਿ ਕਰੇਹਿ॥
ਤਾ ਆਖਿ ਨ ਸਕਹਿ ਕੇਈ ਕੇਇ॥
ਜੇਵਡੁ ਭਾਵੈ ਤੇਵਡੁ ਹੋਇ॥
ਨਾਨਕ ਜਾਣੈ ਸਾਚਾ ਸੋਇ॥
ਜੇ ਕੋ ਆਖੈ ਬੋਲੁਵਿਗਾੜੁ॥
ਤਾ ਲਿਖੀਐ ਸਿਰਿ ਗਾਵਾਰਾ ਗਾਵਾਰੁ॥ ੨੬॥ 
ਸੋ ਦਰੁ ਕੇਹਾ ਸੋ ਘਰੁ ਕੇਹਾ ਜਿਤੁ ਬਹਿ ਸਰਬ ਸਮਾਲੇ॥
ਵਾਜੇ ਨਾਦ ਅਨੇਕ ਅਸੰਖਾ ਕੇਤੇ ਵਾਵਣਹਾਰੇ॥
ਕੇਤੇ ਰਾਗ ਪਰੀ ਸਿਉ ਕਹੀਅਨਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਣਹਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਤੁਹਨੋ ਪਉਣੁ ਪਾਣੀ ਬੈਸੰਤਰੁ ਗਾਵੈ ਰਾਜਾ ਧਰਮੁ ਦੁਆਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਚਿਤੁ ਗੁਪਤੁ ਲਿਖਿ ਜਾਣਹਿ ਲਿਖਿ ਲਿਖਿ ਧਰਮੁ ਵੀਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਈਸਰੁ ਬਰਮਾ ਦੇਵੀ ਸੋਹਨਿ ਸਦਾ ਸਵਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਇੰਦ ਇਦਾਸਣਿ ਬੈਠੇ ਦੇਵਤਿਆ ਦਰਿ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਸਿਧ ਸਮਾਧੀ ਅੰਦਰਿ ਗਾਵਨਿ ਸਾਧ ਵਿਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਜਤੀ ਸਤੀ ਸੰਤੋਖੀ ਗਾਵਹਿ ਵੀਰ ਕਰਾਰੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਪੰਡਿਤ ਪੜਨਿ ਰਖੀਸਰ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਵੇਦਾ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਮੋਹਣੀਆ ਮਨੁ ਮੋਹਨਿ ਸੁਰਗਾ ਮਛ ਪਇਆਲੇ॥
ਗਾਵਨਿ ਰਤਨ ਉਪਾਏ ਤੇਰੇ ਅਠਸਠਿ ਤੀਰਥ ਨਾਲੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰਾ ਗਾਵਹਿ ਖਾਣੀ ਚਾਰੇ॥
ਗਾਵਹਿ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡਾ ਕਰਿ ਕਰਿ ਰਖੇ ਧਾਰੇ॥
ਸੇਈ ਤੁਧੁਨੋ ਗਾਵਹਿ ਜੋ ਤੁਧੁ ਭਾਵਨਿ ਰਤੇ ਤੇਰੇ ਭਗਤ ਰਸਾਲੇ॥
ਹੋਰਿ ਕੇਤੇ ਗਾਵਨਿ ਸੇ ਮੈ ਚਿਤਿ ਨ ਆਵਨਿ ਨਾਨਕੁ ਕਿਆ ਵੀਚਾਰੇ॥
ਸੋਈ ਸੋਈ ਸਦਾ ਸਚੁ ਸਾਹਿਬੁ ਸਾਚਾ ਸਾਚੀ ਨਾਈ॥
ਹੈ ਭੀ ਹੋਸੀ ਜਾਇ ਨ ਜਾਸੀ ਰਚਨਾ ਜਿਨਿ ਰਚਾਈ॥
ਰੰਗੀ ਰੰਗੀ ਭਾਤੀ ਕਰਿ ਕਰਿ ਜਿਨਸੀ ਮਾਇਆ ਜਿਨਿ ਉਪਾਈ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਕੀਤਾ ਆਪਣਾ ਜਿਵ ਤਿਸ ਦੀ ਵਡਿਆਈ॥
ਜੋ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਸੋਈ ਕਰਸੀ ਹੁਕਮੁ ਨ ਕਰਣਾ ਜਾਈ॥
ਸੋ ਪਾਤਿਸਾਹੁ ਸਾਹਾ ਪਾਤਿਸਾਹਿਬੁ ਨਾਨਕ ਰਹਣੁ ਰਜਾਈ॥ ੨੭॥
ਮੁੰਦਾ ਸੰਤੋਖੁ ਸਰਮੁ ਪਤੁ ਝੋਲੀ ਧਿਆਨ ਕੀ ਕਰਹਿ ਬਿਭੂਤਿ॥
ਖਿੰਥਾ ਕਾਲੁ ਕੁਆਰੀ ਕਾਇਆ ਜੁਗਤਿ ਡੰਡਾ ਪਰਤੀਤਿ॥
ਆਈ ਪੰਥੀ ਸਗਲ ਜਮਾਤੀ ਮਨਿ ਜੀਤੈ ਜਗੁ ਜੀਤੁ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੨੮॥
ਭੁਗਤਿ ਗਿਆਨੁ ਦਇਆ ਭੰਡਾਰਣਿ ਘਟਿ ਘਟਿ ਵਾਜਹਿ ਨਾਦ॥
ਆਪਿ ਨਾਥੁ ਨਾਥੀ ਸਭ ਜਾ ਕੀ ਰਿਧਿ ਸਿਧਿ ਅਵਰਾ ਸਾਦ॥
ਸੰਜੋਗੁ ਵਿਜੋਗੁ ਦੁਇ ਕਾਰ ਚਲਾਵਹਿ ਲੇਖੇ ਆਵਹਿ ਭਾਗ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੨੯॥
ਏਕਾ ਮਾਈ ਜੁਗਤਿ ਵਿਆਈ ਤਿਨਿ ਚੇਲੇ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਇਕੁ ਸੰਸਾਰੀ ਇਕੁ ਭੰਡਾਰੀ ਇਕੁ ਲਾਏ ਦੀਬਾਣੁ॥
ਜਿਵ ਤਿਸੁ ਭਾਵੈ ਤਿਵੈ ਚਲਾਵੈ ਜਿਵ ਹੋਵੈ ਫੁਰਮਾਣੁ॥
ਓਹੁ ਵੇਖੈ ਓਨਾ ਨਦਰਿ ਨ ਆਵੈ ਬਹੁਤਾ ਏਹੁ ਵਿਡਾਣੁ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥ 
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੩੦॥ 
ਆਸਣੁ ਲੋਇ ਲੋਇ ਭੰਡਾਰ॥
ਜੋ ਕਿਛੁ ਪਾਇਆ ਸੁ ਏਕਾ ਵਾਰ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸਿਰਜਣਹਾਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਸਚੇ ਕੀ ਸਾਚੀ ਕਾਰ॥
ਆਦੇਸੁ ਤਿਸੈ ਆਦੇਸੁ॥ 
ਆਦਿ ਅਨੀਲੁ ਅਨਾਦਿ ਅਨਾਹਤਿ ਜੁਗੁ ਜੁਗੁ ਏਕੋ ਵੇਸੁ॥ ੩੧॥
ਇਕ ਦੂ ਜੀਭੌ ਲਖ ਹੋਹਿ ਲਖ ਹੋਵਹਿ ਲਖ ਵੀਸ॥ 

ਲਖੁ ਲਖੁ ਗੇੜਾ ਆਖੀਅਹਿ ਏਕੁ ਨਾਮੁ ਜਗਦੀਸ॥
ਏਤੁ ਰਾਹਿ ਪਤਿ ਪਵੜੀਆ ਚੜੀਐ ਹੋਇ ਇਕੀਸ॥
ਸੁਣਿ ਗਲਾ ਆਕਾਸ ਕੀ ਕੀਟਾ ਆਈ ਰੀਸ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਪਾਈਐ ਕੂੜੀ ਕੂੜੈ ਠੀਸ॥ ੩੨॥
ਆਖਣਿ ਜੋਰੁ ਚੁਪੈ ਨਹ ਜੋਰੁ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਮੰਗਣਿ ਦੇਣਿ ਨ ਜੋਰੁ॥
ਜੋਰੁ ਨ ਜੀਵਣਿ ਮਰਣਿ ਨਹ ਜੋਰੁ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਰਾਜਿ ਮਾਲਿ ਮਨਿ ਸੋਰੁ॥
ਜੋਰੁ ਨ ਸੁਰਤੀ ਗਿਆਨਿ ਵੀਚਾਰਿ॥ ਜੋਰੁ ਨ ਜੁਗਤੀ ਛੁਟੈ ਸੰਸਾਰੁ॥
ਜਿਸੁ ਹਥਿ ਜੋਰੁ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਸੋਇ॥ ਨਾਨਕ ਉਤਮੁ ਨੀਚੁ ਨ ਕੋਇ॥ ੩੩॥
ਰਾਤੀ ਰੁਤੀ ਥਿਤੀ ਵਾਰ॥ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਅਗਨੀ ਪਾਤਾਲ॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਧਰਤੀ ਥਾਪਿ ਰਖੀ ਧਰਮ ਸਾਲ॥
ਤਿਸੁ ਵਿਚਿ ਜੀਅ ਜੁਗਤਿ ਕੇ ਰੰਗ॥
ਤਿਨ ਕੇ ਨਾਮ ਅਨੇਕ ਅਨੰਤ॥ ਕਰਮੀ ਕਰਮੀ ਹੋਇ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਸਚਾ ਆਪਿ ਸਚਾ ਦਰਬਾਰੁ॥
ਤਿਥੈ ਸੋਹਨਿ ਪੰਚ ਪਰਵਾਣੁ॥
ਨਦਰੀ ਕਰਮਿ ਪਵੈ ਨੀਸਾਣੁ॥
ਕਚ ਪਕਾਈ ਓਥੈ ਪਾਇ॥ ਨਾਨਕ ਗਇਆ ਜਾਪੈ ਜਾਇ॥ ੩੪॥
ਧਰਮ ਖੰਡ ਕਾ ਏਹੋ ਧਰਮੁ॥
ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਕਾ ਆਖਹੁ ਕਰਮੁ॥
ਕੇਤੇ ਪਵਣ ਪਾਣੀ ਵੈਸੰਤਰ ਕੇਤੇ ਕਾਨ ਮਹੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਬਰਮੇ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਅਹਿ ਰੂਪ ਰੰਗ ਕੇ ਵੇਸ॥
ਕੇਤੀਆ ਕਰਮ ਭੂਮੀ ਮੇਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਧੂ ਉਪਦੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਇੰਦ ਚੰਦ ਸੂਰ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਮੰਡਲ ਦੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਸਿਧ ਬੁਧ ਨਾਥ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਦੇਵੀ ਵੇਸ॥
ਕੇਤੇ ਦੇਵ ਦਾਨਵ ਮੁਨਿ ਕੇਤੇ ਕੇਤੇ ਰਤਨ ਸਮੁੰਦ॥
ਕੇਤੀਆ ਖਾਣੀ ਕੇਤੀਆ ਬਾਣੀ ਕੇਤੇ ਪਾਤ ਨਰਿੰਦ॥
ਕੇਤੀਆ ਸੁਰਤੀ ਸੇਵਕ ਕੇਤੇ ਨਾਨਕ ਅੰਤੁ ਨ ਅੰਤੁ॥ ੩੫॥  
ਗਿਆਨ ਖੰਡ ਮਹਿ ਗਿਆਨੁ ਪਰਚੰਡੁ॥
ਤਿਥੈ ਨਾਦ ਬਿਨੋਦ ਕੋਡ ਅਨੰਦੁ॥ ਸਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਰੂਪੁ॥
ਤਿਥੈ ਘਾੜਤਿ ਘੜੀਐ ਬਹੁਤੁ ਅਨੂਪੁ॥
ਤਾ ਕੀਆ ਗਲਾ ਕਥੀਆ ਨਾ ਜਾਹਿ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਹੈ ਪਿਛੈ ਪਛੁਤਾਇ॥
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਤਿ ਮਤਿ ਮਨਿ ਬੁਧਿ॥
ਤਿਥੈ ਘੜੀਐ ਸੁਰਾ ਸਿਧਾ ਕੀ ਸੁਧਿ॥ ੩੬॥
ਕਰਮ ਖੰਡ ਕੀ ਬਾਣੀ ਜੋਰੁ॥
ਤਿਥੈ ਹੋਰੁ ਨ ਕੋਈ ਹੋਰੁ॥ ਤਿਥੈ ਜੋਧ ਮਹਾਬਲ ਸੂਰ॥
ਤਿਨ ਮਹਿ ਰਾਮੁ ਰਹਿਆ ਭਰਪੂਰ॥
ਤਿਥੈ ਸੀਤੋ ਸੀਤਾ ਮਹਿਮਾ ਮਾਹਿ॥
ਤਾ ਕੇ ਰੂਪ ਨ ਕਥਨੇ ਜਾਹਿ॥
ਨਾ ਓਹਿ ਮਰਹਿ ਨ ਠਾਗੇ ਜਾਹਿ॥
ਜਿਨ ਕੈ ਰਾਮੁ ਵਸੈ ਮਨ ਮਾਹਿ॥
ਤਿਥੈ ਭਗਤ ਵਸਹਿ ਕੇ ਲੋਅ॥
ਕਰਹਿ ਅਨੰਦੁ ਸਚਾ ਮਨਿ ਸੋਇ॥
ਸਚ ਖੰਡਿ ਵਸੈ ਨਿਰੰਕਾਰੁ॥
ਕਰਿ ਕਰਿ ਵੇਖੈ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ॥
ਤਿਥੈ ਖੰਡ ਮੰਡਲ ਵਰਭੰਡ॥
ਜੇ ਕੋ ਕਥੈ ਤ ਅੰਤ ਨ ਅੰਤ॥
ਤਿਥੈ ਲੋਅ ਲੋਅ ਆਕਾਰ॥
ਜਿਵ ਜਿਵ ਹੁਕਮੁ ਤਿਵੈ ਤਿਵ ਕਾਰ॥
ਵੇਖੈ ਵਿਗਸੈ ਕਰਿ ਵੀਚਾਰੁ॥
ਨਾਨਕ ਕਥਨਾ ਕਰੜਾ ਸਾਰੁ॥ ੩੭॥
ਜਤੁ ਪਾਹਾਰਾ ਧੀਰਜੁ ਸੁਨਿਆਰੁ॥
ਅਹਰਣਿ ਮਤਿ ਵੇਦੁ ਹਥੀਆਰੁ॥
ਭਉ ਖਲਾ ਅਗਨਿ ਤਪ ਤਾਉ॥
ਭਾਂਡਾ ਭਾਉ ਅੰਮ੍ਰਿਤੁ ਤਿਤੁ ਢਾਲਿ॥
ਘੜੀਐ ਸਬਦੁ ਸਚੀ ਟਕਸਾਲ॥
ਜਿਨ ਕਉ ਨਦਰਿ ਕਰਮੁ ਤਿਨ ਕਾਰ॥
ਨਾਨਕ ਨਦਰੀ ਨਦਰਿ ਨਿਹਾਲ॥ ੩੮॥ ਸਲੋਕੁ॥
ਪਵਣੁ ਗੁਰੂ ਪਾਣੀ ਪਿਤਾ ਮਾਤਾ ਧਰਤਿ ਮਹਤੁ॥
ਦਿਵਸੁ ਰਾਤਿ ਦੁਇ ਦਾਈ ਦਾਇਆ ਖੇਲੈ ਸਗਲ ਜਗਤੁ॥
ਚੰਗਿਆਈਆ ਬੁਰਿਆਈਆ ਵਾਚੈ ਧਰਮੁ ਹਦੂਰਿ॥
ਕਰਮੀ ਆਪੋ ਆਪਣੀ ਕੇ ਨੇੜੈ ਕੇ ਦੂਰਿ॥
ਜਿਨੀ ਨਾਮੁ ਧਿਆਇਆ ਗਏ ਮਸਕਤਿ ਘਾਲਿ॥
ਨਾਨਕ ਤੇ ਮੁਖ ਉਜਲੇ ਕੇਤੀ ਛੁਟੀ ਨਾਲਿ॥ ੧॥

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