पहले छंद में गरुड़ और कौए की बातचीत से यह बताया गया है कि सच्चा प्रेम स्वार्थ से ऊपर होता है, और भगवान राम के चरणों में प्रेम ही सबसे बड़ा फल है। दूसरा भजन "सबसे ऊँची प्रेम सगाई" श्रीकृष्ण और राम के उदाहरणों से दिखाता है कि प्रेम में कोई ऊँच-नीच नहीं होती—चाहे वह विदुर का साग हो, शबरी के जूठे बेर हों, या गोपियों का नृत्य, प्रेम ही सबसे ऊँचा बंधन है। तीसरा मंत्र, गायत्री मंत्र और शांति पाठ, बुद्धि को प्रेरित करने और ब्रह्मांड में शांति की प्रार्थना करता है, जिसमें आकाश, पृथ्वी, जल, औषधियाँ, और सभी जीवों के लिए शांति माँगी गई है। चौथा छंद रामचरितमानस से है, जिसमें भगवान राम कहते हैं कि जैसे एक पिता अपने सभी बेटों से समान प्रेम करता है—चाहे वे विद्वान हों, धनवान हों, या साधारण—वैसे ही वे सभी जीवों से प्रेम करते हैं। जो भक्त मद और माया छोड़कर सच्चे मन से उनकी भक्ति करता है, वही उन्हें सबसे प्रिय है, फिर चाहे वह पुरुष हो, स्त्री हो, या कोई भी जीव। कुल मिलाकर, ये सभी रचनाएँ यह सिखाती हैं कि सच्चा प्रेम और भक्ति ही जीवन का सबसे बड़ा धन है, जो हमें शांति और ईश्वर के करीब ले जाता है।
कबहूँ काल न ब्यापिहि तोही। सुमिरेसु भजेसु निरंतर मोही।।
प्रभु बचनामृत सुनि न अघाऊँ। तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ।।
सो सुख जानइ मन अरु काना। नहिं रसना पहिं जाइ बखाना।।
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना। कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना।।
बहु बिधि मोहि प्रबोधि सुख देई। लगे करन सिसु कौतुक तेई।।
सजल नयन कछु मुख करि रूखा। चितइ मातु लागी अति भूखा।।
देखि मातु आतुर उठि धाई। कहि मृदु बचन लिए उर लाई।।
गोद राखि कराव पय पाना। रघुपति चरित ललित कर गाना।।
सो0-जेहि सुख लागि पुरारि असुभ बेष कृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महुँ संतत मगन।।88(क)।।
सोइ सुख लवलेस जिन्ह बारक सपनेहुँ लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस ब्रह्मसुखहि सज्जन सुमति।।88(ख)।।
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला। देखेउँ बालबिनोद रसाला।।
राम प्रसाद भगति बर पायउँ। प्रभु पद बंदि निजाश्रम आयउँ।।
तब ते मोहि न ब्यापी माया। जब ते रघुनायक अपनाया।।
यह सब गुप्त चरित मैं गावा। हरि मायाँ जिमि मोहि नचावा।।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा। बिनु हरि भजन न जाहि कलेसा।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई। जानि न जाइ राम प्रभुताई।।
जानें बिनु न होइ परतीती। बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई। जिमि खगपति जल कै चिकनाई।।
सो0-बिनु गुर होइ कि ग्यान ग्यान कि होइ बिराग बिनु।
गावहिं बेद पुरान सुख कि लहिअ हरि भगति बिनु।।89(क)।।
कोउ बिश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु।
चलै कि जल बिनु नाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।।89(ख)।।
बिनु संतोष न काम नसाहीं। काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं।।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा। थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा।।
बिनु बिग्यान कि समता आवइ। कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावइ कोई।।
बिनु तप तेज कि कर बिस्तारा। जल बिनु रस कि होइ संसारा।।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई। जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।।
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा। परस कि होइ बिहीन समीरा।।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा। बिनु हरि भजन न भव भय नासा।।
दो0-बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु।
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु।।90(क)।।
सो0-अस बिचारि मतिधीर तजि कुतर्क संसय सकल।
भजहु राम रघुबीर करुनाकर सुंदर सुखद।।90(ख)।।
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निज मति सरिस नाथ मैं गाई। प्रभु प्रताप महिमा खगराई।।
कहेउँ न कछु करि जुगुति बिसेषी। यह सब मैं निज नयनन्हि देखी।।
महिमा नाम रूप गुन गाथा। सकल अमित अनंत रघुनाथा।।
निज निज मति मुनि हरि गुन गावहिं। निगम सेष सिव पार न पावहिं।।
तुम्हहि आदि खग मसक प्रजंता। नभ उड़ाहिं नहिं पावहिं अंता।।
तिमि रघुपति महिमा अवगाहा। तात कबहुँ कोउ पाव कि थाहा।।
रामु काम सत कोटि सुभग तन। दुर्गा कोटि अमित अरि मर्दन।।
सक्र कोटि सत सरिस बिलासा। नभ सत कोटि अमित अवकासा।।
दो0-मरुत कोटि सत बिपुल बल रबि सत कोटि प्रकास।
ससि सत कोटि सुसीतल समन सकल भव त्रास।।91(क)।।
काल कोटि सत सरिस अति दुस्तर दुर्ग दुरंत।
धूमकेतु सत कोटि सम दुराधरष भगवंत।।91(ख)।।
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प्रभु अगाध सत कोटि पताला। समन कोटि सत सरिस कराला।।
तीरथ अमित कोटि सम पावन। नाम अखिल अघ पूग नसावन।।
हिमगिरि कोटि अचल रघुबीरा। सिंधु कोटि सत सम गंभीरा।।
कामधेनु सत कोटि समाना। सकल काम दायक भगवाना।।
सारद कोटि अमित चतुराई। बिधि सत कोटि सृष्टि निपुनाई।।
बिष्नु कोटि सम पालन कर्ता। रुद्र कोटि सत सम संहर्ता।।
धनद कोटि सत सम धनवाना। माया कोटि प्रपंच निधाना।।
भार धरन सत कोटि अहीसा। निरवधि निरुपम प्रभु जगदीसा।।
छं0-निरुपम न उपमा आन राम समान रामु निगम कहै।
जिमि कोटि सत खद्योत सम रबि कहत अति लघुता लहै।।
एहि भाँति निज निज मति बिलास मुनिस हरिहि बखानहीं।
प्रभु भाव गाहक अति कृपाल सप्रेम सुनि सुख मानहीं।।
दो0-रामु अमित गुन सागर थाह कि पावइ कोइ।
संतन्ह सन जस किछु सुनेउँ तुम्हहि सुनायउँ सोइ।।92(क)।।
सो0-भाव बस्य भगवान सुख निधान करुना भवन।
तजि ममता मद मान भजिअ सदा सीता रवन।।92(ख)।।
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सुनि भुसुंडि के बचन सुहाए। हरषित खगपति पंख फुलाए।।
नयन नीर मन अति हरषाना। श्रीरघुपति प्रताप उर आना।।
पाछिल मोह समुझि पछिताना। ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।।
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा। जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।।
गुर बिनु भव निधि तरइ न कोई। जौं बिरंचि संकर सम होई।।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता। दुखद लहरि कुतर्क बहु ब्राता।।
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक। मोहि जिआयउ जन सुखदायक।।
तव प्रसाद मम मोह नसाना। राम रहस्य अनूपम जाना।।
दो0-ताहि प्रसंसि बिबिध बिधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।।93(क)।।
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।।93(ख)।।
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तुम्ह सर्बग्य तन्य तम पारा। सुमति सुसील सरल आचारा।।
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा। रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा।।
कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोहि कहहु बुझाई।।
राम चरित सर सुंदर स्वामी। पायहु कहाँ कहहु नभगामी।।
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं। महा प्रलयहुँ नास तव नाहीं।।
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहई। सोउ मोरें मन संसय अहई।।
अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा।।
अंड कटाह अमित लय कारी। कालु सदा दुरतिक्रम भारी।।
सो0-तुम्हहि न ब्यापत काल अति कराल कारन कवन।
मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।।94(क)।।
दो0-प्रभु तव आश्रम आएँ मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।।94(ख)।।