इक अरज सुनो मोरी भजन
इक अरज सुनो मोरी भजन
इक अरज सुनो मोरी मैं किन सँग खेलूं होरी।।टेक।।तुम तो जाँय विदेसाँ छाये, हमसे रहै चितचोरी।
तन आभूषण छोड़यो सब ही, तज दियो पाट पटोरी।
मिलन की लग रही डोरी।
आप मिलाय बिन कल न परत हैं, त्याग दियो तिलक तमोली।
मीराँ के प्रभु मिलज्यो माधव, सुणज्यो अरज मोरी।
दरस बिण विरहणी दोरी।।
(पाट=वस्त्र, पटोरी=साज-शृंगार, डोरी=आशा, कल न परत है=चैन नहीं मिलता, तमोली=पान, दीरी=दुःखी)
सुंदर भजन में मीरा बाई की श्रीकृष्ण के प्रति गहरी विरह-वेदना और अनन्य प्रेम का उद्गार झलकता है, जो भक्त के हृदय को उनकी भक्ति और समर्पण के रस में डुबो देता है। यह भाव उस सत्य को प्रकट करता है कि मीरा के लिए श्रीकृष्ण ही जीवन का एकमात्र साथी और सुख हैं, जिनके बिना मन अधूरा और बेचैन है।
मीरा की यह अरज कि वह होरी किसके संग खेलें, उनकी उस तीव्र लालसा को दर्शाती है, जो श्रीकृष्ण के सान्निध्य के बिना अधूरी रहती है। यह उद्गार मन को उस अनुभूति से जोड़ता है, जैसे कोई प्रिय के बिना उत्सव की रंगत फीकी पड़ जाती है। श्रीकृष्ण के विदेश जाने और चितचोरी करने का उल्लेख उनके प्रति मीरा के गहरे प्रेम और विरह की पीड़ा को रेखांकित करता है।
तन के आभूषण, पाट, पटोरी और तिलक-तमोली को त्यागने का भाव मीरा के सांसारिक मोह से पूर्ण वैराग्य को दर्शाता है। यह भाव उस सत्य को उजागर करता है कि सच्चा भक्त प्रभु के मिलन की डोरी को पकड़कर सारी सांसारिक माया छोड़ देता है। जैसे कोई विद्यार्थी अपने गुरु के मार्ग पर चलकर सत्य की खोज करता है, वैसे ही मीरा ने अपने मन को केवल श्रीकृष्ण के लिए अर्पित कर दिया है।
मीरा की यह पुकार कि बिना दर्शन के वह विरहणी दुखी है और माधव उनकी अरज सुनें, उनके पूर्ण समर्पण और प्रेम की गहराई को दर्शाती है।