भली भई जो गुरु मिल्या नहीं तर होती हाणि हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

भली भई जो गुरु मिल्या नहीं तर होती हाणि हिंदी मीनिंग Bhali Bhayi Jo Guru Milya Nahi Tar Hoti Hindi Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit


भली भई जो गुरु मिल्या, नहीं तर होती हाणि ।
दीपक दृष्टि पतंग ज्यूँ, पड़ता पूरी जाणि॥
 
Bhalee Bhee Jo Guru Milya, Nahin Tar Hotee Haani .
Deepak Drshti Patang Jyoon, Padata Pooree Jaani.

भली भई जो गुरु मिल्या नहीं तर होती हाणि हिंदी मीनिंग Bhali Bhayi Jo Guru Milya Nahi Tar Hoti Hindi Meaning

Word Meaning of "Bhali Bhai Jo Guru Milya Nahi Tar Hoti Hani " भली भई जो गुरु मिल्या शब्दार्थ हिंदी

 
भली भई- भला हुआ/अच्छा हुआ.
जो गुरु मिल्या-जोसतगुरु के दर्शन हुए/सतगुरु का सानिध्य मिला.
नहीं तर होती हाणि-अन्यथा हानि होती.
दीपक दृष्टि -माया रूपी दीपक/प्रकाश
पतंग ज्यूँ-नर रूपी पतंगा
पड़ता पूरी जाणि-नर रूपी पतंगा माया रूपी दीपक में गिर पड़ता और इससे अमूल्य जीवन समाप्त हो जाता.


Bhali Bhai Jo Guru Milya Nahi Tar Hoti Hani HIndi Meaning

कबीर के दोहे का हिंदी मीनिंग: गुरु की महिमा का वर्णन है की अच्छा हुआ जो गुरु मिल गए, अन्यथा तो मेरी हानि ही होती। जैसे दीपक की अग्नि की और पतंगे आकृष्ट हो जाते हैं वैसे ही मैं भी विषय वासनाओं और माया की और आकृष्ट हो जाता और परिणामस्वरूप अमूल्य जीवन को नष्ट कर देता। ज्ञान का भी तो प्रकाश है और दीपक का भी। दोनों में अंतर् है की माया छद्म रूप भी धारण कर लेती है। दीपक जैसा दिखती है लेकिन वह प्रकाश नहीं लालसा और इच्छा है जो अपनी और खींचती है। एक और ज्ञान का प्रकाश है वही दूसरी और प्रकाश (लालच ) है माया का जो अपनी और खींचता है। 
 
ज्ञान का प्रकाश भव् सागर से पार कर देता है और माया का मिथ्या प्रकाश जीवन को बर्बाद कर देता है। ज्ञान का प्रकाश कौन दे सकता है ? देखिये, यह सत्य है की गुरु ही शिष्य को ज्ञान देता है लेकिन गुरु का चयन कैसे किया जाय, यह शिष्य की योग्यता पर निर्भर करता है। कोई बाजार से अमुक वस्तु लेने जाता है, अब यह उसके विवेक पर निर्भर है की आप क्या और कैसी गुणवत्ता की वस्तु को घर पर लेकर आते हैं। ऐसे ही गुरु किसे बनाना है यह भी आपके विवेक पर ही निर्भर करता है।

गुरु गोविन्द दोउ एक है, दूजा सब आकार।
आपा मेटै हरी भजे, तो पावै दीदार ।।

गुरु और ईश्वर में कोई अंतर नहीं है। दोनों एक ही हैं, केवल हमारे ही मन का अंतर है। बाहर से उन दोनों में भले ही अंतर है। पर अंदर से वे एक ही हैं। मन से मैं की भावना निकालकर हरि को भजने से मन का सारा दोष मिट जाता है और तब हरि का दर्शन हो जाता है। दोनों में भेद तब तक ही है जब तक गुरु ज्ञान को हम अपना नहीं लेते। फिर धीरे धीरे भेद समाप्त होने लग जाता है।

तन वोहित मन काग है । लक्ष जो जन उडि जाए ।
कबहीं भरमें अगम दरिया । कबहीं गगन समाए ।

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