कबीर हरि की भगति का मन मैं खरा मीनिंग

कबीर हरि की भगति का मन मैं खरा उल्लास

कबीर हरि की भगति का, मन मैं खरा उल्लास।
मैंवासा भाजै नहीं, हूँण मतै निज दास॥

Kabir Hari Ki Bhagati Ka, Man Me Khara Ullas,
Main Vasa Bhaje Nahi, Hun Mate Nij Daas.

कबीर हरि की भगति का : इश्वर की भक्ति का.
मन मैं खरा उल्लास : मन में बहुत उल्लास है.
मैंवासा भाजै नहीं : अहम् दूर नहीं होता है.
हूँण मतै निज दास : अब हरी के दास होने की बात करते हो.
कबीर हरि की भगति का : इश्वर की भक्ति.
मन मैं : हृदय में.
खरा : बहुत ही अधिक.
उल्लास : उत्साह है.
मैंवासा : अहम्, घमंड.
भाजै नहीं : दूर नहीं होता है.
हूँण : अब.
मतै : मन में.
निज दास : इश्वर का दास.
साधक हरी भक्ति के प्रति अत्यधिक उल्लास रखता है और उसके मन में इश्वर के प्रति अधिक रूचि है. लेकिन वह माया से निर्लिप्त नहीं होना चाहता है लेकिन वह मन में
इश्वर का दास होने का भाव उत्पन्न हो जाता है. भाव है की साधक माया से दूर नहीं होता है लेकिन उसके मन में अभी भी इश्वर के दास होने का भाव है.
प्रस्तुत साखी का मूल भाव है की साधक चाहता है की वह इश्वर का दास बन जाए लेकिन वह जब तक माया से स्वंय को विमुख नहीं करता है उसे इश्वर की भक्ति प्राप्त नहीं होती है. निज दास या इश्वर का दास होना तब तक संभव नहीं है जब तक व्यक्ति इश्वर के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित ना हो. अहम् के नाश होने पर ही भक्ति प्राप्त की जा सकती है.
 
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