बदलते यादों के साए कहानी
शाम ढलने लगी थी। पार्क में बैठे बुजुर्ग उठने लगे थे। रुक्मिणी देवी भी भारी मन से उठीं और धीमे कदमों से घर की ओर चल पड़ीं। आंखों की रोशनी अब पहले जैसी नहीं रही थी, इसलिए रास्ता पहचानने में परेशानी हो सकती थी।

बहू संगीता से अक्सर इसी बात पर झगड़ा होता था कि वह हर शाम कहां चली जाती हैं। बेटा अनुराग भी बहू का साथ देता। वह समझाते कि उनकी आंखें कमजोर हो गई हैं, कोई अनहोनी हो सकती है। लेकिन रुक्मिणी देवी को इस तन्हाई से कहीं अधिक डर लगता था।
पहले यह अकेलापन इतना नहीं था। बेटे की नौकरी छूटने के बाद तीनों साथ में वक्त बिताते थे। कभी ताश खेलते, कभी बहू ऊन लेकर उनके पास बैठ जाती और नए डिज़ाइन पूछती। रुक्मिणी देवी को स्वेटर बुनने में महारत हासिल थी। उम्र ढलने के बाद भी उनका हाथ नहीं रुका था।
उनकी पोती आरोही का जन्म हुआ था। उसके लिए उन्होंने अपने हाथों से स्वेटर, मोजे और टोपे बुने थे। अनुराग और संगीता उसे इंग्लैंड ले जाने की तैयारी कर रहे थे, जहां उनका बेटा रोहन बस चुका था। संगीता ने अपनी विदेशी बहू के लिए एक सुंदर बनारसी साड़ी भी रख ली थी, लेकिन रुक्मिणी देवी के मन में कसक थी। रोहन ने अंग्रेज़ लड़की से शादी कर ली थी, जिसे वह अब तक स्वीकार नहीं कर पाई थीं।
फिर वह दिन आया जिसने उनकी जिंदगी को वीरान कर दिया। अनुराग और संगीता खरीदारी के लिए निकले थे। उन्होंने मां को भी साथ चलने को कहा था, लेकिन उनकी तबीयत थोड़ी खराब थी, तो उन्होंने मना कर दिया। कुछ ही देर बाद एक भयंकर सड़क हादसे ने उनका सब कुछ छीन लिया। उनकी सूनी आंखों के सामने अनुराग और संगीता की निष्प्राण देह पड़ी थी।
रोहन ने उन्हें अपने साथ इंग्लैंड चलने को कहा, लेकिन उन्हें संदेह था कि विदेशी बहू के साथ निभ पाएगा या नहीं। उन्होंने यहीं रहना पसंद किया, लेकिन आज महसूस हुआ कि यह निर्णय गलत था। कोई तो होता, जो उनसे बहस करता, उलाहना देता। आज इतना गहरा अकेलापन न होता।
अब पोते की बेटी भी छह-सात साल की हो गई होगी। इतने सालों में कोई संपर्क भी नहीं रहा। अचानक जाकर ममता लुटाना कितना अजीब लगेगा। समय बीत चुका था। अब पछताने के सिवा कुछ न था।इस अकेलेपन ने उन्हें चिड़चिड़ा बना दिया था। पड़ोसी भी उन्हें "गुस्सैल दादी" कहने लगे थे। शाम होते ही वह पार्क में बैठ जातीं, वहां खेलते बच्चों को देखतीं, माताओं को मुस्कुराते देखतीं और खुद को भी जीने की ताकत देतीं।
लेकिन आज एक अजीब ख्याल आया—क्यों न इस तन्हा जिंदगी को खत्म कर दिया जाए? उनके पास नींद की गोलियों का अच्छा-खासा संग्रह था।
पार्क से लौटते वक्त रास्ते में रेलवे ट्रैक पड़ा। ट्रेन की आवाज सुनते ही वह कांप गईं। अचानक उनकी नजर पटरी पर सिर झुकाए बैठे एक किशोर पर पड़ी। ट्रेन नजदीक आ रही थी, लेकिन वह निश्चल बैठा था।
उनके अंदर अचानक असीम शक्ति आ गई। उन्होंने झट से लड़के को पीछे खींच लिया। ट्रेन धड़धड़ाती हुई गुजर गई।
“क्यों मरना चाहते हो, बेटा? जीवन बहुत अनमोल होता है।”
लड़के की आंखों में आंसू थे। उसने अपने दोनों हाथों से चेहरा ढक लिया और सुबकने लगा।
रुक्मिणी देवी ने उसकी पीठ थपथपाई, "मृत्यु कोई समाधान नहीं है। इससे बड़ी पीड़ा मिलती है।"
"आपको इससे क्या मतलब?" लड़का रूखे स्वर में बोला।
"बेटा, मैंने बहुत मौतें देखी हैं। हर दिन अकेलेपन से मरती हूं, लेकिन अब मैंने सोचा है कि जीऊंगी। अगर तुम चाहो, तो मेरे घर चलो। हम साथ बैठकर बात करेंगे, फिर जो फैसला लेना हो, ले लेंगे।"
लड़का थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, "ठीक है, चलिए।"
अंधेरा घना हो गया था। अब रुक्मिणी देवी को धुंधला दिखने लगा था। लड़के ने उनका हाथ थाम लिया और उन्हें संभालते हुए घर तक ले आया।
रुक्मिणी देवी को लगा, जैसे उनका खोया हुआ सहारा वापस आ गया हो।
यह कहानी रुक्मिणी देवी नाम की एक वृद्धा की है, जो अकेलेपन और पछतावे में अपनी जिंदगी जी रही थीं। बेटे-बहू की मौत के बाद उन्होंने जीने की इच्छा ही खो दी थी। लेकिन जब उन्होंने एक किशोर को आत्महत्या करने से बचाया, तो उन्हें अहसास हुआ कि जीवन में दर्द ही नहीं, किसी और को सहारा देने की भी अहमियत होती है। इस घटना ने उन्हें जीवन की ओर लौटने का एक नया मकसद दे दिया।