हरि तुम हरो जन की भीर
हरि तुम हरो जन की भीर
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर।
दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥
हरि थें हर्या जण री भीर।।टेक।।
द्रोपता री लाल राख्याँ थें बढायाँ चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धर्यां आप सरीर।
बूड़ताँ गजराज, राख्याँ, कट्याँ कुंजर भीर।
दासि मीरां लाल गिरधर, हराँ म्हारी भीर।।
इस सुंदर भजन में भक्त की पुकार और श्रीकृष्णजी की कृपा का भाव प्रकट होता है। जब भक्त संकट में होता है, तब वह केवल अपने आराध्य से ही आश्रय मांगता है, क्योंकि ईश्वर ही उसकी रक्षा करने वाले हैं। यह भाव जीवन के उतार-चढ़ाव में भक्ति की शक्ति को दर्शाता है, जहां केवल श्रीकृष्णजी का नाम ही अंधकार में प्रकाश प्रदान करता है।
श्रीकृष्णजी की कृपा असीम है—उन्होंने सदैव अपने भक्तों की रक्षा की है, चाहे वह द्रौपदी की लाज बचाने की लीला हो, नरसिंह रूप में हिरण्यकशिपु का संहार हो, या गजराज को संकट से मुक्त करने का करुणामय प्रसंग हो। यही भाव भक्त के मन में विश्वास उत्पन्न करता है कि जब भी वह संकट में होगा, श्रीकृष्णजी उसका संपूर्ण सहारा बनेंगे।
यह अनुभूति भक्त की निष्ठा और श्रद्धा को व्यक्त करती है। जब भक्त अपनी समस्त चिंताओं और कष्टों को श्रीकृष्णजी के चरणों में अर्पित कर देता है, तब वह अपने जीवन के समस्त दुखों से मुक्त होकर परम आनंद को प्राप्त करता है। यह भजन आत्मसमर्पण और ईश्वरीय कृपा की महिमा का प्रतीक है, जो हर भक्त को यह विश्वास दिलाता है कि श्रीकृष्णजी की शरण में आने से समस्त विघ्न दूर हो जाते हैं और मन सच्ची शांति और आनंद का अनुभव करता है।