हरि तुम हरो जन की भीर लिरिक्स
हरि तुम हरो जन की भीर।
द्रोपदी की लाज राखी, तुम बढायो चीर॥
भक्त कारण रूप नरहरि, धरयो आप शरीर।
हिरणकश्यपु मार दीन्हों, धरयो नाहिंन धीर॥
बूडते गजराज राखे, कियो बाहर नीर।
दासि 'मीरा लाल गिरिधर, दु:ख जहाँ तहँ पीर॥
हरि थें हर्या जण री भीर।।टेक।।
द्रोपता री लाल राख्याँ थें बढायाँ चीर।
भगत कारण रूप नरहरि, धर्यां आप सरीर।
बूड़ताँ गजराज, राख्याँ, कट्याँ कुंजर भीर।
दासि मीरां लाल गिरधर, हराँ म्हारी भीर।।
(जन=भक्त, भीर=संकट, नरहरि=नृसिंह, बूड़तां=डूबता हुआ, राख्यां=रक्षा की, कुञ्जर=हाथी)
यह भजन मीराबाई के भगवान श्री कृष्ण के प्रति गहरी भक्ति और उनके प्रेम में होने वाली कठिनाइयों का चित्रण करता है। पहले शेर में, मीराबाई भगवान से पूछती हैं कि उन्होंने भक्तों को प्रेम में क्यों बांधा, जब प्रेम के कारण दुःख भी मिलते हैं, तो क्या इस प्रेम में कोई लाज नहीं आई? दूसरे शेर में, मीराबाई श्री कृष्ण से कहती हैं कि वह गोकुल छोड़कर मथुरा जाना चाहती हैं, लेकिन उन्हें यह समझ नहीं आता कि इस निर्णय के पीछे किसकी प्रेरणा है और कौन उनकी इस यात्रा की प्रशंसा करेगा। तीसरे शेर में, मीराबाई भगवान गिरिधर नागर से अपनी प्रार्थना करती हैं और कहती हैं कि वह नंद बाबा से आशीर्वाद प्राप्त करना चाहती हैं, क्योंकि वह भगवान के प्रेम में पूरी तरह समर्पित हैं।