काहू की मै बरजी नाहीं रहूँ मीरा बाई पदावली
काहू की मै बरजी नाहीं रहूँ
काहू की मै बरजी नाहीं रहूँ ।।टेक।।
जो कोई मोकूँ एक कहै मैं एक की लाख कहूँ।
सास की जाइ मेरी ननद हठीली, यह दुःख किनसे कहूँ।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, जग उपसाह सहूँ।।
(बरजी=रोकने पर भी, जाई=पुत्री, उपहास=मजाक)
मन में प्रभु के प्रति अटूट निष्ठा ऐसी है कि कोई रोक-टोक उसे डिगा नहीं सकती। चाहे कोई एक ताना मारे, यह मन उसका लाख गुना प्रेम से जवाब देता है। संसार की बातें—सास की डाँट, ननद की हठ, या जग का उपहास—हृदय को दुखी कर सकती हैं, पर वे उस भक्ति को कम नहीं कर पातीं।
मीरा का मन गिरधरनागर में रम गया है, जो हर दुख को सहने की शक्ति देता है। जैसे कोई दीपक तूफान में भी जलता रहे, वैसे ही यह प्रेम और भक्ति हर बाधा को पार कर प्रभु के चरणों में स्थिर रहता है। यह वह सत्य है, जो आत्मा को सांसारिक बंधनों से मुक्त कर केवल प्रभु के प्रेम में लीन कर देता है।
मोरे लय लगी गोपालसे मेरा काज कोन करेगा ।
मेरे चित्त नंद लालछे ॥ध्रु० ॥१॥
ब्रिंदाजी बनके कुंजगलिनमों । मैं जप धर तुलसी मालछे ॥२॥
मोर मुकुट पीतांबर शोभे । गला मोतनके माल छे ॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । तुट गई जंजाल छे ॥४॥
दीजो हो चुररिया हमारी । किसनजी मैं कन्या कुंवारी ॥ध्रु०॥
गौलन सब मिल पानिया भरन जाती । वहंको करत बलजोरी ॥१॥
परनारीका पल्लव पकडे । क्या करे मनवा बिचारी ॥२॥
ब्रिंद्रावनके कुंजबनमों । मारे रंगकी पिचकारी ॥३॥
जाके कहती यशवदा मैया । होगी फजीती तुम्हारी ॥४॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । भक्तनके है लहरी ॥५॥
हरि तुम कायकू प्रीत लगाई ॥ध्रु०॥
प्रीत लगाई पर दुःख दीनो । कैशी लाज न आई ॥ ह० ॥१॥
गोकुल छांड मथुराकु जावूं । वामें कौन बढाई ॥ ह० ॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । तुमकूं नंद दुवाई ॥ हरि० ॥३॥
पिहुकी बोलिन बोल पपैय्या ॥ध्रु०॥
तै खोलना मेरा जी डरत है । तनमन डावा डोल ॥ पपैय्या० ॥१॥
तोरे बिना मोकूं पीर आवत है । जावरा करुंगी मैं मोल ॥ पपैय्या० ॥२॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । कामनी करत कीलोल ॥ पपैय्या० ॥३॥
चरन रज महिमा मैं जानी । याहि चरनसे गंगा प्रगटी ।
भगिरथ कुल तारी ॥ चरण० ॥१॥
याहि चरनसे बिप्र सुदामा । हरि कंचन धाम दिन्ही ॥ च० ॥२॥
याहि चरनसे अहिल्या उधारी । गौतम घरकी पट्टरानी ॥ च० ॥३॥
मीराके प्रभु गिरिधर नागर । चरनकमलसे लटपटानी ॥ चरण० ॥४॥