साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग ।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग ॥
संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग ।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग ॥
तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल ।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल ॥
साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय ।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय ॥
संगत कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत ।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत ॥
चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय ।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय ॥
सन्त सुरसरी गंगा जल, आनि पखारा अंग ।
मैले से निरमल भये, साधू जन को संग ॥
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहूँ जाय ।
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ॥
तू तू करूं तो निकट है, दुर-दुर करू हो जाय ।
जों गुरु राखै त्यों रहै, जो देवै सो खाय ॥
1. साधू संगत परिहरै, करै विषय का संग।
कूप खनी जल बावरे, त्याग दिया जल गंग॥
अर्थ: जो व्यक्ति साधु-संगति को छोड़कर विषयों में लिप्त रहता है, वह कूप के गंदे पानी को छोड़कर गंगा के पवित्र जल को त्यागता है। कबीर दास जी यह कहते हैं कि बुरी संगति से बचना चाहिए।
2. संगति ऐसी कीजिये, सरसा नर सो संग।
लर-लर लोई हेत है, तऊ न छौड़ रंग॥
अर्थ: संगति ऐसी करनी चाहिए जैसे सरसों के बीज में तेल होता है; चाहे वह बीज कहीं भी जाए, तेल उसके साथ रहता है। इसी प्रकार, संगति का प्रभाव व्यक्ति पर हमेशा रहता है।
3. तेल तिली सौ ऊपजै, सदा तेल को तेल।
संगति को बेरो भयो, ताते नाम फुलेल॥
अर्थ: तेल तिल से उत्पन्न होता है, और तिल हमेशा तेल में ही रहता है। इसी प्रकार, संगति का प्रभाव व्यक्ति पर हमेशा रहता है, जिससे नाम का फल मिलता है।
4. साधु संग गुरु भक्ति अरू, बढ़त बढ़त बढ़ि जाय।
ओछी संगत खर शब्द रू, घटत-घटत घटि जाय॥
अर्थ: साधु-संगति और गुरु की भक्ति से व्यक्ति का जीवन बढ़ता है, जबकि बुरी संगति से जीवन घटता है। कबीर दास जी यह कहते हैं कि संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है।
5. संगति कीजै साधु की, होवे दिन-दिन हेत।
साकुट काली कामली, धोते होय न सेत॥
अर्थ: साधु-संगति से व्यक्ति का जीवन दिन-प्रतिदिन सुधरता है, जबकि बुरी संगति से जीवन में कोई सुधार नहीं होता। कबीर दास जी यह कहते हैं कि संगति का प्रभाव व्यक्ति के जीवन पर पड़ता है।
6. चर्चा करूँ तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय।
ध्यान धरो तब एकिला, और न दूजा कोय॥
अर्थ: जब चर्चा करनी हो तो चारों ओर से करें, ज्ञान प्राप्त करना हो तो दो व्यक्तियों से करें, लेकिन ध्यान केवल एकांत में ही करना चाहिए, और किसी अन्य को न देखें। कबीर दास जी यह कहते हैं कि ध्यान एकांत में ही करना चाहिए।