कबीर साहेब के दोहों के माध्यम से जानिये गूढ़ अर्थ जीवन के
साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय ।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय ॥
सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़ ।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर ॥
आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच ।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच ॥
साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब ।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब ॥
सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय ।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय ॥
हेत बिना आवै नहीं, हेत तहाँ चलि जाय ।
कबीर जल और सन्तजन, नवैं तहाँ ठहराय ॥
साधु-ऐसा चाहिए, जाका पूरा मंग ।
विपत्ति पड़े छाड़ै नहीं, चढ़े चौगुना रंग ॥
सन्त सेव गुरु बन्दगी, गुरु सुमिरन वैराग ।
ये ता तबही पाइये, पूरन मस्तक भाग ॥
चाल बकुल की चलत हैं, बहुरि कहावै हंस ।
ते मुक्ता कैसे चुंगे, पड़े काल के फंस ॥
बाना पहिरे सिंह का, चलै भेड़ की चाल ।
बोली बोले सियार की, कुत्ता खवै फाल ॥ 1. साधु दरश को जाइये, जेता धरिये पाँय।
डग-डग पे असमेध जग, है कबीर समुझाय॥
अर्थ: साधु के दर्शन के लिए जहाँ भी जाएँ, उनके चरणों में श्रद्धा रखें। कबीर दास जी कहते हैं कि हर कदम पर असमय मृत्यु का भय है, इसलिए साधु की संगति से जीवन को समझें।
2. सन्त मता गजराज का, चालै बन्धन छोड़।
जग कुत्ता पीछे फिरैं, सुनै न वाको सोर॥
अर्थ: संतों की बुद्धि हाथी की तरह होती है, जो बंधनों को छोड़ देती है। जबकि संसार के लोग कुत्ते की तरह पीछे-पीछे चलते हैं, पर संतों की बातों को नहीं सुनते।
3. आज काल दिन पाँच में, बरस पाँच जुग पंच।
जब तब साधू तारसी, और सकल पर पंच॥
अर्थ: आजकल के समय में, पाँच दिन और पाँच युग बीत गए हैं। फिर भी, जब-तब साधु ही तारते हैं, और बाकी सभी पंचों के अधीन हैं।
4. साधु ऐसा चाहिए, जहाँ रहै तहँ गैब।
बानी के बिस्तार में, ताकूँ कोटिक ऐब॥
अर्थ: साधु ऐसा होना चाहिए, जहाँ वह रहते हैं, वहाँ ईश्वर का वास होता है। उनकी वाणी में इतनी शक्ति होनी चाहिए कि वह अनगिनत दोषों को दूर कर सके।
5. सन्त होत हैं, हेत के, हेतु तहाँ चलि जाय।
कहैं कबीर के हेत बिन, गरज कहाँ पतियाय॥
अर्थ: संत अपने उद्देश्य के लिए चलते हैं, और उनका उद्देश्य वही होता है। कबीर दास जी कहते हैं कि बिना उद्देश्य के, कोई भी कार्य नहीं होता।