कबीर के दोहे के अर्थ जानिये सरल हिंदी में
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय ॥
को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय ।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय ॥
कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान ।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान ॥
काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं ।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं ॥
काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ ॥
काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय ।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय ॥
कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय ।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय ॥
कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार ।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार ॥
कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय ।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय ॥
कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय ।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय ॥
कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर ।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर ॥
कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह ।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह ॥
"करता था सो क्यों किया, अब कर क्यों पछिताय।
बोया पेड़ बबूल का, आम कहाँ से खाय॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि यदि आपने बबूल (काँटेदार पेड़) बोया है, तो उससे आम (मीठे फल) की उम्मीद क्यों करते हैं? अर्थात, यदि आपने बुरे कर्म किए हैं, तो अच्छे परिणाम की आशा करना व्यर्थ है। इसलिए, अपने कर्मों के प्रति सजग रहें, क्योंकि जैसा करेंगे, वैसा ही फल मिलेगा।
"कस्तूरी कुंडल बसे, मृग ढूंढे बन माहिं।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखे नाहिं॥"
अर्थ: कस्तूरी हिरण की नाभि में होती है, लेकिन हिरण उसे जंगल में खोजता है। उसी प्रकार, ईश्वर हर हृदय में विराजमान हैं, परंतु मनुष्य उन्हें बाहर खोजता है। आत्मज्ञान से ही ईश्वर का साक्षात्कार संभव है।
"माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर।
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि वर्षों तक माला जपने से भी मन का बदलाव नहीं होता। बाहरी माला छोड़कर मन की माला फेरो, अर्थात सच्चे मन से ईश्वर का स्मरण करो।
"लूट सके तो लूट ले, राम नाम की लूट।
पाछे फिरे पछताओगे, प्राण जाहिं जब छूट॥"
अर्थ: जीवन रहते राम (ईश्वर) के नाम का सुमिरन कर लो, क्योंकि मृत्यु के बाद पछताने से कुछ हासिल नहीं होगा। समय रहते भक्ति का लाभ उठाओ।
"जहाँ दया तहाँ धर्म है, जहाँ लोभ तहाँ पाप।
जहाँ क्रोध तहाँ काल है, जहाँ क्षमा तहाँ आप॥"
अर्थ: जहाँ दया है, वहाँ धर्म है; जहाँ लोभ है, वहाँ पाप है। जहाँ क्रोध है, वहाँ विनाश है; और जहाँ क्षमा है, वहाँ ईश्वर स्वयं विराजते हैं।
"कबीर सोई पीर है, जो जाने पर पीर।
जो पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर॥"
अर्थ: सच्चा संत वही है, जो दूसरों के दुःख को समझे। जो दूसरों की पीड़ा नहीं जानता, वह सच्चे मार्ग से भटका हुआ है।
"कबीर यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा॥"
अर्थ: यह शरीर नश्वर है, इसलिए इसे सार्थक बनाओ। या तो साधु-संतों की सेवा करो या भगवान के गुण गाओ।
"कबीर माया पापिनी, फंद ले बैठी हाट।
सब जग फंदे पड़ा, गया कबीर निःकाट॥"
अर्थ: माया (भौतिक संसार) एक पापिनी है, जो अपने जाल में सभी को फँसाती है। पूरा संसार उसके फंदे में फँसा है, लेकिन कबीरदास जी उससे मुक्त हो गए हैं।
"कबीर आप ठगाइये, और न ठगिये कोय।
आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुःख होय॥"
अर्थ: स्वयं को ठगा जाने दो, दूसरों को मत ठगो। स्वयं ठगे जाने में सुख है, लेकिन दूसरों को ठगने में दुःख मिलता है।
"कबीर यह तन जात है, सके तो ठौर लगा।
कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुन गा॥"
अर्थ: यह शरीर नश्वर है, इसलिए इसे सार्थक बनाओ। या तो साधु-संतों की सेवा करो या भगवान के गुण गाओ।
आपने संत कबीर के कई प्रसिद्ध दोहे प्रस्तुत किए हैं, जिनमें जीवन, धर्म, और नैतिकता से संबंधित गहन संदेश निहित हैं। आइए प्रत्येक दोहे का सरल हिंदी में अर्थ समझते हैं:
"कबीरा संगत साधु की, निष्फल कभी न होय।
होमी चन्दन बासना, नीम न कहसी कोय॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि साधु-संतों की संगति कभी व्यर्थ नहीं जाती। जैसे चंदन की सुगंध से होम (हवन) की अग्नि भी सुगंधित हो जाती है, उसी प्रकार साधु-संगति से मनुष्य का जीवन पवित्र हो जाता है।
"को छूटौ इहिं जाल परि, कत फुरंग अकुलाय।
ज्यों-ज्यों सुरझि भजौ चहै, त्यों-त्यों उरझत जाय॥"
अर्थ: इस संसार रूपी जाल में फँसकर कौन मुक्त हो सकता है? जैसे-जैसे कोई इससे निकलने की कोशिश करता है, वह और अधिक उलझता जाता है। इसलिए, मोह-माया से बचकर ईश्वर की भक्ति में मन लगाना चाहिए।
"कबीरा सोया क्या करे, उठि न भजे भगवान।
जम जब घर ले जाएँगे, पड़ा रहेगा म्यान॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि सोने का समय नहीं है, उठकर भगवान की भक्ति करो। जब यमराज तुम्हें ले जाएंगे, तब यह शरीर (म्यान) यहीं पड़ा रह जाएगा।
"काह भरोसा देह का, बिनस जात छिन मारहिं।
साँस-साँस सुमिरन करो, और यतन कछु नाहिं॥"
अर्थ: इस नश्वर शरीर का क्या भरोसा? यह किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। इसलिए, हर सांस के साथ ईश्वर का स्मरण करो, यही सबसे महत्वपूर्ण है।
"काल करे से आज कर, सबहि सात तुव साथ।
काल काल तू क्या करे काल काल के हाथ॥"
अर्थ: जो काम कल करना है, उसे आज ही कर लो, क्योंकि समय किसी के लिए रुकता नहीं है। समय के हाथों में सब कुछ है, इसलिए विलंब मत करो।
"काया काढ़ा काल घुन, जतन-जतन सो खाय।
काया बह्रा ईश बस, मर्म न काहूँ पाय॥"
अर्थ: यह शरीर समय और रोगों द्वारा धीरे-धीरे नष्ट हो रहा है, चाहे कितने भी प्रयास कर लो। यह शरीर ईश्वर के अधीन है, इसका रहस्य कोई नहीं समझ सकता।
"कहा कियो हम आय कर, कहा करेंगे पाय।
इनके भये न उतके, चाले मूल गवाय॥"
अर्थ: हमने क्या किया और क्या करेंगे? जो आया है, वह जाएगा। जो लोग आए, वे चले गए, अपनी मूल प्रकृति को खोकर।
"कुटिल बचन सबसे बुरा, जासे होत न हार।
साधु वचन जल रूप है, बरसे अम्रत धार॥"
अर्थ: कठोर वचन सबसे बुरे होते हैं, जो किसी का भला नहीं करते। जबकि साधु के वचन जल के समान होते हैं, जो अमृत की धारा की तरह बरसते हैं।
"कहता तो बहूँना मिले, गहना मिला न कोय।
सो कहता वह जान दे, जो नहीं गहना कोय॥"
अर्थ: बोलने से बहुत कुछ मिल सकता है, लेकिन सच्चा ज्ञान नहीं मिलता। सच्चा ज्ञान वही प्राप्त करता है, जो अपने अहंकार को त्याग देता है।
"कबीरा मन पँछी भया, भये ते बाहर जाय।
जो जैसे संगति करै, सो तैसा फल पाय॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि मन एक पक्षी की तरह है, जो बाहर उड़ता है। वह जिस संगति में रहता है, वैसा ही फल पाता है।
"कबीरा लोहा एक है, गढ़ने में है फेर।
ताहि का बखतर बने, ताहि की शमशेर॥"
अर्थ: लोहे का एक ही टुकड़ा है, लेकिन गढ़ने से उसमें अंतर आ जाता है। उसी से कवच बनता है और उसी से तलवार।
"कहे कबीर देय तू, जब तक तेरी देह।
देह खेह हो जाएगी, कौन कहेगा देह॥"
अर्थ: कबीरदास जी कहते हैं कि जब तक यह शरीर है, तब तक दान करो। यह शरीर मिट्टी में मिल जाएगा, फिर कौन कहेगा कि यह देह थी।