कबीर साहेब के इन दोहों का अर्थ जानिये
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर ।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर ॥
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान ।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पह्चान ॥
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय ।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय ॥
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय ।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय ॥
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय ।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय ॥
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार ।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार ॥
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए ।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय ॥
कबीरा संग्ङति साधु की, जौ की भूसी खाय ।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय ॥
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय ।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय ॥
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय ।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय ॥
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय ।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय ॥
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय ।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय ॥
आए हैं सो जाएँगे, राजा रंक फकीर।
एक सिंहासन चढ़ि चले, एक बाँधि जंजीर॥
अर्थ: सभी को जन्म और मृत्यु का चक्र है। राजा, रंक, और फकीर सभी को एक दिन जाना है। एक सिंहासन पर चढ़ता है, तो दूसरा जंजीर में बंधता है।
आया था किस काम को, तू सोया चादर तान।
सूरत सँभाल ए काफिला, अपना आप पहचाण॥
अर्थ: तू किस उद्देश्य से आया था? तू चादर तानकर सो रहा है। हे काफिले, अपनी सूरत संभालो, अपने आप को पहचानो।
उज्जवल पहरे कापड़ा, पान-सुपरी खाय।
एक हरि के नाम बिन, बाँधा यमपुर जाय॥
अर्थ: उज्जवल वस्त्र पहनने वाला, पान-सुपारी खाने वाला, यदि हरि के नाम का स्मरण नहीं करता, तो यमपुरी की ओर जाता है।
उतते कोई न आवई, पासू पूछूँ धाय।
इतने ही सब जात है, भार लदाय लदाय॥
अर्थ: कोई भी नहीं आता, मैं पशुओं से पूछता हूँ। सभी जातियाँ भार लादे हुए हैं।
अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक होय।
मानुष से पशुआ भया, दाम गाँठ से खोय॥
अर्थ: शराब के दोषों की चर्चा करते हुए, स्वयं अहंकार में फंस जाता है। मनुष्य पशु बन जाता है, और धन की गांठ खो देता है।
एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार।
है जैसा तैसा रहे, रहे कबीर विचार॥
अर्थ: एक कहूँ तो वह है नहीं, दूसरा कहूँ तो दोष है। जैसा है, वैसा ही रहे, यही कबीर का विचार है।
ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोए।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय॥
अर्थ: ऐसी वाणी बोलो, जिससे मन का अहंकार समाप्त हो जाए। दूसरों को शीतलता प्रदान करो, और स्वयं भी शीतल हो जाओ।
कबीरा संगति साधु की, जौ की भूसी खाय।
खीर खाँड़ भोजन मिले, ताकर संग न जाय॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु की संगति में जौ की भूसी भी मिलती है, जबकि बुरे लोगों के साथ रहने पर खीर और मिठाई भी नहीं मिलती।
एक ते जान अनन्त, अन्य एक हो आय।
एक से परचे भया, एक बाहे समाय॥
अर्थ: एक से ही सब कुछ जाना जाता है, अन्य से नहीं। एक से परिचय हुआ, तो वह सब में समा जाता है।
कबीरा गरब न कीजिए, कबहूँ न हँसिये कोय।
अजहूँ नाव समुद्र में, ना जाने का होय॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि कभी भी गर्व मत करो, कभी भी हंसी मत उड़ाओ। अभी भी नाव समुद्र में है, कौन जानता है क्या होगा।
कबीरा कलह अरु कल्पना, सतसंगति से जाय।
दुख बासे भागा फिरै, सुख में रहै समाय॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि कलह और कल्पना को सत्संगति से दूर किया जा सकता है। दुख दूर हो जाता है, और सुख में समा जाता है।
कबीरा संगति साधु की, जित प्रीत कीजै जाय।
दुर्गति दूर वहावति, देवी सुमति बनाय॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु की संगति से जितनी प्रीत की जाए, उतनी दुर्गति दूर होती है, और देवी सुमति बनती है।
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