कबीर के माया सबंधी विचार कबीर माया को अंग Kabir Maya Ko Ang

कबीर के माया सबंधी विचार कबीर माया को अंग Kabir Maya Ko Ang

कबीर ने जीवन के प्रत्येक चरण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। समाज की मूल इकाई व्यक्ति है इसलिए कबीर ने बारीक़ से बारीक़ विषय को तार्किक रूप से लोगों के समक्ष रखा ताकि व्यक्ति के चरित्र का निर्माण किया जा सके। बाहर झाँकने से पहले स्वंय का विश्लेषण आवश्यक है। व्यक्तिगत अवगुणों का त्याग करके ही एक स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण संभव है। 
 
कबीर के माया सबंधी विचार कबीर माया को अंग Kabir Maya Ko Ang

 लोग अपने परिजन और आसपास के लोगों को वृद्ध होकर मरते देखते हैं लेकिन फिर भी वे मालिक का सुमिरन नहीं करते और इस संसार को ही अपना घर मान लेते हैं। जीवन के मूल उद्देश्य के प्रति लापरवाह हो जाते हैं। जीवन का उद्देश्य धन दौलत कमाना, रिश्ते नाते निभाना, बच्चे पैदा करना मात्र ही नहीं है। पता सभी को है फिर रोकता कौन है मालिक का नाम सुमिरन से। कबीर साहेब की वाणी से ज्ञात होता है की ये अज्ञान होता है जो की माया के कारण पैदा होता है। ईश्वर का मार्ग, अज्ञान और माया तीनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। माया जितनी प्रबल होगी वो उतना ही अज्ञान पैदा करती है और उसी अनुपात में व्यक्ति सद्मार्ग से विमुख होने लगता है। माया के क्षीण होने पर वैराग्य उत्पन्न होता है और ज्ञान की प्राप्ति की राह खुलती है। वैराग्य होने से किसी से आसक्ति नहीं होती है और इन्द्रियों मकड़जाल कटने लगता है। ईश्वर ज्ञान का यह मतलब कतई नहीं है की व्यक्ति अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ ले। ज्ञान प्राप्ति के बाद मन को वश में करना आसान हो जाता है। मोह माया के जाल से सद्गुरु के सानिध्य से ही कोई व्यक्ति पार लग सकता है। 

कबीर के माया सबंधी विचार Kabir Maya Ko Ang कबीर माया को अंग हिंदी

मोह नदी बिकराल है, कोई न उतरै पार
सतगुरु केबट साथ लेई, हंस होय जम न्यार।

सद्गुरु के सानिध्य में ही व्यक्ति मोह माया के जाल से उबर सकता है। इसीलिए कबीर ने आचरण की शुद्धता पर बल दिया है ताकि विषय विकार से छुटकारा पाया जा सके। सादा भोजन, सादे वस्त्र और उच्च विचार के आने पर विषय विकार दूर हट जाते हैं। साथ ही कबीर ने सत्संग का महत्त्व बताया है। अच्छे लोगों के पास उठने बैठने से आध्यात्मिक विचारों के लिए मन में स्थान पैदा होता है और धीरे धीरे व्यक्ति इस और आकृष्ट होता है। 
 
कबीर' माया पापणी, फंध ले बैठी हाटि ।
सब जग तौ फंधै पड्या,गया कबीरा काटि ॥
 
इस दोहे में कबीर माया को एक पापिन के रूप में चित्रित करते हैं जो फंदा लेकर लोगों को फंसाने के लिए बाजार में बैठी है। उन्होंने कहा कि माया ने दुनिया भर के लोगों को फंसाया है, लेकिन वह खुद को काटकर बच गए। कबीर के अनुसार, माया एक शक्तिशाली शक्ति है जो मनुष्य को ईश्वर से दूर ले जा सकती है। यह मनुष्य को सांसारिक सुखों में लिप्त कर लेती है और उसे ईश्वर की ओर बढ़ने से रोकती है। कबीर ने माया से बचने के लिए साधना और ध्यान का मार्ग सुझाया। उन्होंने कहा कि मनुष्य को माया के प्रति मोह त्यागना चाहिए और ईश्वर की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

इस दोहे में कबीर माया से बचने के लिए एक प्रेरणा देते हैं। उन्होंने कहा कि हरि भक्त पर फंदा डालनेवाली माया खुद ही फँस जाती है, और वह सहज ही उसे काट कर निकल आता है। इस दोहे का भावार्थ निम्नलिखित है:
"माया पापणीं, फंध ले बैठी हाटि।" - माया एक पापिन है जो फंदा लेकर लोगों को फंसाने के लिए तैयार बैठी है।
"सब जग तो फंधै पड्या, गया कबीरा काटि।" - माया ने दुनिया भर के लोगों को फंसा लिया है, लेकिन कबीर ने उसे काटकर बच गए।
कबीर के इस दोहे से हमें माया से बचने की प्रेरणा मिलती है। हमें माया के प्रति मोह त्यागना चाहिए और ईश्वर की ओर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।


कबीर माया डाकिनी, सब काहु को खाये
दांत उपारुन पापिनी, संनतो नियरे जाये।

माया को डाकिनी के समान बताया है। संतजन के सानिध्य में इसे समाप्त किया जा सकता है। गुरु के सानिध्य के बगैर कोई व्यक्ति स्वंय का मूल्यांकन नहीं कर पाता है और इनमे ही फसकर रह जाता है। माया को डाकिनी इस लिए बताया है की वो मनुष्य के अनमोल जीवन को कौड़ी में बदल देती है। माया के वश हम भूल जाते हैं की बहुत जतन के बाद मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है और हमें मालिक का सुमिरन करते हुए सदाचार से जीवन व्यतीत करना है।

कबीर’ माया मोहनी, जैसी मीठी खांड ।
सतगुरु की कृपा भई, नहीं तौ करती भांड ॥

माया मीठी है, अपनी और आकृष्ट करती है। सद्गुरु की कृपा से इससे बचा जा सकता है अन्यथा यह मनुष्य को अपने इशारों पर नचाती है। व्यक्ति की सहज भाव को माया समाप्त कर देती है और उसे अनैतिक रूप से कार्य करने पर विवश कर देती है। वास्तव में माया विवेक का अंत कर देती है और सत्य और असत्य के भेद को समाप्त कर देती है। उसके सामने बुढ़ापा आवाज लगाता है लेकिन माया के वश वह उसे अनदेखा कर देता है।

माया मुई न मन मुवा, मरि-मरि गया सरीर ।
आसा त्रिष्णां ना मुई, यों कहि गया `कबीर’ ॥

माया बहुत शक्तिशाली है जो जीव को अपने वश में कर लेती है। मनुष्य का जीवन समाप्त हो जाना है लेकिन माया सदा बनी रहेगी। जीव अपने साथी जीव को दुनिया छोड़ कर जाते हुए देखता है फिर भी माया को नहीं छोड़ता है। लोग आते हैं, उनका जीवन पूरा हो जाता है लेकिन धन, माया और तृष्णा सभी यही रह जाते हैं क्यों की वो युगों से मानव को अपने जाल में फाँस कर रखते हैं।

कबीर ने धन और माया के सन्दर्भ में कहा है की धन संचय भी आवश्यक है लेकिन धन संचय उतना ही किया जाना चाहिए जिससे दिन प्रतिदिन की आवश्यकताएं पूर्ण की जा सके। जीवन में कष्ट पाकर और अनैतिक रूप से धन का संचय नहीं करना चाहिए। सब कुछ यही रह जाना है कुछ साथ नहीं चलना, भले ही कितना भी धन जोड़ लिया जाय। किसी को अपने सर पर धन की पोटली ले जाते मृत्यु उपरांत किसी ने नहीं देखा है। जो समय मिला है उसमे ईश्वर की भक्ति की जानी चाहिए।

कबीर सो धन संचिये, जो आगैं कूं होइ ।
सीस चढ़ावें पोटली, ले जात न देख्या कोइ ॥

सांसारिक जीवन पानी से घी लिकालने के समान है। कोई कितना भी प्रयत्न कर ले उसे सफलता प्राप्त नहीं होती है। भक्ति में जो आनंद है वो किसी अन्य विधि प्राप्त नहीं हो सकता है। हमारा मन किसी भी अवस्था में ज्यादा देर तक बना नहीं रह सकता है। उसका स्वाभाव ही चंचल है। हम रोज नए नए विचार हमारे अंदर भर लेते हैं। मन उनसे विचलित हो जाता है। उसके अधीर होने से जीवन अशांत हो जाता है। सदविचारों से मन को अनुशाषित करना है, जिससे उसमे स्थायित्व आएगा। विचारों में ठहराव आएगा और व्यक्ति ईश्वर की और अग्रसर होगा।

मनह मनोरथ छाँड़ि दे, तेरा किया न होइ ।
पाणी में घीव नीकसै, तो रूखा खाइ न कोइ ॥

कबीर साहेब के अनुसार माया ना तो सत्य है और ना ही असत्य ही। माया ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति में बाधक है इसलिए सत नहीं है और असत इसलिए नहीं क्यों की क्यों की माया का बोध तो होता है लेकिन असत वस्तुओं का बोध नहीं होता है। यह रज तम और सत से युक्त त्रय अविधा रूपिणी है। माया भगवन की ही शक्ति है जो समस्त संसार के जीवों को अपना बनाने के लिए आतुर है। संसार के जो भी बंधन "आसक्ति"उत्पन्न करते हैं वे सब माया ही है। माया छद्म और प्रत्यक्ष रूप दोनों में ही विद्यमान होती है। कबीर ने माया को मानव जीवन में सबसे बड़ी बुराई बताया है। उन्होंने माया को डाकिनी, पापिनी, मोहिनी, दारुनि और विश्वाश घातिनी बताया है। राम भक्ति की सबसे बड़ी बाधक माया है और जो संत जन इसे पहचान लेते हैं वे माया को दासी बना लेते हैं।

माया महा ठगनी हम जानी।।
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी।।
केसव के कमला वे बैठी शिव के भवन भवानी।।
पंडा के मूरत वे बैठीं तीरथ में भई पानी।।
योगी के योगन वे बैठी राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा वे बैठी काहू के कौड़ी कानी।।
भगतन की भगतिन वे बैठी बृह्मा के बृह्माणी।।
कहे कबीर सुनो भई साधो यह सब अकथ कहानी।।

इसके द्वारा हमें ठगने के बाद भी सुख का अनुभव होता है। ये माया है जो मनुष्य तो क्या शिव को भी ठगने के लिए भवानी बन जाती है। ब्रह्म को ठगने के लिए ब्रह्मिनी बन जाती है।

कबीर माया मोहिनी , भई अंधियारी लोय ।
जो सोये सों मुसि गये, रहे वस्तु को रोय ।।

माया काली रात्रि के समान है, जो चारों तरफ काली रात्रि के सामान व्याप्त है। इसमें जो जीव फँस जाता है वो ज्ञान रूपी अमृत से वंचित रह जाता है। रात्रि में अँधेरा होता है जो प्रकाश के अभाव में उत्प्नन होता है। प्रकाश के अभाव में हम सही राह का चुनाव नहीं कर पाते हैं। सत्य और सद्मार्ग की राह माया ने अंधकार करके धूमिल कर रखी है।

कबीर माया मोहिनी , मांगी मिलै न हाथ ।
मना उतारी जूठ करु, लागी डोलै साथ

कबीर साहेब की वाणी है की माया मांगने से हाथ में नहीं आती है, जो इसे व्यर्थ जानकर अपने मन से उतारकर फ़ेंक देते हैं, ये उनके पीछे माया दौड़ती है अपने पाश में फांसने के लिए। जो लोग माया को पहचान लेते हैं वो इससे दूरी बना लेते हैं। माया इस अवस्था में व्यक्ति को और ज्यादा आकृष्ट करती है।

कबीर माया मोहिनी, जैसी मीठी खांड ।
सद्गुरु की किरपा भई , नातर करती भांड ।।

माया मोहिनी है और मीठी है। अपनी और आकृष्ट करती है। मुझे सद्गुरु की कृपा प्राप्त हुयी है, अन्यथा मुझे वो भांड की तरह नचाती। भाव है की माया आकृष्ट करती है अपनी मिठास से। माया के जाल से सद्गुरु ही मुक्ति दिला सकता है अन्यथा मुक्ति और मोक्ष की प्राप्ति संभव ना थी ज्ञान के अभाव से ही व्यक्ति अपने मार्ग से विमुख होता है। बड़े ही जतन से ये काया प्राप्त हुयी भाई जिसे मालिक के सुमिरन में व्यतीत करना है।

माया छाया एक सी, बिरला जानै कोय ।
भगता के पीछे फिरै , सनमुख भाजै सोय ।।

माया और छायां का स्वभाव एक जैसा होता है। माया की पहचान कोई बिरला ही कर सकता है। सतजनों को सद्मार्ग से विमुक्त करने के लिए ये उनके पीछे भागती है और जो लोभी व्यक्ति होते हैं उनके पकड़ में ये नहीं आती है। इसकी पहचान सद्गुरु ही करवा सकता है।

माया दोय प्रकार की, जो कोय जानै खाय ।
एक मिलावै राम को, एक नरक ले जाय ।।

माया दे दो स्वरूपों के बारे में कबीर साहेब बताते हैं की माया का एक रूप का सहारा लेकर संतजन राम भक्ति की और अग्रसर होते हैं और दूसरा मार्ग उसका उपभोग करने का होता है जिससे व्यक्ति नर्क का भागी होता है।

मोटी माया सब तजै , झीनी तजी न जाय ।
पीर पैगम्बर औलिया, झीनी सबको खाय ।।

माया दे दो स्वरुप हैं। एक बृहद और दूसरी सूक्ष्म। वृहद माया जैसे सांसारिक उपभोग की वस्तुएं, जमीन, धन दौलत आदि और दूसरी सूक्ष्म माया है मान सम्मान और अभिमान। मोटी माया का त्याग संभव है लेकिन पीर पैगम्बर, और साधुजन भी माया के सूक्ष्म रूप को नहीं छोड़ पाते हैं। कौन कितना बड़ा संत है, उसके अनुयायी कितने हैं, इलाके में उसकी मान्यता कैसी है जैसे विषय अभिमान से जुड़े हुए हैं और सूक्ष्म माया के अंग है। यदि इनका त्याग कर दिया जाय तो ब्रह्म प्राप्ति संभव है।

झीनी माया जिन तजी, मोटी गई बिलाय ।
ऐसे जन के निकट से, सब दुःख गये हिराय ।।

वृहद माया का त्याग तो आसान है लेकिन सूक्ष्म माया का त्याग आसान नहीं होता है। जिसने सूक्ष्म माया को पहचान कर उसका त्याग कर दिया है ऐसे संतजन के समीप रहना चाहिए। उसके सानिध्य से समस्त दुःख दूर हो जाते हैं। भाव है की ऐसे संतजन की पहचान कर उनके समीप रहना चाहिए। ऐसे संतजन सूक्ष्म माया को समाप्त करने में सक्षम होते है। सूक्ष्म माया से कोई तपस्वी ही दूर रह सकता है। स्वंय के भक्तिमार्ग पर चलने का अभिमान भी माया ही है। अहंकार कर अभिमान त्याग करके ही सूक्ष्म माया से दूर रहा जा सकता है। वर्तमान सन्दर्भ में देखें तो साधु और संत सांसारिकता को छोड़ने का दम्भ भरते हैं लेकिन मठ का प्रमुख कौन हो ? मंदिर में मुख्य पुजारी कौन हो , मठाधीश कौन हो आदि विषयों पर तनाव रहता है, ये क्या है ? ये सूक्ष्म माया है जिसे वे त्याग नहीं पाए हैं।

माया काल की खानि है, धरै त्रिगुण विपरीत ।
जहां जाय तहं सुख नहीं , या माया की रीत ।।

माया समस्त दुखों की जननी है। यह त्रिगुण का विकराल रूप धारण करती है और जहाँ भी माया का अस्तित्व है वहां सुख की प्राप्ति संभव नहीं है। रिश्ते नातों में सुख नहीं है , सांसारिक वस्तुओं में सुख नहीं है, धन दौलत में सुख नहीं है, फिर सुख और बेफिक्री कहाँ है ? राम के नाम में। व्यक्ति पुरे जीवन माया के फंदे में उलझा रहता है। और ज्यादा इकठ्ठा करने की चाह में परेशान रहता है लेकिन कबीर साहेब की वाणी है की इस माया को लेकर कौन गया है, सब यही रह जानी है।

माया दीपक नर पतंग , भ्रमि भ्रमि माहि परन्त ।
कोई एक गुरु ज्ञानते , उबरे साधु सन्त ।।

माया भ्रम पैदा करती है और अपनी और आकर्षित करती है। माया दीपक की भांति है जो व्यक्ति को पतंगे की तरह आकर्षित करती है लेकिन पतंगा उसी दीपक में नष्ट हो जाता है। माया प्रकाश का भ्रम पैदा करती है लेकिन वो स्वंय काली रात्रि के समान है जो दुखों की जननी है। इस माया के इस जाल से गुरु के ज्ञान से ही बच सकता। है साधु संत सत्य की राह दिखाते हैं जिसके फलस्वरूप माया के प्रति आसक्ति पैदा नहीं होती है।

कबीर माया बेसवा , दोनूं की इक जात ।
आवंत को आदर करै , जात न बुझै बात ।।

माया को वेश्या के समान बताया है जिसके लिए कोई महत्वपूर्ण नहीं होता है। माया और वेश्या की एक जात होती है। दोनों को कबीर ने निकृष्ट बताया है। माया के जाल में जब व्यक्ति फसता है तो उसका स्वागत किया जाता है लेकिन माया में फंसकर जब उसका पतन हो जाता है तो उसकी खैर खबर लेने वाला कोई नहीं होता है।

कबीर माया पापिनी, लोभ भुलाया लोग ।
पुरी किनहूं न भोगिया, इसका यही यही बिजोग ।।

माया पापिनी है और ये लोभ पैदा करके व्यक्ति को अपने पाश में फंसा लेती है। इस माया को पूरी तरह से किसी ने नहीं भोगा है। माया कभी मरती नहीं, सिर्फ अपना रूप बदलती रहती है। इसने देवी देवताओं को भी अपने जाल में फंसा लिया था। इसलिए माया को कोई पूर्णतया भोग नहीं पाया है, ये अनंत है और यही इसका वियोग है।

माया लालच और लोभ के माध्यम से लोगों को अपनी और आकृष्ट करती है। सद्मार्ग से विचलित करने के लिए लोभ का माध्यम प्रयोग में लिया जाता है। बड़े बड़े संतजन भी अपनी भक्ति से विमुख होकर छोटे छोटे लोभ का शिकार होकर अपनी भक्ति और तपस्या पर पानी फेर लेते हैं। स्त्री को जहाँ माया माना गया है वहां पर कबीर ने स्त्री का भी विरोध किया है। वस्तुतः कबीर नारी विरोधी नहीं लेकिन नारी को भक्ति मार्ग मेंबाधा अवश्य माना है।
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1 टिप्पणी

  1. Thanks for open eyes for my aadyatmik teacher