लाडू लावन लापसी पूजा चढ़े अपार मीनिंग
लाडू लावन लापसी पूजा चढ़े अपार
पूजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार
Laadoo Laavan Laapasee Pooja Chadhe Apaar
Poojee Pujaaree Le Gaya,moorat Ke Muh Chhaarदोहे के शब्दार्थ हिंदी
लाडू लावन लापसी: लड्डू, लावना (मिठाई) चढ़े अपार: चढ़ावे में असंख्य वस्तुएं चढ़ती हैं। पूजी: पूजा के उपरान्त। पुजारी ले गया : पूजा के उपरांत भोग और पूजा में प्रयुक्त वस्तुओं को पुजारी अपने पास ले लेता है। मूरत: मूर्ति। मुह छार : शेष बचा हुआ भाग।
इस दोहे का हिंदी मीनिंग: अंधविश्वास, आडम्बर, पाखण्ड और दिखावे की पूजा अर्चना पर चोट करते हुए स्पष्ट संकेत है की पूजा के दौरान लोगों को मुर्ख बना कर पूजा में कई प्रकार की वस्तुओं, भोग आदि की मांग पुजारी के द्वारा की जाती है, लेकिन पूजा के उपरान्त यह सभी वस्तुएं (भोग, मिठाई और पूजा सामग्री को पुजारी ले जाता है ) पुजारी ले जाता है और गरीब और निर्धन व्यक्ति से इन वस्तुओं की मांग पूजा करने में की जाती है। क्या ईश्वर को इन वस्तुओं के बगैर प्रसन्न नहीं किया जा सकता है ? ईश्वर किसी वस्तु की मांग नहीं करता है, लेकिन अनिवार्य रूप से इन वस्तुओं की मांग करना कितना उचित है। जब पुजारी ही सब बटोर के ले जाता है तो मूर्ति के पास छार के सिवाय बचता ही क्या है।
इस दोहे का मूल भाव है की मूर्ति पूजा ईश्वर को प्रसन्न करने का तार्किक रूप से मान्य तरीका नहीं है। ईश्वर किसी मूर्ति विशेष के बंधन में बंधने वाला नहीं है, वह तो कण कण में व्याप्त है हर स्थान पर ईश्वर का वास है। ईश्वर की पूजा मूर्ति के बगैर भी संभव है। कबीर साहेब ने मालिक की बंदगी के लिए सदाचार, नेक नियत, सत्य और आचरण की शुद्धता पर बल दिया और समझाया की इस राह पर चलकर ईश्वर की बंदगी सम्भव है। मन के विषय वासना, क्रोध और अन्याय भरा पड़ा हो तो मूर्ति पूजा से क्या लाभ होने वाला है।
यहाँ एक बात और गौरतलब है की कबीर साहेब के समय धार्मिक कर्मकांड भी अपने चरम पर था। बात बात पर निरीह जन को धर्म का खौफ दिखा कर लूटा जाता है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हजारों अनुष्ठानों का रिवाज सा था जिन्हें पूरा करना आम जन के बस का नहीं रहा था। दूसरी और सामंतवादी शक्तिया भी जम कर इनका शोषण कर रही थी, किसी के भी विरोध करने पर तलवार के बल पर फैसला किया जाता था या तो धर्म के नाम पर इन्हें डरा कर इन्हें लूटा जाता था।
रही बात मालिक के सुमिरन की वह तो बहुत दूर की बात थी, देखिये एक तो सभी धार्मिक ग्रन्थ आम जन की पहुँच से दूर थे और दुसरा शिक्षा का अधिकार सभी को नहीं था तो संस्कृत को समझना भी जी का जंजाल था। इसी समय कबीर साहेब के क्रांतिकारी विचारों का उदय होता है और वे स्पष्ट रूप से लोगों को सन्देश देते हैं की किसी मंदिर, मस्जिद और कर्मकांड की कोई आवश्यकता नहीं है। आचरण शुद्ध रखो, सत्य की राह पर चलो, मानवतावादी कार्य करो, सभी को एक समझो और कहीं भी रहकर सच्चे मन से प्रभु का सुमिरन करो तो इश्वर अवश्य ही प्राप्त होंगे, इसके लिए किसी भी धर्म के ठेकेदार और एजेंट की कोई आवश्यकता नहीं है।
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