साधु सती और सूरमा इनकी बात अगाध हिंदी मीनिंग Sadhu Sati Aur Surma Inki Bat Agadh Meaning

साधु सती और सूरमा इनकी बात अगाध हिंदी मीनिंग Sadhu Sati Aur Surma Inki Bat Agadh Hindi Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit


साधु सती और सूरमा इनकी बात अगाध ।
आशा छोड़े देह की, तन की अनथक साध ॥ 
या
साधु सती और सूरमा, इनका मता अगाध
आशा छाड़े देह की, तिनमें अधिका साध 
Saadhu Satee Aur Soorama Inakee Baat Agaadh .
Aasha Chhode Deh Kee, Tan Kee Anathak Saadh .
Ya
Saadhu Satee Aur Soorama, Inaka Mata Agaadh
Aasha Chhaade Deh Kee, Tinamen Adhika Saadh 
 
साधु सती और सूरमा इनकी बात अगाध हिंदी मीनिंग Sadhu Sati Aur Surma Inki Bat Agadh Meaning
  
दोहे का हिंदी में मीनिंग/भावार्थ : साधू सती और सूरमा ये तीनों ही अपने लक्ष्य के लिए शरीर की आशा को छोड़ देते हैं। शरीर से इनका लगाव कम हो जाता है। साधू, सती और सूरमा इन तीनों की बातों को वर्णन नहीं किया जा सकता है। इनमे साधू का निर्णय अधिक दृढ होता है। सूरमा रण में अपने शत्रुओं को समाप्त करने के लिए अपने प्राणों की बाजी तक खेल जाता है वैसे ही सती भी अपने लक्ष्य के लिए समर्पित होती है। साधू को इन दोनों से भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि वह अपने लक्ष्य के लिए समर्पित तो होता है लेकिन उसका कोई भौतिक लाभ या लक्ष्य नहीं होता है। सन्त, सती और शूर - इनका मत अगम्य है| ये तीनों शरीर की आशा छोड़ देते हैं, इनमें सन्त जन अधिक निश्चय वाले होते होते हैं। इस दोहे का मूल भाव है की यह शरीर तो नश्वर है एक रोज समाप्त होना ही है इसलिए वह जीव को शारीरिक सुखों की लालसा को छोड़कर इश्वर की भक्ति में अपना ध्यान लगाना चाहिए।

साधु सती और सूरमा, कबहु न फेरे पीठ |
तीनों निकासी बाहुरे, तिनका मुख नहीं दीठ ||
 
साधू, सती और सूरमा ये तीनों ही कभी भी पीठ नहीं दिखाते हैं। अपने लक्ष्य को प्राणों से भी बढ़कर मानते हैं। तीनों ही अपने लक्ष्य के लिए जब बाहर निकल जाते हैं /कूच कर जाते हैं तो फिर शायद ही इनका मुंह दुबारा दिखे। भाव हैं की यह अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा देते हैं।

साधु, सती और सूरमा, ज्ञानी औ गज दन्त |
ते निकसे नहिं बाहुरे, जो जुग जाहिं अनन्त ||
 
साधु, सती और सूरमा हाथी के दांत की भाँती ही होते हैं जो एक बार निकल पड़े तो फिर कभी मुड कर नहीं देखते चाहे कितने ही जुग बीत जाएँ।
माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥

हम जानी मन मर गया, मरा हो गया भूत।
मरने पर भी आ खड़ा, ऐसा मन है कपूत॥

चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।
जाका कछु नहीं चाहिए, सो ही शाहंशाह॥

कबीर सोई दिन भला, जा दिन साधु मिलाय |
अंक भरे भरि भेरिये, पाप शरीर जाय ||

दरशन कीजै साधु का, दिन में कइ कइ बार |
आसोजा का भेह ज्यों, बहुत करे उपकार ||

दूजे दिन नहीं करि सके, तीजे दिन करू जाय |
कबीर साधु दरश ते, मोक्ष मुक्ति फन पाय ||

ऊँचे कुल की जनमिया, करनी ऊँच न होय |
कनक कलश मद सों भरा, साधु निन्दा कोय ||
 
कबीर साहेब इन इस दोहे में स्वंय / आत्मा का परिचय देते हुए स्पष्ट किया है की मैं कौन हूँ, 
 
जाती हमारी आत्मा, प्राण हमारा नाम। 
अलख हमारा इष्ट, गगन हमारा ग्राम।।
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