कबीर तन पंषी (पंछी) भया जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ मीनिंग कबीर के दोहे

कबीर तन पंषी (पंछी) भया जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ मीनिंग Kabir Tan Panchi Bhaya Jaha Man Taha Udi Jaay Meaning

कबीर तन पंषी भया, जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ।
जो जैसी संगति करे, सो तैसे फल खाइ॥
Or
कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ.
जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ
Kabeer Tan Panshee Bhaya, Jahaan Man Tahaan Udi Jai.
Jo Jaisee Sangati Kare, So Taise Phal Khai. 
 
कबीर तन पंषी (पंछी) भया जहाँ मन तहाँ उड़ि जाइ मीनिंग Kabir Tan Panchi Bhaya Jaha Man Taha Udi Jaay Meaning
 
जिसका मन स्वंय के नियंत्रण में नहीं है उसका मन तो पक्षी के समान हो जाता है वह कहीं एक जगह टिक कर नहीं रहता है। वह जैसी संगती करता है वैसे ही परिणाम उसे भोगने पड़ते हैं। भाव है की हमें हमारे मन को नियंत्रित रखना चाहिए और विषय विकारों से दूर रहना चाहिए।

Saheb says that the body of a worldly person has become a bird and wherever he has his mind, the body flies and reaches there. True, one gets the same result as he does together, so we must have good surrounding of thoughts.

यहु मन दीजे तास कौं, सुठि सेवग भल सोइ।
सिर ऊपरि आरास है, तऊ न दूजा होइ॥
Yahu Man Deeje Taas Kaun, Suthi Sevag Bhal Soi.

Sir Oopari Aaraas Hai, Taoo Na Dooja Hoi. 
 
यह मन ईश्वर के सच्चे भक्त को ही देना चाहिए, ईश्वर के भक्त को ही देना चाहिए। जो ईश्वर का सच्चा भक्त है वही भला है। ऐसे भक्त सर पर आरा होने के बावजूद भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होते हैं। दोहे का भाव है की हमें उन्ही व्यक्तियों से संपर्क रखना चाहिए जो ईश्वर के सच्चे भक्त हैं।

पाँहण टाँकि न तौलिए, हाडि न कीजै वेह।
माया राता मानवी, तिन सूँ किसा सनेह॥
Paanhan Taanki Na Taulie, Haadi Na Keejai Veh.

Maaya Raata Maanavee, Tin Soon Kisa Saneh.  
 
पत्थरों को टांकी (तौलने का यंत्र) लगा कर नहीं तौला जा सकता है, और नाहिं हड्डी को तोड़ कर देखा ही जा सकता है। इसी प्रकार से माया में पड़े हुए व्यक्ति का किसी से प्रेम नहीं हो सकता है। भाव है की हमें ऐसे व्यक्तियों से दूर ही रहना चाहिए जो माया के चक्कर में पड़े रहते हैं।

कबीर तासूँ प्रीति करि, जो निरबाहे ओड़ि।
बनिता बिबिध न राचिये, दोषत लागे षोड़ि॥
 
साहेब की वाणी है की हमें उनसे प्रीत करनी चाहिए जो अंत तक प्रीत को निभा सके, सबंध को कायम रख सकें। अनेक स्त्रियों और माया के चक्कर में पड़े हुए व्यक्ति को देखते ही पाप लगता है।

काजल केरी कोठढ़ी, तैसा यहु संसार।
बलिहारी ता दास की, पैसि रे निकसणहार॥
Kaajal Keree Kothadhee, Taisa Yahu Sansaar.

Balihaaree Ta Daas Kee, Paisi Re Nikasanahaar. 
 
यह संसार काजल की कोठरी के समान है, सदृश्य है और इसमें माया का काजल चारों और बिखरा पड़ा है इसमें अछूता निकलना बड़ा ही मुश्किल है। गुरुदेव की कृपा स्वरुप भक्त जन ही इस कोठरी से अछूता निकल सकता है। भाव है की यह संसार विषय वासनाओं से भरा पड़ा है जिससे निकलने के लिए

कबीर भेष अतीत का, करतूति करै अपराध।
बाहरि दीसै साध गति, माँहैं महा असाध॥
Kabeer Bhesh Ateet Ka, Karatooti Karai Aparaadh.

Baahari Deesai Saadh Gati, Maanhain Maha Asaadh. 
 
वेश तो साधु का बना लिया है, अत्तीत (इस लोक से परे का ) लेकिन करनी साधू की नहीं हैं, करनी तो असंत है तो उसे साधू कैसे कहा जा सकता है। भाव है की वस्त्र गेरुवा पहन लेने से कोई साधू नहीं बन जाता है, उसकी कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए, उसके कार्य भी संतजन जैसे होने चाहिए नहीं तो उसे साधू कैसे कहा जा सकता है। साधू और संत वही है जिसकी कथनी और करनी में समानता होनी चाहिए। हमें स्वंय के कर्म सुधरने चाहिए।

उज्जल देखि न धीजिये, बग ज्यूँ माँड़ै ध्यान।
धीरे बैठि चपेटसी, यूँ ले बूड़ै, ग्याँन॥
Ujjala Dēkhi Na Dhījiyē, Baga Jyūm̐ Mām̐ṛai Dhyāna.

Dhīrē Baiṭhi Capēṭasī, Yūm̐ Lē Būṛai, Gyām̐na. 
 
किसी के सफ़ेद कपडे देखकर उसको संत मान लेने की भूल कभी नहीं करनी चाहिए। जैसे बगुला सफ़ेद आवरण का होता है लेकिन वह मछली की फिराक में रहता है की कब कोई मछली उसकी पकड़ में आये और उसे वह दबोच ले। ऐसे ही संत के वस्त्र धारण किया हुआ व्यक्ति कब आपको अपनी चपेट में ले ले और सभी ज्ञान को डुबो दे पता नहीं चल पाता है। भाव यही है की हमें संत जन और साधू की पहचान अवश्य कर लेनी चाहिए। वस्त्र और बाह्य आवरण को देख कर किसी को साधू नहीं मान लेना चाहिए।

जेता मीठा बोलणाँ, तेता साध न जाँणि।
पहली थाह दिखाई करि, ऊँड़ै देसी आँणि॥
Jeta Meetha Bolanaan, Teta Saadh Na Jaanni.

Pahalee Thaah Dikhaee Kari, Oondai Desee Aanni. 
 
जो मीठा बोलते हैं उन्हें उनकी वाणी के आधार पर संत नहीं समझना चाहिए। ऐसे लोग पहले तो उठला (कम) पानी दिखाते हैं और फिर गहराई के पानी में डुबो देते हैं। भाव यही है की हमें किसी के बाह्य प्रदर्शन को ध्यान में रखकर निर्णय नहीं लेना चाहिए पहले उसे पूर्ण रूप से परख लेना चाहिए।

कबीर संगति साध की, बेगि करीजैं जाइ।
दुरमति दूरि गँवाइसी, देसी सुमति बताइ॥
Kabīra Saṅgati Sādha Kī, Bēgi Karījaiṁ Jā'i. 
 
Duramati Dūri Gam̐vā'isī, Dēsī Sumati Batā'i. साधू और संतजन की संगती हमें शीघ्र ही कर लेनी चाहिए जो हमारी कुबुद्धि को दूर करती है। संतजन हमें सद्मार्ग का की ओर अग्रसर कर देते हैं।

मथुरा जावै द्वारिका, भावैं जावैं जगनाथ।
साध संगति हरि भगति बिन, कछू न आवै हाथ॥
Mathura Jaavai Dvaarika, Bhaavain Jaavain Jaganaath. 
Saadh Sangati Hari Bhagati Bin, Kachhoo Na Aavai Haath. 
 
वास्तविक भक्ति के बिना कुछ भी संभव नहीं है, भले ही आप मथुरा जाओ, द्वारिका जाओ या जगन्नाथ जाओ साधू की संगत यदि नहीं की है तो कुछ भी प्राप्त नहीं होने वाला है। भाव है की वास्तविक भक्ति के बगैर कुछ भी संभव नहीं है चाहे भौतिक रूप से हम कितने भी प्रयत्न कर लें, तीर्थाटन कर ले कुछ भी लाभ नहीं होने वाला है। यह सभी सांकेतिक रूप से हैं हृदय से हरी के सुमिरण के अभाव में कुछ भी प्राप्त होने वाला नहीं है।

कबीर संगति साध की, कदे न निरफल होइ।
चंदन होसी बाँवना, नीब न कहसी कोइ॥ 
 
ईश्वर की भक्ति करने का फल अवश्य ही मिलता है उसमे देर सवेर हो सकती है। साधू की संगती भी निष्फल नहीं जाती है और यह नीम को भी चंदन बना देती है, फिर उसे नीम कोई नहीं कहेगा। भाव है की साधु की संगती व्यक्ति के समस्त दुर्गुणों को दूर कर देती है। हमें संतजन और साधुओं की संगती अवश्य ही करनी चाहिए।

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