बुगली नीर बिटालिया सायर चढ़ा कलंक मीनिंग Baguli Neer Bitaliya Meaning Kabir Dohe

बुगली नीर बिटालिया सायर चढ़ा कलंक मीनिंग Baguli Neer Bitaliya Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe Hindi Meaning (Hindi Bhavarth/ Hindi Arth Sahit)

बुगली नीर बिटालिया, सायर चढ़ा कलंक।
और पँखेरू पी गए, हंस न बोवै चंच॥
Baguli Neer Bitaliya, Sayar Chadha Kalank,
Aur Pakheru Pee Gaye, Hans Na Bove Chanch.

बुगली नीर बिटालिया : बगुला ने पानी को समाप्त कर दिया / गन्दा कर दिया है.
सायर चढ़ा कलंक :भवसागर में कलंक व्याप्त हो गया है.
और पँखेरू पी गए : पक्षी पी गए हैं.
हंस न बोवै चंच : जीवात्मा (मुक्तात्मा) इसमें चौंच नहीं दे रही है.
बुगली : माया से आशय, माया रूपी बगुला/बगुली.
नीर : पानी, जल.
बिटालिया : गन्दा कर दिया है.
सायर : सागर/भवसागर.
चढ़ा कलंक : कलंक चढ़ गया है, प्रसार हो गया है.
और पँखेरू पी गए : अन्य पक्षी पी गए.
हंस : भक्ति करने वाली मुक्तात्मा.
न बोवै : डालती नहीं है. डुबोती नहीं है.
चंच : चोंच.
कबीर साहेब की वाणी है की माया रूपी बगुले ने / बगुली ने विषय वासनाओं में लिप्त होकर जल को झूठा (अपवित्र) कर दिया है. ऐसा करने पर संसार सागर भी दूषित हो गया है. सामान्य पक्षी इस जल को पी गए हैं लेकिन चतैन्य/मुक्तात्मा इस जल को चोंच भी नहीं डुबोती है. भाव है की मुक्तात्मा इस जल को ग्रहण नहीं करती है. दुसरे अर्थों में बगुले रूपी आत्मा ने आत्मा के जल को दूषित कर दिया है. उसके तेज को क्षीर्ण कर दिया है. अन्य सांसारिक जीव जो विषय वासनाओं में पड़े रहते हैं वे इस जीव को ग्रहण कर लेते हैं लेकिन भक्ति में लीन जीवात्मा इस दूषित जल को ग्रहण नहीं करती है. प्रस्तुत साखी में अन्योक्ति अलंकार की सफल व्यंजना हुई है.
अन्योक्ति अलंकार : जहां पर उपमान के माध्यम से उपमेय का वर्णन किया जाता है,  उपमान अप्रस्तुत एवं उपमेय प्रस्तुत हो, वहां अन्योक्ति अलंकार होता है।
जहाँ किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए, उसे अन्योक्ति अलंकार कहते हैं.
फूलों के आसपास रहते हैं।
फिर भी काँटे उदास रहते हैं।

नहि पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहिं काल।
अली कली ही सौं बँध्यौ, आगे कौन हवाल।।
अतः जहाँ उपमान के बहाने, माध्यम से उपमेय का वर्णन किया जाय या कोई बात सीधे न कहकर किसी के माध्यम से हो वहाँ अन्योक्ति  अलंकार होता है।

इहिं आस अटक्यो रहत, अली गुलाब के मूल।
अइहैं फेरि बसंत रितु, इन डारन के मूल।।

माली आवत देखकर कलियन करी पुकार।
फूले-फूले चुन लिए , काल्हि हमारी बारि।।

केला तबहिं न चेतिया, जब ढिग लागी बेर।
अब  ते चेते का भया , जब कांटन्ह लीन्हा घेर।।

अन्योक्ति अलंकार के अन्य उदहारण
जिन दिन देखे वे कुसुम गई सु बीती बहार।
अब अली रही गुलाब में अपत कंटीली डार॥

करि फुलेल को आचमन , मीठो कहत सराहि ।
ए गंधी मतिमंद तू अतर दिखावत काहि॥

मरतु प्यास पिंजरा पइयौ , सुआ समय के फेर।
आदर दै दै बोलियतु बायसु बलि की बेर॥

स्वारथ , सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि , तू पच्छीनु न मारि॥

भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता,
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कतोपकारः॥

जिन जिन देखे वे कुसुम,
गई सुवीति बहार।
अब अति रही गुलाब में,
अपत कटीली डार।।
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url