श्री कुन्थुनाथ चालीसा लिरिक्स Kunthunatha Chalisa
भगवान श्री कुन्थुनाथ जी जैन धर्म के सत्रहवें तीर्थंकर थे। इनका जन्म हस्तिनापुर में हुआ था। भगवान श्री कुन्थुनाथ इक्ष्वाकु वंश के राजा सूर्य के पुत्र हैं।इनकी माता का नाम श्रीदेवी है। कुन्थुनाथजी का जन्म वैशाख माह की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को हुआ था। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण था। भगवान श्री कुन्थुनाथजी का प्रतीक चिन्ह बकरा है। कुन्थुनाथजी ने बैशाख माह की कृष्ण पक्ष की पंचमी तिथि को हस्तिनापुर में दीक्षा ग्रहण की। 16 वर्ष तक कठोर तप करने के बाद भगवान कुन्थुनाथ जी को चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को हस्तिनापुर में तिलक वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। भगवान श्री कुन्थुनाथ जी ने सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाने का संदेश दिया। वैशाख माह की कृष्ण पक्ष की एकादशी को सम्मेद शिखर पर भगवान श्री कुन्थुनाथजी को निर्वाण की प्राप्ति हुई।
कुन्थुनाथ चालीसा Kunthunath Chalisa
दयासिन्धु कुन्थु जिनराज,भवसिन्धु तिरने को जहाज।
कामदेव-चक्री महाराज,
दया करो हम पर भी आज।
जय श्री कुन्युनाथ गुणखान,
परम यशस्वी महिमावान।
हस्तिनापुर नगरी के भूपति,
शूरसेन कुरुवंशी अधिपति।
महारानी थी श्रीमति उनकी,
वर्षा होती थी रतनन की।
प्रतिपदा बैसाख उजियारी,
जन्मे तीर्थकर बलधारी।
गहन भक्ति अपने उर धारे,
हस्तिनापुर आए सुर सारे।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
गए सुमेरु हर्षित होकर।
न्हवन करें निर्मल जल लेकर,
ताण्डव नृत्य करे भक्वि-भर।
कुन्थुनाथ नाम शुभ देकर,
इन्द्र करें स्तवन मनोहर।
दिव्य-वस्त्र-भूषण पहनाए,
वापिस हस्तिनापुर को आए।
कम-क्रम से बढे बालेन्दु सम,
यौवन शोभा धारे हितकार।
धनु पैंतालीस उन्नत प्रभु-तन,
उत्तम शोभा धारें अनुपम।
आयु पिंचानवे वर्ष हजार,
लक्षण 'अज' धारे हितकार।
राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक,
शासन करें सुनीति पूर्वक।
चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब,
चक्रवर्ती कहलाए प्रभु तब।
एक दिन गए प्रभु उपवन में,
शान्त मुनि इक देखे मग में।
इंगिन किया तभी अंगुलिसे,
'देखो मुनिको', कहा मंत्री से।
मंत्री ने पूछा जब कारण,
'किया मोक्षहित मुनिपद धारण'।
कारण करें और स्पष्ट,
'मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट'।
मंत्रो का तो हुआ बहाना,
किया वस्तुतः निज कल्याणा।
चिन विरक्त हुआ विषयों से,
तत्व चिन्तन करते भावों से।
निज सुत को सौंपा सब राज,
गए सहेतुक वन जिनराज।
पंचमुष्टि से कैशलौंचकर,
धार लिया पद नगन दिगम्बर।
तीन दिन बाद गए गजपुर को,
धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को।
मौन रहे सोलह वर्षों तक,
सहे शीत-वर्षा और आतप।
स्थिर हुए तिलक तरु-जल में,
मगन हुए निज ध्यान अटल में।
आतम ने बढ़ गई विशुद्धि,
कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि।
सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त,
दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त।
समोशरण रचना सुखकार,
ज्ञाननृपित बैठे नर-नार।
विषय-भोग महा विषमय है,
मन को कर देते तन्मय है।
विष से मरते एक जनम में,
भोग विषाक्त मरें भव-भव में।
क्षण भंगुर मानब का जीवन,
विद्युतवन विनसे अगले क्षण।
सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही,
यौवन हो जाता अदृश्य ही।
जब तक आतम बुद्धि नही हो,
तब तक दरश विशुद्धि नहीं हो।
पहले विजित करो पंचेन्द्रिय,
आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय।
भव्य भारती प्रभु की सुनकर,
श्रावकजन आनन्दित को कर।
श्रद्धा से व्रत धारण करते,
शुभ भावों का अर्जन करते।
शुभायु एक मास रही जब,
शैल सम्मेद पे वास किया तब।
धारा प्रतिमा रोग वहॉ पर,
काटा कर्मबंध सब प्रभुवर ।
मोक्षकल्याणक करते सुरगण,
कूट ज्ञानधर करते पूजन।
चक्री-कामदेव-तीर्थंकर,
कुन्थुनाथ थे परम हितंकर।
चालीसा जो पढे भाव से,
स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से।
धर्म चक्र के लिए प्रभु ने,
चक्र सुदर्शन तज डाला।
इसी भावना ने अरुणा को,
किया ज्ञान में मतवाला।
कामदेव-चक्री महाराज,
दया करो हम पर भी आज।
जय श्री कुन्युनाथ गुणखान,
परम यशस्वी महिमावान।
हस्तिनापुर नगरी के भूपति,
शूरसेन कुरुवंशी अधिपति।
महारानी थी श्रीमति उनकी,
वर्षा होती थी रतनन की।
प्रतिपदा बैसाख उजियारी,
जन्मे तीर्थकर बलधारी।
गहन भक्ति अपने उर धारे,
हस्तिनापुर आए सुर सारे।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
गए सुमेरु हर्षित होकर।
न्हवन करें निर्मल जल लेकर,
ताण्डव नृत्य करे भक्वि-भर।
कुन्थुनाथ नाम शुभ देकर,
इन्द्र करें स्तवन मनोहर।
दिव्य-वस्त्र-भूषण पहनाए,
वापिस हस्तिनापुर को आए।
कम-क्रम से बढे बालेन्दु सम,
यौवन शोभा धारे हितकार।
धनु पैंतालीस उन्नत प्रभु-तन,
उत्तम शोभा धारें अनुपम।
आयु पिंचानवे वर्ष हजार,
लक्षण 'अज' धारे हितकार।
राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक,
शासन करें सुनीति पूर्वक।
चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब,
चक्रवर्ती कहलाए प्रभु तब।
एक दिन गए प्रभु उपवन में,
शान्त मुनि इक देखे मग में।
इंगिन किया तभी अंगुलिसे,
'देखो मुनिको', कहा मंत्री से।
मंत्री ने पूछा जब कारण,
'किया मोक्षहित मुनिपद धारण'।
कारण करें और स्पष्ट,
'मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट'।
मंत्रो का तो हुआ बहाना,
किया वस्तुतः निज कल्याणा।
चिन विरक्त हुआ विषयों से,
तत्व चिन्तन करते भावों से।
निज सुत को सौंपा सब राज,
गए सहेतुक वन जिनराज।
पंचमुष्टि से कैशलौंचकर,
धार लिया पद नगन दिगम्बर।
तीन दिन बाद गए गजपुर को,
धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को।
मौन रहे सोलह वर्षों तक,
सहे शीत-वर्षा और आतप।
स्थिर हुए तिलक तरु-जल में,
मगन हुए निज ध्यान अटल में।
आतम ने बढ़ गई विशुद्धि,
कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि।
सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त,
दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त।
समोशरण रचना सुखकार,
ज्ञाननृपित बैठे नर-नार।
विषय-भोग महा विषमय है,
मन को कर देते तन्मय है।
विष से मरते एक जनम में,
भोग विषाक्त मरें भव-भव में।
क्षण भंगुर मानब का जीवन,
विद्युतवन विनसे अगले क्षण।
सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही,
यौवन हो जाता अदृश्य ही।
जब तक आतम बुद्धि नही हो,
तब तक दरश विशुद्धि नहीं हो।
पहले विजित करो पंचेन्द्रिय,
आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय।
भव्य भारती प्रभु की सुनकर,
श्रावकजन आनन्दित को कर।
श्रद्धा से व्रत धारण करते,
शुभ भावों का अर्जन करते।
शुभायु एक मास रही जब,
शैल सम्मेद पे वास किया तब।
धारा प्रतिमा रोग वहॉ पर,
काटा कर्मबंध सब प्रभुवर ।
मोक्षकल्याणक करते सुरगण,
कूट ज्ञानधर करते पूजन।
चक्री-कामदेव-तीर्थंकर,
कुन्थुनाथ थे परम हितंकर।
चालीसा जो पढे भाव से,
स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से।
धर्म चक्र के लिए प्रभु ने,
चक्र सुदर्शन तज डाला।
इसी भावना ने अरुणा को,
किया ज्ञान में मतवाला।
भगवान कुन्थुनाथ जी का मंत्र-
भगवान श्री कुन्थुनाथ जी के चालीसा पाठ के साथ-साथ उनके मंत्र का जाप भी लाभदायक है। उनके मंत्र का जाप करने से व्यक्ति अपनी इंद्रियों को जीत लेता है और स्वयं पर नियंत्रण कर स्वयं सिद्ध हो जाता है।
भगवान श्री कुंठुनाथ जी का मंत्र-
ॐ ह्रीं अर्हं श्री कुन्थनाथाय नमः।
भगवान श्री कुन्थुनाथ जी के चालीसा पाठ के साथ-साथ उनके मंत्र का जाप भी लाभदायक है। उनके मंत्र का जाप करने से व्यक्ति अपनी इंद्रियों को जीत लेता है और स्वयं पर नियंत्रण कर स्वयं सिद्ध हो जाता है।
भगवान श्री कुंठुनाथ जी का मंत्र-
ॐ ह्रीं अर्हं श्री कुन्थनाथाय नमः।
Kunthunath Ji Chalisa कुन्थुनाथ जी चालीसा
विध्यमान बीस तीर्थंकर अर्घ
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्र निहू तैं, थुति पूरी न करी है ।
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।।
जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्र निहू तैं, थुति पूरी न करी है ।
द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ।
श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।।
श्री कुन्थुनाथ चालीसा लिरिक्स Kunthunatha Chalisa Lyrics
सिद्धप्रभू को नमन कर, सिद्ध करूँ सब काम।
सत्रहवें तीर्थेश का, करना है गुणगान।।१।।
कुन्थुनाथ भगवान हैं, श्रीकांता के लाल।
कामदेव हैं तेरवें, उनको करूँ प्रणाम।।२।।
श्रीजिनवाणी मात की, हो जावे शुभदृष्टि।
तभी पूर्ण हो जाएगी, गुणगाथा संक्षिप्त।।३।।
कुन्थु को नमन हमारा, इक-दो बार नहीं सौ बारा।।१।।
पिता आपके शूरसेन थे, गजपुर[१] नगरी के नरेश थे।।२।।
प्रभु तुम तीर्थंकर सत्रहवें, कामदेव भी थे तेरहवें।।३।।
छठे चक्रवर्ती भी तुम हो, तीन-तीन पद से शोभित हो।।४।।
गर्भ से ही त्रयज्ञान के धारी, प्रभु की महिमा जग से न्यारी।।५।।
जन्म लिया प्रभु मध्यलोक में, खुशियाँ छाईं तीनलोक में।।६।।
सुरपति ऐरावत हाथी से, स्वर्ग से आता मनुजलोक में।।।७।।
नगरी की त्रयप्रदक्षिणा दे, जाते हैं सब राजमहल में।।८।।
पति की आज्ञा से शचि देवी, जाती माता के प्रसूति गृह।।९।।
वहाँ बिना बोले वह देवी, जिनमाता को वंदन करती।।१०।।
पुन: सुला देती माता को, मायामयी गाढ़ निद्रा में।।११।।
मायावी दूजा बालक इक, सुला दिया माँ के समीप में।।१२।।
जिनबालक को लाई बाहर, इन्द्रराज को सौंप दिया तब।।१३।।
इन्द्र एक हजार नेत्र से, प्रभु को निरखे तृप्त न होते।।१४।।
प्रभु को लेकर ऐरावत से, पहुँच गए वे गिरि सुमेरु पे।।१५।।
वहाँ शिला इक पाण्डुकनामा, जो निर्मित ईशान दिशा मा।।१६।।
उस पर किया जन्म अभिषव था, नभ में जय-जय कोलाहल था।।१७।।
वह वैशाख सुदी एकम् की, तिथि भी पावन-पूज्य बनी थी।।१८।।
जन्म न्हवन के बाद इन्द्र ने, मात-पिता को सौंपा बालक।।१९।।
सभी गए अपने स्वर्गों में, जीवन अपना धन्य वे समझें।।२०।।
राज्य अवस्था में इक दिन प्रभु, क्रीड़ा कर वापस लौटे जब।।२१।।
दिखे मार्ग में एक महामुनि, आपत योग में वे थे स्थित।।२२।।
पूछा मंत्री ने हे राजन् , क्यों करते ये कठिन महातप?।।२३।।
चक्रवर्ती कुन्थुप्रभु बोले, ये कर्मों को नष्ट करेंगे।।२४।।
पुन: शीघ्र ही ये मुनिराजा, प्राप्त करेंगे शाश्वत धामा।।२५।।
समझाया उनने मंत्री को, यह संसार क्षणिक है नश्वर।।२६।।
पुन: गए वे राजमहल में, मग्न हो गए सुख-वैभव में।।२७।।
तभी एक दिन कुन्थुनाथ ने, जातिस्मरण से पाई विरक्ती।।२८।।
देव लाए तब विजया पालकि, उसमें बैठाया प्रभु जी को।।२९।।
गये सहेतुक वन में प्रभु जी, तिलकवृक्ष के नीचे तिष्ठे।।३०।।
प्रभु ने जिनदीक्षा स्वीकारी, किया इन्द्र ने उत्सव भारी।।३१।।
पुन: चैत्र सुदि तीज तिथी को, केवलज्ञान हुआ प्रभु जी को।।३२।।
समवसरण के मध्य गंधकुटि, उस पर राजें अधर प्रभू जी।।३३।।
बरसाई धर्मामृत धारा, जिससे हुआ जगत उद्धारा।।३४।।
इसके बाद प्रभू जी पहुँचे, तीर्थराज सम्मेदशिखर पे।।३५।।
नष्ट किए जब कर्म अघाती, तब प्रभु जी ने पाई मुक्ती।।३६।।
तिथि वैशाख सुदी एकम् की, पूज्य हुई प्रभु मोक्षगमन से।।३७।।
प्रभु को कहीं नहीं अब जाना, सिद्धशिला है शाश्वत धामा।।३८।।
मैं भी प्रभु ऐसा पद पाऊँ, बार-बार नहिं जग में आऊँ।।३९।।
क्योंकी भगवन् अब भ्रमने की, नहीं ‘‘सारिका’’ को है शक्ती।।४०।।
कुन्थुनाथ भगवान का, यह चालीसा पाठ।
चालिस दिन तक जो पढ़े, नित चालीसहिं बार।।१।।
निश्चित ही उन भव्य की, यशकीर्ती बढ़ जाए।
रोग-शोक-संकट टलें, सुख-सम्पत्ति मिल जाए।।२।।
गणिनीप्रमुख महान हैं, ज्ञानमती जी मात।
शिष्या उनकी कविहृदया, प्रज्ञाश्रमणी मात[२]।।३।।
पाकर उनकी प्रेरणा, लिखा ये मैंने पाठ।
इसको पढ़कर हों सुलभ, जग के सब सुख-ठाठ।।४।।
सत्रहवें तीर्थेश का, करना है गुणगान।।१।।
कुन्थुनाथ भगवान हैं, श्रीकांता के लाल।
कामदेव हैं तेरवें, उनको करूँ प्रणाम।।२।।
श्रीजिनवाणी मात की, हो जावे शुभदृष्टि।
तभी पूर्ण हो जाएगी, गुणगाथा संक्षिप्त।।३।।
कुन्थु को नमन हमारा, इक-दो बार नहीं सौ बारा।।१।।
पिता आपके शूरसेन थे, गजपुर[१] नगरी के नरेश थे।।२।।
प्रभु तुम तीर्थंकर सत्रहवें, कामदेव भी थे तेरहवें।।३।।
छठे चक्रवर्ती भी तुम हो, तीन-तीन पद से शोभित हो।।४।।
गर्भ से ही त्रयज्ञान के धारी, प्रभु की महिमा जग से न्यारी।।५।।
जन्म लिया प्रभु मध्यलोक में, खुशियाँ छाईं तीनलोक में।।६।।
सुरपति ऐरावत हाथी से, स्वर्ग से आता मनुजलोक में।।।७।।
नगरी की त्रयप्रदक्षिणा दे, जाते हैं सब राजमहल में।।८।।
पति की आज्ञा से शचि देवी, जाती माता के प्रसूति गृह।।९।।
वहाँ बिना बोले वह देवी, जिनमाता को वंदन करती।।१०।।
पुन: सुला देती माता को, मायामयी गाढ़ निद्रा में।।११।।
मायावी दूजा बालक इक, सुला दिया माँ के समीप में।।१२।।
जिनबालक को लाई बाहर, इन्द्रराज को सौंप दिया तब।।१३।।
इन्द्र एक हजार नेत्र से, प्रभु को निरखे तृप्त न होते।।१४।।
प्रभु को लेकर ऐरावत से, पहुँच गए वे गिरि सुमेरु पे।।१५।।
वहाँ शिला इक पाण्डुकनामा, जो निर्मित ईशान दिशा मा।।१६।।
उस पर किया जन्म अभिषव था, नभ में जय-जय कोलाहल था।।१७।।
वह वैशाख सुदी एकम् की, तिथि भी पावन-पूज्य बनी थी।।१८।।
जन्म न्हवन के बाद इन्द्र ने, मात-पिता को सौंपा बालक।।१९।।
सभी गए अपने स्वर्गों में, जीवन अपना धन्य वे समझें।।२०।।
राज्य अवस्था में इक दिन प्रभु, क्रीड़ा कर वापस लौटे जब।।२१।।
दिखे मार्ग में एक महामुनि, आपत योग में वे थे स्थित।।२२।।
पूछा मंत्री ने हे राजन् , क्यों करते ये कठिन महातप?।।२३।।
चक्रवर्ती कुन्थुप्रभु बोले, ये कर्मों को नष्ट करेंगे।।२४।।
पुन: शीघ्र ही ये मुनिराजा, प्राप्त करेंगे शाश्वत धामा।।२५।।
समझाया उनने मंत्री को, यह संसार क्षणिक है नश्वर।।२६।।
पुन: गए वे राजमहल में, मग्न हो गए सुख-वैभव में।।२७।।
तभी एक दिन कुन्थुनाथ ने, जातिस्मरण से पाई विरक्ती।।२८।।
देव लाए तब विजया पालकि, उसमें बैठाया प्रभु जी को।।२९।।
गये सहेतुक वन में प्रभु जी, तिलकवृक्ष के नीचे तिष्ठे।।३०।।
प्रभु ने जिनदीक्षा स्वीकारी, किया इन्द्र ने उत्सव भारी।।३१।।
पुन: चैत्र सुदि तीज तिथी को, केवलज्ञान हुआ प्रभु जी को।।३२।।
समवसरण के मध्य गंधकुटि, उस पर राजें अधर प्रभू जी।।३३।।
बरसाई धर्मामृत धारा, जिससे हुआ जगत उद्धारा।।३४।।
इसके बाद प्रभू जी पहुँचे, तीर्थराज सम्मेदशिखर पे।।३५।।
नष्ट किए जब कर्म अघाती, तब प्रभु जी ने पाई मुक्ती।।३६।।
तिथि वैशाख सुदी एकम् की, पूज्य हुई प्रभु मोक्षगमन से।।३७।।
प्रभु को कहीं नहीं अब जाना, सिद्धशिला है शाश्वत धामा।।३८।।
मैं भी प्रभु ऐसा पद पाऊँ, बार-बार नहिं जग में आऊँ।।३९।।
क्योंकी भगवन् अब भ्रमने की, नहीं ‘‘सारिका’’ को है शक्ती।।४०।।
कुन्थुनाथ भगवान का, यह चालीसा पाठ।
चालिस दिन तक जो पढ़े, नित चालीसहिं बार।।१।।
निश्चित ही उन भव्य की, यशकीर्ती बढ़ जाए।
रोग-शोक-संकट टलें, सुख-सम्पत्ति मिल जाए।।२।।
गणिनीप्रमुख महान हैं, ज्ञानमती जी मात।
शिष्या उनकी कविहृदया, प्रज्ञाश्रमणी मात[२]।।३।।
पाकर उनकी प्रेरणा, लिखा ये मैंने पाठ।
इसको पढ़कर हों सुलभ, जग के सब सुख-ठाठ।।४।।
भगवान श्री कुन्थुनाथ जिनपूजा Bhagwan Shri Kunthunath Ji Jinpuja
दोहा
परमपुरूष परमातमा, परमानन्द स्वरूप।
आह्वानन कर मैं जजूं, कुन्थुनाथ शिवभूप।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र मम
सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक बसंततिलका
मंगानदी जल लिये त्रय धार देऊं।
स्वात्मैक शुद्ध करना बस एक हेतु।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशानाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर केशर घिसा कर शुद्ध लाया।
संसार ताप शमहेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली अखंड सित धौत सुथाल भरके।
अक्षय अखंड पद हेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब अरविंद सुचंपकादी।
कामारिजित पद सरोरूह में चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पुआ अंदरसा पकवान नाना।
क्षूध रोग नाश हित नेवज को चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर दीप लव ज्योति करें दशोंदिक्।
मैं आरती कर प्रभो निज मोह नाशूं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू सुरभि धूप जले अगनि में।
संपूर्ण पाप कर भस्म उड़े गगन में।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम फल अमृतसम मंगाके।
अर्पूं तुम्हें सुफल हेतु अभीष्ट पूरो।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अष्ट शुीाद्रव्य सुथाल भरके।
पूजूं तुम्हें सकल ’’ज्ञानमती’’ सदा हो।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये,
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
कनकभृंग में नीर, सुरभित कमलपराग से।
मिले भवोदविधतीर, शांतीधारा मैं करूं।
परमपुरूष परमातमा, परमानन्द स्वरूप।
आह्वानन कर मैं जजूं, कुन्थुनाथ शिवभूप।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् अह्वान्नां।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्र अत्र मम
सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अष्टक बसंततिलका
मंगानदी जल लिये त्रय धार देऊं।
स्वात्मैक शुद्ध करना बस एक हेतु।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशानाय
जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर केशर घिसा कर शुद्ध लाया।
संसार ताप शमहेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय
चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
शाली अखंड सित धौत सुथाल भरके।
अक्षय अखंड पद हेतु तुम्हें चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये
अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
बेला गुलाब अरविंद सुचंपकादी।
कामारिजित पद सरोरूह में चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय
पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
लड्डू पुआ अंदरसा पकवान नाना।
क्षूध रोग नाश हित नेवज को चढ़ाऊं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय
नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर दीप लव ज्योति करें दशोंदिक्।
मैं आरती कर प्रभो निज मोह नाशूं।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय
दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरू सुरभि धूप जले अगनि में।
संपूर्ण पाप कर भस्म उड़े गगन में।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वंसनाय
धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
अंगूर आम फल अमृतसम मंगाके।
अर्पूं तुम्हें सुफल हेतु अभीष्ट पूरो।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये
फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नीरादि अष्ट शुीाद्रव्य सुथाल भरके।
पूजूं तुम्हें सकल ’’ज्ञानमती’’ सदा हो।।
श्री कुन्थुनाथ पद पंकज को जजूं मैं।
छूटूं अनंत भव संकट से सदा जो।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये,
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सोरठा
कनकभृंग में नीर, सुरभित कमलपराग से।
मिले भवोदविधतीर, शांतीधारा मैं करूं।
शांतये शांतिधारा।
वकुल गुलाब सुपुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
पुष्पांजलि से पूज, पाऊं आतम निधि अमल।।
वकुल गुलाब सुपुष्प, सुरभित करते दश दिशा।
पुष्पांजलि से पूज, पाऊं आतम निधि अमल।।
दिव्य पुष्पांजलिः।
दोहा
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
दोहा
श्रावण वदि दशमी तिथी, गर्भ बसे भगवान।
इंद्र गर्भ मंगल किया, मैं पूजूं इत आन।।
ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां श्रीकुन्थुनाथजिनगर्भकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकम सित वैशाख की, जन्में कुन्थुजिनेश।
किया इंद्र वैभव सहित, सुरगिरि पर अभिषेक
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथै श्रीकुन्थुनाथजिनजन्मकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
इन्द्र सभी मिल आयके, किया कुन्थु पद सेव।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ
श्रीकुन्थुनाथजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगटा केवलज्ञान।
समवसरण में कुन्थुजिन, करें भव्य कल्याण।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां श्रीकुन्थुनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, तिथि निर्वाण पवित्र।
कुन्थुनाथ के पदकमल, जजतै बनूं पवित्र।।
दोहा
पंचकल्याणक अघ्र्य
(मण्डल पर पांच अघ्र्य)
अथ मण्डलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
दोहा
श्रावण वदि दशमी तिथी, गर्भ बसे भगवान।
इंद्र गर्भ मंगल किया, मैं पूजूं इत आन।।
ऊँ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां श्रीकुन्थुनाथजिनगर्भकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
एकम सित वैशाख की, जन्में कुन्थुजिनेश।
किया इंद्र वैभव सहित, सुरगिरि पर अभिषेक
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथै श्रीकुन्थुनाथजिनजन्मकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, दीक्षा ली जिनदेव।
इन्द्र सभी मिल आयके, किया कुन्थु पद सेव।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ
श्रीकुन्थुनाथजिनजिनदीक्षाकल्याणकाय अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल तिथि तीज में, प्रगटा केवलज्ञान।
समवसरण में कुन्थुजिन, करें भव्य कल्याण।।
ऊँ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां श्रीकुन्थुनाथजिनकेवलज्ञानकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सित एकम वैशाख की, तिथि निर्वाण पवित्र।
कुन्थुनाथ के पदकमल, जजतै बनूं पवित्र।।
ऊँ ह्रीं वैशाखशुक्लाप्रतिपत्तिथौ श्रीकुन्थुनाथजिनमोक्षकल्याणकाय
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णाघ्र्य (दोहा)
श्री तीर्थंकर कुन्थु जिन, करूणा के अवतार।
पूर्ण अघ्र्य से जजत ही, मिले सौख्य भंडार।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला
दोहा
हस्तिनागपुर में हुए, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, नमूं कुन्थु भगवान।।
त्रिभंगी छंद
पैंतिस गणधर मुनि साठ सहस, भाविता आर्यिका गणिनी थी।
सब साठ सहस त्रय शतपचास, संयतिकायें अघ हरणी थी।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएं, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।
शिखारिणी छंद
जयो कुंथूदेवा, नमन करता हूं चरण में।
करें भक्ती सेवा, सुरपपि सभी भक्तिवश तै ।।
तुम्हीं हो हे स्वामिन् सकल जग के त्राणकर्ता।
तुम्हीं हो हे स्वामिन् सकल जग के एक भर्ता।।
घुमाता मोहारी, चतुर्गति में सर्व जन को।
रूलाता ये बैरी, भुवनत्रय में एक सबको।।
तुम्हारे बिन स्वामिन् शरण नहिं कोई जगत में।
अतः कीजै रक्षा, सकल दुख से नाथ क्षण में।।
प्रभो मैं एकाकी, स्वजन नहिं कोई भुवन में।
स्वयं हूं शुद्धात्मा, अमल अविकारी अकल मैं।।
सदा निश्चयनय से, करमरज से शून्य रहता।
नहीं पाके निज को, स्वयं भव के दुःख सहता।।
प्रभो ऐसी शक्ति, मिले मुझको भक्ति वश से।
निजात्मा को कर लूं, प्रगट जिनकी युक्तिवश से।।
मिले निजकी संपत, रत्नत्रयमय नाथ मुझको।
यही है अभिलाषा, कृपा करके पूर्ण कर दो।।
दोहा
सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
जजें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।
दोहा
कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेंश।
केवल ’’ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।
अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्णाघ्र्य (दोहा)
श्री तीर्थंकर कुन्थु जिन, करूणा के अवतार।
पूर्ण अघ्र्य से जजत ही, मिले सौख्य भंडार।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथ पंचकल्याणकाय पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः।
जाप्य ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय नमः।
जयमाला
दोहा
हस्तिनागपुर में हुए, गर्भ जन्म तप ज्ञान।
सम्मेदाचल मोक्षथल, नमूं कुन्थु भगवान।।
त्रिभंगी छंद
पैंतिस गणधर मुनि साठ सहस, भाविता आर्यिका गणिनी थी।
सब साठ सहस त्रय शतपचास, संयतिकायें अघ हरणी थी।।
श्रावक दो लाख श्राविकाएं, त्रय लाख चिन्ह बकरा शोभे।
आयू पंचानवे सहस वर्ष, पैंतिस धनु तनु स्वर्णिम दीपे।।
शिखारिणी छंद
जयो कुंथूदेवा, नमन करता हूं चरण में।
करें भक्ती सेवा, सुरपपि सभी भक्तिवश तै ।।
तुम्हीं हो हे स्वामिन् सकल जग के त्राणकर्ता।
तुम्हीं हो हे स्वामिन् सकल जग के एक भर्ता।।
घुमाता मोहारी, चतुर्गति में सर्व जन को।
रूलाता ये बैरी, भुवनत्रय में एक सबको।।
तुम्हारे बिन स्वामिन् शरण नहिं कोई जगत में।
अतः कीजै रक्षा, सकल दुख से नाथ क्षण में।।
प्रभो मैं एकाकी, स्वजन नहिं कोई भुवन में।
स्वयं हूं शुद्धात्मा, अमल अविकारी अकल मैं।।
सदा निश्चयनय से, करमरज से शून्य रहता।
नहीं पाके निज को, स्वयं भव के दुःख सहता।।
प्रभो ऐसी शक्ति, मिले मुझको भक्ति वश से।
निजात्मा को कर लूं, प्रगट जिनकी युक्तिवश से।।
मिले निजकी संपत, रत्नत्रयमय नाथ मुझको।
यही है अभिलाषा, कृपा करके पूर्ण कर दो।।
दोहा
सूरसेन नृप के तनय, श्रीकांता के लाल।
जजें तुम्हें जो वे स्वयं, होते मालामाल।।
ऊँ ह्रीं श्रीकुन्थुनाथजिनेन्द्राय जयमाला पूर्णाघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा दिव्य पुष्पांजलिः।
दोहा
कामदेव चक्रीश प्रभु, सत्रहवें तीर्थेंश।
केवल ’’ज्ञानमती’’ मुझे, दो त्रिभुवन परमेश।।
भजन श्रेणी : जैन भजन (Read More : Jain Bhajan)
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Author - Saroj Jangir
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