श्री नमिनाथ जी भजन
श्री नमिनाथ जी भजन
भगवान श्री नमिनाथ जी जैन धर्म के इक्कीसवें तीर्थंकर थे। भगवान श्री नमिनाथ जी का जन्ममिथिला के इक्ष्वाकु वंश में श्रावण माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अश्विनी नक्षत्र में हुआ था। भगवान श्री नमिनाथ जी की माता का नाम विप्रा रानी देवी और पिता का नाम राजा विजय था। भगवान श्री नमिनाथ जी का प्रतीक चिन्ह नील कमल है। भगवान श्री नमिनाथ जी के शरीर का वर्ण सुवर्ण था। भगवान श्री नेमिनाथ चालीसा का पाठ करने से जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है, अर्थात मोक्ष की प्राप्ति होती है। भगवान श्री नेमिनाथ जी के अनुसार मोक्ष ही स्वर्ग का द्वार है। मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म के रास्ते को अपना कर लोगों का कल्याण करना चाहिए। भगवान श्री नेमिनाथ चालीसा का पाठ करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है।
सतत पूज्यनीय भगवान,
नमिनाथ जिन महिभावान।
भक्त करें जो मन में ध्याय,
पा जाते मुक्ति-वरदान।
जय श्री नमिनाथ जिन स्वामी,
वसु गुण मण्डित प्रभु प्रणमामि।
मिथिला नगरी प्रान्त बिहार,
श्री विजय राज्य करें हितकर।
विप्रा देवी महारानी थी,
रूप गुणों की वे खानि थी।
कृष्णाश्विन द्वितीया सुखदाता,
षोडश स्वप्न देखती माता।
अपराजित विमान को तजकर,
जननी उदर वसे प्रभु आकर।
कृष्ण असाढ़ दशमी सुखकार,
भूतल पर हुआ प्रभु-अवतार।
आयु सहस दस वर्ष प्रभु की,
धनु पन्द्रह अवगाहना उनकी।
तरुण हुए जब राजकुमार,
हुआ विवाह तब आनन्दकार।
एक दिन भ्रमण करें उपवन में,
वर्षा ऋतु में हर्षित मन में।
नमस्कार करके दो देव,
कारण कहने लगे स्वयमेव।
ज्ञात हुआ है क्षेत्र विदेह में,
भावी तीर्थंकर तुम जग में।
देवों से सुन कर ये बात,
राजमहल लौटे नमिनाथ।
सोच हुआ भव-भव ने भ्रमण का,
चिन्तन करते रहे मोचन का।
परम दिगम्बर व्रत करू अर्जन,
रत्तनत्रयधन करू उपार्जन।
सुप्रभ सुत को राज सौंपकर,
गए चित्रवन ने श्रीजिनवर।
दशमी असाढ़ मास की कारी,
सहस नृपति संग दीक्षाधारी।
दो दिन का उपवास धारकर,
आतम लीन हुए श्री प्रभुवर।
तीसरे दिन जब किया विहार,
भूप वीरपुर दे आहार।
नौ वर्षो तक तप किया वन में,
एक दिन मौलि श्री तरु तल में।
अनुभूति हुई दिव्याभास,
शुक्ल एकादशी मंगसिर मास।
नमिनाथ हुए ज्ञान के सागर,
ज्ञानोत्सव करते सुर आकर।
समोशरण था सभा विभूषित,
मानस्तम्भ थे चार सुशोभित।
हुआ मौनभंग दिव्य धवनि से,
सब दुख दूर हुए अवनि से।
आत्म पदार्थ से सत्ता सिद्ध,
करता तन ने 'अहम' प्रसिद्ध।
बाह्योन्द्रियों में करण के द्वारा,
अनुभव से कर्ता स्वीकारा।
पर-परिणति से ही यह जीव,
चतुर्गति में भ्रमे सदीव।
रहे नरक-सागर पर्यन्त,
सहे भूख-प्यास तिर्यन्च।
हुआ मनुज तो भी सक्लेश,
देवों मे भी ईष्या-द्वेष।
नही सुखों का कहीं ठिकाना,
सच्चा सुख तो मोक्ष में माना।
मोक्ष गति का द्वार है एक,
नरभव से ही पाये नेक।
सुन कर मगन हुए सब सुरगण,
व्रत धारण करते श्रावक जन।
हुआ विहार जहां भी प्रभु का,
हुआ वही कल्याण सभी का।
करते रहे विहार जिनेश,
एक मास रही आयु शेष।
शिखर सम्मेद के ऊपर जाकर,
प्रतिमा योग धरा हर्षा कर।
शुक्ल ध्यान की अग्नि प्रजारी,
हने अघाति कर्म दुखकारी।
अजर-अमर-शाश्वत पद पाया,
सुर-नर सबका मन हर्षाया।
शुभ निर्वाण महोत्सव करते,
कूट मित्रधर पूजन करते।
प्रभु हैं नीलकमल से अलंकृत,
हम हो उत्तम फल से उपकृत।
नमिनाथ स्वामी जगवन्दन,
'रमेश' करता प्रभु-अभिवन्दन।
भक्त करें जो मन में ध्याय,
पा जाते मुक्ति-वरदान।
जय श्री नमिनाथ जिन स्वामी,
वसु गुण मण्डित प्रभु प्रणमामि।
मिथिला नगरी प्रान्त बिहार,
श्री विजय राज्य करें हितकर।
विप्रा देवी महारानी थी,
रूप गुणों की वे खानि थी।
कृष्णाश्विन द्वितीया सुखदाता,
षोडश स्वप्न देखती माता।
अपराजित विमान को तजकर,
जननी उदर वसे प्रभु आकर।
कृष्ण असाढ़ दशमी सुखकार,
भूतल पर हुआ प्रभु-अवतार।
आयु सहस दस वर्ष प्रभु की,
धनु पन्द्रह अवगाहना उनकी।
तरुण हुए जब राजकुमार,
हुआ विवाह तब आनन्दकार।
एक दिन भ्रमण करें उपवन में,
वर्षा ऋतु में हर्षित मन में।
नमस्कार करके दो देव,
कारण कहने लगे स्वयमेव।
ज्ञात हुआ है क्षेत्र विदेह में,
भावी तीर्थंकर तुम जग में।
देवों से सुन कर ये बात,
राजमहल लौटे नमिनाथ।
सोच हुआ भव-भव ने भ्रमण का,
चिन्तन करते रहे मोचन का।
परम दिगम्बर व्रत करू अर्जन,
रत्तनत्रयधन करू उपार्जन।
सुप्रभ सुत को राज सौंपकर,
गए चित्रवन ने श्रीजिनवर।
दशमी असाढ़ मास की कारी,
सहस नृपति संग दीक्षाधारी।
दो दिन का उपवास धारकर,
आतम लीन हुए श्री प्रभुवर।
तीसरे दिन जब किया विहार,
भूप वीरपुर दे आहार।
नौ वर्षो तक तप किया वन में,
एक दिन मौलि श्री तरु तल में।
अनुभूति हुई दिव्याभास,
शुक्ल एकादशी मंगसिर मास।
नमिनाथ हुए ज्ञान के सागर,
ज्ञानोत्सव करते सुर आकर।
समोशरण था सभा विभूषित,
मानस्तम्भ थे चार सुशोभित।
हुआ मौनभंग दिव्य धवनि से,
सब दुख दूर हुए अवनि से।
आत्म पदार्थ से सत्ता सिद्ध,
करता तन ने 'अहम' प्रसिद्ध।
बाह्योन्द्रियों में करण के द्वारा,
अनुभव से कर्ता स्वीकारा।
पर-परिणति से ही यह जीव,
चतुर्गति में भ्रमे सदीव।
रहे नरक-सागर पर्यन्त,
सहे भूख-प्यास तिर्यन्च।
हुआ मनुज तो भी सक्लेश,
देवों मे भी ईष्या-द्वेष।
नही सुखों का कहीं ठिकाना,
सच्चा सुख तो मोक्ष में माना।
मोक्ष गति का द्वार है एक,
नरभव से ही पाये नेक।
सुन कर मगन हुए सब सुरगण,
व्रत धारण करते श्रावक जन।
हुआ विहार जहां भी प्रभु का,
हुआ वही कल्याण सभी का।
करते रहे विहार जिनेश,
एक मास रही आयु शेष।
शिखर सम्मेद के ऊपर जाकर,
प्रतिमा योग धरा हर्षा कर।
शुक्ल ध्यान की अग्नि प्रजारी,
हने अघाति कर्म दुखकारी।
अजर-अमर-शाश्वत पद पाया,
सुर-नर सबका मन हर्षाया।
शुभ निर्वाण महोत्सव करते,
कूट मित्रधर पूजन करते।
प्रभु हैं नीलकमल से अलंकृत,
हम हो उत्तम फल से उपकृत।
नमिनाथ स्वामी जगवन्दन,
'रमेश' करता प्रभु-अभिवन्दन।
भगवान श्री नमिनाथ जी का प्रभावशाली मंत्र
भगवान श्री नमिनाथ जी का चालीसा पाठ करने के साथ ही उनके मंत्र का जाप करना भी अत्यंत प्रभावशाली है।
भगवान श्री नेमिनाथ जी का मंत्र:
ॐ ह्रीं अर्ह श्री नमिनाथाय नम:।
भगवान श्री नेमिनाथ जी का मंत्र:
ॐ ह्रीं अर्ह श्री नमिनाथाय नम:।
Shri Naminath Jina Puna
श्री नमिनाथ-जिनेन्द्र नमूं विजयारथ-नंदन।
विख्यादेवी-मातु सहज सब पाप-निकंदन।।
अपराजित तजि जये मिथिलापुर वर आनंदन।
तिन्हें सु थापूं यहाँ त्रिधा करिके पद-वंदन।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(द्रुत विलम्बित)
सुर-नदी-जल उज्ज्वल पावनं, कनक-भृंग भरूं मन-भावनं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
हरि-मलय मिलि केशर सों घसूं, जगत्-नाथ भवातप को नसूं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
गुलक के सम सुन्दर तंदुलं, धरत पुंज सु भुंजत संकुलं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
कमल केतकी बेलि सुहावनी, समर-सूल समस्त नशावनी।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
शशि-सुधा-सम मोदक मोदनं, प्रबल दुष्ट छुधा-मद-खोदनं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
शुचि घृताश्रित दीपक जोइया, असम मोह-महातम खोइया।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
अमर-जिह्व-विषैं दश-गंध को, दहत दाहत कर्म के बंध को।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
फल सुपक्व मनोहर पावने, सकल विघ्न-समूह नशावने।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल-फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भव-भय-हरं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
गरभागम मंगलचारा, जुग-आश्विन-श्याम उदारा।
हरि हर्षि जजे पितु-माता, हम पूजें त्रिभुवन-त्राता।।
ॐ ह्रीं आश्विनकृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जनमोत्सव श्याम-असाढ़ा-दशमी दिन आनंद बाढ़ा।
हरि मंदर पूजें जार्इ, हम पूजें मन-वच-कार्इ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तप दुद्धर श्रीधर धारा, दशमी-कलि-षाढ़ उदारा।
निज-आतम-रस झर लायो, हम पूजत आनंद पायो।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-दशम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति. स्वाहा ।३।
सित-मंगसिर-ग्यारस चूरे, चव-घाति भये गुण पूरे।
समवस्रत केवलधारी, तुमको नित नौति हमारी।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
बैसाख-चतुर्दशि-श्यामा, हनि शेष वरी शिव-वामा।
सम्मेद-थकी भगवंता, हम पूजें सुगुन-अनंता।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(दोहा)
आयु सहस-दश-वर्ष की, हेम-वरन तन सार ।
धनुष-पंचदश-तुंग तन, महिमा अपरम्पार ।१।
जय-जय-जय नमिनाथ कृपाला, अरि-कुल-गहन-दहन दव-ज्वाला ।
जय-जय धरम-पयोधर धीरा, जय भव-भंजन गुन-गंभीरा ।२।
जय-जय परमानंद गुनधारी, विश्व-विलोकन जन-हितकारी ।
अशरन-शरन उदार जिनेशा, जय-जय समवसरन आवेशा ।३।
जय-जय केवलज्ञान प्रकाशी, जय चतुरानन हनि भव-फाँसी ।
जय त्रिभुवन-हित उद्यम-वंता, जय जय जय जय नमि भगवंता ।४।
जै तुम सप्त तत्त्व दरशायो, तास सुनत भवि निज-रस पायो ।
एक शुद्ध-अनुभव निज भाखे, दो विधि राग-दोष छै आखे ।५।
दो श्रेणी दो नय दो धर्मं, दो प्रमाण आगम-गुन शर्मं ।
तीन-लोक त्रयजोग तिकालं, सल्ल पल्ल त्रय वात बलालं ।६।
चार बंध संज्ञा गति ध्यानं, आराधन निछेप चउ दानं ।
पंचलब्धि आचार प्रमादं, बंध हेतु पैंताले सादं ।७।
गोलक पंचभाव शिव-भौनें, छहों दरब सम्यक् अनुकौने ।
हानि-वृद्धि तप समय समेता, सप्तभंग-वानी के नेता ।८।
संयम समुद्घात भय सारा, आठ करम मद सिध गुन-धारा ।
नवों लब्धि नव-तत्त्व प्रकाशे, नोकषाय हरि तूप हुलाशे ।९।
दशों बंध के मूल नशाये, यों इन आदि सकल दरशाये ।
फेर विहरि जग-जन उद्धारे, जय-जय ज्ञान-दरश अविकारे ।१०।
जय वीरज जय सूक्षमवंता, जय अवगाहन-गुण वरनंता ।
जय-जय अगुरुलघू निरबाधा, इन गुन-जुत तुम शिवसुख साधा ।११।
ता कों कहत थके गनधारी, तौ को समरथ कहे प्रचारी ।
ता तें मैं अब शरने आया, भव-दु:ख मेटि देहु शिवराया ।१२।
बार-बार यह अरज हमारी, हे! त्रिपुरारी हे! शिवकारी ।
पर-परणति को वेगि मिटावो, सहजानंद स्वरूप भिटावो ।१३।
‘वृंदावन’ जाँचत सिरनार्इ, तुम मम उर निवसो जिनरार्इ ।
जब लों शिव नहिं पावों सारा, तब लों यही मनोरथ म्हारा ।१४।
(घत्तानन्द छन्द)
जय-जय नमिनाथं हो शिव-साथं, औ अनाथ के नाथ सदं ।
ता तें सिर नाऊं, भगति बढ़ाऊं, चीन्ह चिह्न शतपत्र पदं ।१५।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
श्रीनमिनाथ तने जुगल, चरन जजें जो जीव।
सो सुर-नर-सुख भोगकर, होवें शिव-तिय-पीव।।
विख्यादेवी-मातु सहज सब पाप-निकंदन।।
अपराजित तजि जये मिथिलापुर वर आनंदन।
तिन्हें सु थापूं यहाँ त्रिधा करिके पद-वंदन।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(द्रुत विलम्बित)
सुर-नदी-जल उज्ज्वल पावनं, कनक-भृंग भरूं मन-भावनं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
हरि-मलय मिलि केशर सों घसूं, जगत्-नाथ भवातप को नसूं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
गुलक के सम सुन्दर तंदुलं, धरत पुंज सु भुंजत संकुलं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
कमल केतकी बेलि सुहावनी, समर-सूल समस्त नशावनी।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय कामबाण- विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
शशि-सुधा-सम मोदक मोदनं, प्रबल दुष्ट छुधा-मद-खोदनं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
शुचि घृताश्रित दीपक जोइया, असम मोह-महातम खोइया।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
अमर-जिह्व-विषैं दश-गंध को, दहत दाहत कर्म के बंध को।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
फल सुपक्व मनोहर पावने, सकल विघ्न-समूह नशावने।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल-फलादि मिलाय मनोहरं, अरघ धारत ही भव-भय-हरं।
जजत हूँ नमि के गुण गाय के, जुग-पदांबुज प्रीति लगाय के।।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
गरभागम मंगलचारा, जुग-आश्विन-श्याम उदारा।
हरि हर्षि जजे पितु-माता, हम पूजें त्रिभुवन-त्राता।।
ॐ ह्रीं आश्विनकृष्ण-द्वितीयायां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
जनमोत्सव श्याम-असाढ़ा-दशमी दिन आनंद बाढ़ा।
हरि मंदर पूजें जार्इ, हम पूजें मन-वच-कार्इ।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-दशम्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
तप दुद्धर श्रीधर धारा, दशमी-कलि-षाढ़ उदारा।
निज-आतम-रस झर लायो, हम पूजत आनंद पायो।।
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-दशम्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति. स्वाहा ।३।
सित-मंगसिर-ग्यारस चूरे, चव-घाति भये गुण पूरे।
समवस्रत केवलधारी, तुमको नित नौति हमारी।।
ॐ ह्रीं मार्गशीर्षशुक्लैकादश्यां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
बैसाख-चतुर्दशि-श्यामा, हनि शेष वरी शिव-वामा।
सम्मेद-थकी भगवंता, हम पूजें सुगुन-अनंता।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(दोहा)
आयु सहस-दश-वर्ष की, हेम-वरन तन सार ।
धनुष-पंचदश-तुंग तन, महिमा अपरम्पार ।१।
जय-जय-जय नमिनाथ कृपाला, अरि-कुल-गहन-दहन दव-ज्वाला ।
जय-जय धरम-पयोधर धीरा, जय भव-भंजन गुन-गंभीरा ।२।
जय-जय परमानंद गुनधारी, विश्व-विलोकन जन-हितकारी ।
अशरन-शरन उदार जिनेशा, जय-जय समवसरन आवेशा ।३।
जय-जय केवलज्ञान प्रकाशी, जय चतुरानन हनि भव-फाँसी ।
जय त्रिभुवन-हित उद्यम-वंता, जय जय जय जय नमि भगवंता ।४।
जै तुम सप्त तत्त्व दरशायो, तास सुनत भवि निज-रस पायो ।
एक शुद्ध-अनुभव निज भाखे, दो विधि राग-दोष छै आखे ।५।
दो श्रेणी दो नय दो धर्मं, दो प्रमाण आगम-गुन शर्मं ।
तीन-लोक त्रयजोग तिकालं, सल्ल पल्ल त्रय वात बलालं ।६।
चार बंध संज्ञा गति ध्यानं, आराधन निछेप चउ दानं ।
पंचलब्धि आचार प्रमादं, बंध हेतु पैंताले सादं ।७।
गोलक पंचभाव शिव-भौनें, छहों दरब सम्यक् अनुकौने ।
हानि-वृद्धि तप समय समेता, सप्तभंग-वानी के नेता ।८।
संयम समुद्घात भय सारा, आठ करम मद सिध गुन-धारा ।
नवों लब्धि नव-तत्त्व प्रकाशे, नोकषाय हरि तूप हुलाशे ।९।
दशों बंध के मूल नशाये, यों इन आदि सकल दरशाये ।
फेर विहरि जग-जन उद्धारे, जय-जय ज्ञान-दरश अविकारे ।१०।
जय वीरज जय सूक्षमवंता, जय अवगाहन-गुण वरनंता ।
जय-जय अगुरुलघू निरबाधा, इन गुन-जुत तुम शिवसुख साधा ।११।
ता कों कहत थके गनधारी, तौ को समरथ कहे प्रचारी ।
ता तें मैं अब शरने आया, भव-दु:ख मेटि देहु शिवराया ।१२।
बार-बार यह अरज हमारी, हे! त्रिपुरारी हे! शिवकारी ।
पर-परणति को वेगि मिटावो, सहजानंद स्वरूप भिटावो ।१३।
‘वृंदावन’ जाँचत सिरनार्इ, तुम मम उर निवसो जिनरार्इ ।
जब लों शिव नहिं पावों सारा, तब लों यही मनोरथ म्हारा ।१४।
(घत्तानन्द छन्द)
जय-जय नमिनाथं हो शिव-साथं, औ अनाथ के नाथ सदं ।
ता तें सिर नाऊं, भगति बढ़ाऊं, चीन्ह चिह्न शतपत्र पदं ।१५।
ॐ ह्रीं श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
(दोहा)
श्रीनमिनाथ तने जुगल, चरन जजें जो जीव।
सो सुर-नर-सुख भोगकर, होवें शिव-तिय-पीव।।
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श्री नमिनाथ चालीसा
-दोहा
तीर्थंकर नमिनाथ हैं, इक्किसवें तीर्थेश।
इनके चरणों में नमूँ, श्रद्धा-भक्ति समेत।।१।।
पूर्वाचार्यों को नमूँ, जिनका ज्ञान अपूर्व।
इनको नमने से मेरा, हो श्रुतज्ञान प्रपूर्ण।।२।।
हे माता! कमलासिनी, हंसवाहिनी मात!।
कृपा रखो मुझ पर सदा, है मुझमें अज्ञान।।३।।
श्री नमिनाथ जिनेश का, यह चालीसा पाठ।
पूरो होगा शीघ्र ही, पा तुम कृपाप्रसाद।।४।।
-दोहा
तीर्थंकर नमिनाथ हैं, इक्किसवें तीर्थेश।
इनके चरणों में नमूँ, श्रद्धा-भक्ति समेत।।१।।
पूर्वाचार्यों को नमूँ, जिनका ज्ञान अपूर्व।
इनको नमने से मेरा, हो श्रुतज्ञान प्रपूर्ण।।२।।
हे माता! कमलासिनी, हंसवाहिनी मात!।
कृपा रखो मुझ पर सदा, है मुझमें अज्ञान।।३।।
श्री नमिनाथ जिनेश का, यह चालीसा पाठ।
पूरो होगा शीघ्र ही, पा तुम कृपाप्रसाद।।४।।
Shri Naminath Ji Aarti in Hindi
श्री नमिनाथ जिनेश्वर प्रभु की, आरति है सुखकारी।
भव दु:ख हरती, सब सुख भरती, सदा सौख्य करतारी।।
प्रभू की जय .............।।टेक.।।
मथिला नगरी धन्य हो गई, तुम सम सूर्य को पाके,
मात वप्पिला, विजय पिता, जन्मोत्सव खूब मनाते,
इन्द्र जन्मकल्याण मनाने, स्वर्ग से आते भारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।१।।
शुभ आषाढ़ वदी दशमी, सब परिग्रह प्रभु ने त्यागा,
नम: सिद्ध कह दीक्षा धारी, आत्म ध्यान मन लागा,
ऐसे पूर्ण परिग्रह त्यागी, मुनि पद धोक हमारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।२।।
मगशिर सुदि ग्यारस प्रभु के, केवलरवि प्रगट हुआ था,
समवसरण शुभ रचा सभी, दिव्यध्वनि पान किया था,
हृदय सरोज खिले भक्तों के, मिली ज्ञान उजियारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।३।।
तिथि वैशाख वदी चौदस, निर्वाण पधारे स्वामी,
श्री सम्मेदशिखर गिरि है, निर्वाणभूमि कल्याणी,
उस पावन पवित्र तीरथ का, कण-कण है सुखकारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।४।।
हे नमिनाथ जिनेश्वर तव, चरणाम्बुज में जो आते,
श्रद्धायुत हों ध्यान धरें, मनवांछित पदवी पाते,
आश एक ‘‘चंदनामती’’ शिवपद पाऊँ अविकारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।५।।
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भव दु:ख हरती, सब सुख भरती, सदा सौख्य करतारी।।
प्रभू की जय .............।।टेक.।।
मथिला नगरी धन्य हो गई, तुम सम सूर्य को पाके,
मात वप्पिला, विजय पिता, जन्मोत्सव खूब मनाते,
इन्द्र जन्मकल्याण मनाने, स्वर्ग से आते भारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।१।।
शुभ आषाढ़ वदी दशमी, सब परिग्रह प्रभु ने त्यागा,
नम: सिद्ध कह दीक्षा धारी, आत्म ध्यान मन लागा,
ऐसे पूर्ण परिग्रह त्यागी, मुनि पद धोक हमारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।२।।
मगशिर सुदि ग्यारस प्रभु के, केवलरवि प्रगट हुआ था,
समवसरण शुभ रचा सभी, दिव्यध्वनि पान किया था,
हृदय सरोज खिले भक्तों के, मिली ज्ञान उजियारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।३।।
तिथि वैशाख वदी चौदस, निर्वाण पधारे स्वामी,
श्री सम्मेदशिखर गिरि है, निर्वाणभूमि कल्याणी,
उस पावन पवित्र तीरथ का, कण-कण है सुखकारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।४।।
हे नमिनाथ जिनेश्वर तव, चरणाम्बुज में जो आते,
श्रद्धायुत हों ध्यान धरें, मनवांछित पदवी पाते,
आश एक ‘‘चंदनामती’’ शिवपद पाऊँ अविकारी।
भव दुख..........।।प्रभू...........।।५।।
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