कबहूँ न करते बंदगी, दुनियाँ में भूले, आसमान को तकते, घोड़े बहु फूले। सबहिन के हम सभी हमारे, जीव जन्तु मोंहे लगे पियारे। तीनों लोक हमारी माया, अन्त कतहुँ से कोई नहिं पाया। छत्तिस पवन हमारी जाति, हमहीं दिन औ हमहीं राति। हमहीं तरवर कित पतंगा, हमहीं दुर्गा हमहीं गंगा। हमहीं मुल्ला हमहीं काजी, तीरथ बरत हमारी बाजी। हहिं दसरथ हमहीं राम, हमरै क्रोध औ हमरे काम। हमहीं रावन हमहीं कंस, हमहीं मारा अपना बंस।
कबहूँ न करते बंदगी, दुनिया में भूले। आसमान को ताकते, घोड़े चढ़ फूले॥ सबहिन के हम सबै हमारे। जीव जंतु मोहि लगैं पियारे॥ तीनों लोक हमारी माया। अंत कतहुँ से कोइ नहिं पाया॥ छत्तिस पवन हमारी जाति। हमहीं दिन औ हमहीं राति॥ हमहीं तरवर कीट पतंगा। हमहीं दुर्गा, हमहीं गंगा॥ हमहीं मुल्ला हमहीं काजी। तीरथ बरत हमारी बाजी॥ हमहीं दसरथ हमहीं राम। हमरै क्रोध औ हमरै काम॥ हमहीं रावन हमही कंस। हमहीं मारा अपना बंस॥
मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर में वैशाख कृष्ण पंचमी, संवत् १६३१ में हुआ था। उनकी मृत्यु १०८ वर्ष की आयु में संवत् १७३९ में हुई। मलूकदास को औरंगजेब के समय में निर्गुण मत के नामी संतों में माना जाता है और उनकी गद्दियाँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुल्तान, पटना, नैपाल और काबुल तक से मशहूर हुईं। उनके संबंध में कई चमत्कार और करामातें प्रसिद्ध हैं। कहा जाता है कि एक बार मलूकदास ने एक डूबते हुए शाही जहाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा लिया था और रुपयों का तोड़ा गंगाजी में तैराकर कड़ा से इलाहाबाद भेज दिया था।