सीताजी द्वारा कृत गौरी स्तुति Sitaji Dwara Krit Gouri Stuti Bhajan Lyrics

सीताजी द्वारा कृत गौरी स्तुति Sitaji Dwara Krit Gouri Stuti Bhajan Lyrics


सीताजी द्वारा कृत गौरी स्तुति Sitaji Dwara Krit Gouri Stuti Bhajan Lyrics

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति,
चली राखि उर स्यामल मूरति,
प्रभु जब जात जानकी जानी,
सुख सनेह सोभा गुन खानी।

भावार्थ:
शिवजी के धनुष को कठोर जानकर,
वे विसूरती/मन में विलाप करती हुई,
हृदय में श्री रामजी की,
सांवली मूर्ति को रखकर चलीं।
शिवजी के धनुष की कठोरता का,
स्मरण आने से उन्हें चिंता होती थी,
कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे,
पिता के प्रण की स्मृति से,
उनके हृदय में क्षोभ था ही,
इसलिए मन में विलाप करने लगीं।
प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही,
ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का,
स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं,
और साँवली छबि को हृदय में,
धारण करके चलीं।
प्रभु श्री रामजी ने जब सुख,
स्नेह शोभा और गुणों की खान,
श्री जानकीजी को जाती हुई जाना।

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही,
चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही,
गई भवानी भवन बहोरी,
बंदि चरन बोली कर जोरी।

भावार्थ:
तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर,
उनके स्वरूप को अपने सुंदर,
चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया।
सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं,
और उनके चरणों की वंदना करके,
हाथ जोड़कर बोलीं।

जय जय गिरिबरराज किसोरी,
जय महेस मुख चंद चकोरी,
जय गजबदन षडानन माता,
जगत जननि दामिनि दुति गाता।

भावार्थ:
हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की,
पुत्री पार्वती आपकी जय हो जय हो,
हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की,
ओर टकटकी लगाकर देखने वाली,
चकोरी आपकी जय हो,
हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और,
छह मुख वाले स्वामी कार्तिकजी की माता,
हे जगजननी हे बिजली की सी,
कान्तियुक्त शरीर वाली आपकी जय हो।

नहिं तव आदि मध्य अवसाना,
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना,
भव भव बिभव पराभव कारिनि,
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि।

भावार्थ:
आपका न आदि है न मध्य है,
और न अंत है,
आपके असीम प्रभाव को,
वेद भी नहीं जानते,
आप संसार को उत्पन्न,
पालन और नाश करने वाली हैं,
विश्व को मोहित करने वाली और,
स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं।

पतिदेवता सुतीय महुँ,
मातु प्रथम तव रेख,
महिमा अमित न सकहिं,
कहि सहस सारदा सेष।

भावार्थ:
पति को इष्टदेव मानने वाली,
श्रेष्ठ नारियों में हे माता,
आपकी प्रथम गणना है।
आपकी अपार महिमा को,
हजारों सरस्वती और शेषजी भी,
नहीं कह सकते।

चौपाई:
सेवत तोहि सुलभ फल चारी,
बरदायनी पुरारि पिआरी,
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे,
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे।

भावार्थ: हे भक्तों को मुँह माँगा वर देने वाली,
हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी,
आपकी सेवा करने से चारों फल,
सुलभ हो जाते हैं।
हे देवी आपके चरण कमलों की,
पूजा करके देवता,
मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं।

मोर मनोरथु जानहु नीकें,
बसहु सदा उर पुर सबही कें,
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं,
अस कहि चरन गहे बैदेहीं।

भावार्थ:
मेरे मनोरथ को आप भलीभांति जानती हैं,
क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी,
नगरी में निवास करती हैं।
इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया।
ऐसा कहकर जानकी जी ने,
उनके चरण पकड़ लिए।

बिनय प्रेम बस भई भवानी,
खसी माल मूरति मुसुकानी,
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ,
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ।

भावार्थ:
गिरिजाजी सीताजी के विनय और,
प्रेम के वश में हो गईं।
उन के गले की माला खिसक पड़ी,
और मूर्ति मुस्कुराई।
सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसादमाला,
को सिर पर धारण किया,
गौरीजी का हृदय हर्ष से,
भर गया और वे बोलीं।

सुनु सिय सत्य असीस हमारी,
पूजिहि मन कामना तुम्हारी,
नारद बचन सदा सुचि साचा,
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा।

भावार्थ:
हे सीता हमारी सच्ची आशीष सुनो,
तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी।
नारदजी का वचन सदा पवित्र,
संशय भ्रम आदि दोषों से,
रहित और सत्य है।
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है,
वही वर तुमको मिलेगा।

छन्द:
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो,
बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान,
सीलु सनेहु जानत रावरो।

एहि भाँति गौरि असीस सुनि,
सिय सहित हियँ हरषीं अली,
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि,
पुनि मुदित मन मंदिर चली।

भावार्थ:
जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है,
वही स्वभाव से ही सुंदर सांवला वर,
श्री रामचन्द्रजी तुमको मिलेगा।
वह दया का खजाना और सुजान सर्वज्ञ है,
तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है।
इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद,
सुनकर जानकीजी समेत,
सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं।
तुलसीदासजी कहते हैं,
भवानीजी को बार-बार पूजकर,
सीताजी प्रसन्न मन से,
राजमहल को लौट चली।

सोरठा:
जानि गौरि अनुकूल सिय,
हिय हरषु न जाइ कहि,
मंजुल मंगल मूल बाम,
अंग फरकन लगे।

भावार्थ:
गौरीजी को अनुकूल जानकर,
सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ,
वह कहा नहीं जा सकता।
सुंदर मंगलों के मूल उनके,
बाएं अंग फड़कने लगे।


सीताजी जी द्वारा कृत गौरी स्तुति मानसगान RamcharitManas


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जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥

भावार्थ:-शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिंता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाती हुई जाना,॥1॥
परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बंदि चरन बोली कर जोरी॥2॥

भावार्थ:-तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुंदर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मंदिर में गईं और उनके चरणों की वंदना करके हाथ जोड़कर बोलीं-॥2॥
जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

भावार्थ:-हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥
नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

भावार्थ:-आपका न आदि है, न मध्य है और न अंत है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतंत्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥
दोहा :
पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥

भावार्थ:-पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥235॥
चौपाई :
सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥

भावार्थ:-हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥
मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥

भावार्थ:-मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योंकि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड़ लिए॥2॥
बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥

भावार्थ:-गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥
सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥

भावार्थ:-हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥4॥
छन्द :
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

भावार्थ:-जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुंदर साँवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥
सोरठा :
 जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥236॥

भावार्थ:-गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुंदर मंगलों के मूल उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥

Jaani Kathin Sivchaap Bisurti,
Chali Rakhi Ur Syamal Murti,
Prabhu Jab Jaat Jaanki Jaani,
Sukh Sneh Sobha Gun Khani.

Bhaavaarth:

Shivji Ke Dhanush Ko Kathor Jaankar,
Ve Visurti (Mann Mein Vilaap Karti Hui),
Hriday Mein Shri Ramji Ki,
Saawli Murti Ko Rakhkar Chali.
Shivji Ke Dhanush Ki Kathorta Ka,
Smriti Aane Se Unhein Chinta Hoti Thi,
Ki Ye Sukumar Raghunathji Use Kaise Todenge,
Pita Ke Pran Ki Smriti Se,
Unke Hriday Mein Kshobh Tha Hi,
Isliye Mann Mein Vilaap Karne Lagi.
Premvash Aishwarya Ki Vismriti Ho Jaane Se Hi,
Aisa Hua, Phir Bhagwan Ke Bal Ka,
Smriti Aate Hi Ve Harshit Ho Gayi,
Aur Saawli Chhabi Ko Hriday Mein,
Dhaaran Karke Chali.
Prabhu Shri Ramji Ne Jab Sukh,
Sneh Shobha Aur Gunon Ki Khan,
Shri Jaankiji Ko Jaate Hue Jaana.

Param Premmay Mridu Masi Keenhi,
Chaaru Chitt Bheethi Likhi Leenhi,
Gayi Bhavani Bhavan Bahori,
Bandi Charan Boli Kar Jori.

Bhaavaarth:

Tab Param Prem Ki Komal Siyahi Banakar,
Unke Svaroop Ko Apne Sundar,
Chitt Roopi Bheeti Par Chitrit Kar Liya.
Sitaji Puna Bhavaniji Ke Mandir Mein Gayi,
Aur Unke Charanon Ki Vandana Karke,
Haath Jodkar Boli.

Jai Jai Giribarraj Kisori,
Jai Mahes Mukha Chand Chakori,
Jai Gajbadan Shadanan Mata,
Jagat Janani Dhamini Duti Gaata.

Bhaavaarth:

He Shreshth Parvaton Ke Raja Himalay Ki,
Putri Parvati Aapki Jai Ho Jai Ho,
He Mahadevji Ke Mukh Roopi Chandrama Ko,
Takne Wali Chakori Aapki Jai Ho,
He Haathi Ke Mukh Wale Ganeshji Aur,
Chheh Mukh Wale Swami Kartikji Ki Mata,
He Jagjanani He Bijli Ki Si,
Kaanti Yukt Shareer Wali Aapki Jai Ho.

Nahi Tav Aadi Madhya Avsaana,
Amit Prabhaav Ved Nahi Jaana,
Bhav Bhav Vibhav Paraabhav Kaarini,
Vishva Vimohini Svabas Vihaarini.

Bhaavaarth:

Aapka Na Aadi Hai Na Madhya Hai,
Aur Na Ant Hai,
Aapke Aseem Prabhaav Ko,
Ved Bhi Nahi Jaante,
Aap Sansaar Ko Utpann,
Paalan Aur Naash Karne Wali Hain,
Vishva Ko Mohit Karne Wali Aur,
Swatantra Roop Se Vihaar Karne Wali Hain.

Patidevta Sutiyan Mahu,
Maatu Pratham Tav Rekh,
Mahima Amit Na Sakahin,
Kahi Sahas Saarda Sesh.

Bhaavaarth:

Pati Ko Ishtadev Maanne Wali,
Shreshth Naariyon Mein He Mata,
Aapki Pratham Ganna Hai.
Aapki Apaar Mahima Ko,
Hazaaron Saraswati Aur Sheshji Bhi,
Nahi Keh Sakte.

Chaupai:
Sevat Tohi Sulabh Phal Chaari,
Baradaayini Purari Piyaari,
Devi Pooji Pad Kamal Tumhare,
Sur Nar Muni Sab Hohi Sukhaare.

Bhaavaarth:

He Bhakton Ko Mukh Maanga Var Dene Wali,
He Tripur Ke Shatru Shivji Ki Priya Patni,
Aapki Seva Karne Se Chaaron Phal,
Sulabh Ho Jaate Hain.
He Devi Aapke Charan Kamalon Ki,
Pooja Karke Devta,
Manushya Aur Muni Sabhi Sukhi Ho Jaate Hain.

Mor Manorathu Jaanahu Neeke,
Basahu Sada Ur Pur Sabhi Ke,
Kiinheu Pragat Na Kaaran Tehi,
As Kahi Charan Gahe Vaidehi.

Bhaavaarth:

Mere Manorath Ko Aap Bhaleebhaanti Jaanti Hain,
Kyonki Aap Sada Sabke Hriday Roopi,
Nagri Mein Nivaas Karti Hain.
Isi Kaaran Maine Usko Pragat Nahi Kiya.
Aisa Kehkar Jaanki Ji Ne,
Unke Charan Pakad Liye.

Binay Prem Bas Bhayi Bhavani,
Khasi Maal Murti Muskaani,
Saadar Siya Prasad Sir Dhareu,
Boli Gauri Harashu Hiyan Bhareu.

Bhaavaarth:

Girija Ji Sitaji Ke Vinay Aur,
Prem Ke Vash Mein Ho Gayi.
Unke Gale Ki Maala Khisak Padi,
Aur Murti Muskaai.
Sitaji Ne Aadar Poorvak Us Prasadmala,
Ko Sir Par Dhaaran Kiya,
Gauriji Ka Hriday Harsh Se,
Bhar Gaya Aur Ve Boli.

Sunu Siya Satya Asees Hamari,
Poojihi Mann Kaamna Tumhaari,
Narad Bachan Sada Suchi Saacha,
So Baru Milihi Jahi Mannu Raacha.

Bhaavaarth:

He Sita Hamari Sacchi Aashirvaad Suno,
Tumhaari Manokamna Poori Hogi.
Naradji Ka Vachan Sada Pavitr,
Sanshay Bhram Aadi Doshon Se,
Rahit Aur Satya Hai.
Jisme Tumhara Mann Anurakt Ho Gaya Hai,
Wahi Var Tumko Milega.

Chhand:
Mannu Jaahin Racheu Milihi So,
Baru Sahaj Sundar Saavaro.
Karuna Nidhan Sujaan,
Seel Sneh Jaanat Raavaro.

Bhaavaarth:

Jisme Tumhara Mann Anurakt Ho Gaya Hai,
Wahi Swabhav Se Hi Sundar Saawla Var,
Shri Ramchandraji Tumko Milega.
Woh Daya Ka Khazana Aur Sujaan Sarvagya Hai,
Tumhare Sheel Aur Sneh Ko Jaanta Hai.

Ehi Bhaanti Gauri Asees Suni,
Siy Sahit Hiyan Harshi Aali,
Tulsi Bhavani Pooji Puni,
Puni Mudit Mann Mandir Chali.

Bhaavaarth:

Is Prakaar Shri Gauriji Ka Aashirvaad,
Sunkar Jaankiji Sahit,
Sab Sakhiyan Hriday Mein Harshit Huyi.
Tulsidasji Kehte Hain,
Bhavaniji Ko Baar-Baar Poojkar,
Sitaji Prasann Mann Se,
Rajmahal Ko Laut Chali.

Soratha:
Jaani Gauri Anukool Siy,
Hiyan Harashu Na Jaai Kahi,
Manjul Mangal Mool Baam,
Ang Pharakan Lage.

Bhaavaarth:

Gauriji Ko Anukool Jaankar,
Sitaji Ke Hriday Ko Jo Harsh Hua,
Woh Kahaa Nahi Ja Sakta.
Sundar Mangalon Ke Mool Unke,
Baaye Ang Fadakne Lage.

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