एक दिन वो भोले भंडारी बन कर भजन

एक दिन वो भोले भंडारी बन कर के ब्रिज की नारी भजन

एक दिन वो भोले भंडारी
बनकर सुन्दर नारी,
गोकुल में आ गए हैं।
पार्वती ने मना किया तो,
ना माने त्रिपुरारी,
बिरज में आ गए हैं।

पार्वती से बोले भोले,
मैं भी चलूँगा तेरे संग मैं,
राधा संग श्याम नाचे,
मैं भी नाचूँगा तेरे संग में,
रास रचेगा ब्रज मैं भारी,
मुझे दिखाओ प्यारी,
बिरज में आ गए हैं।

ओ मेरे भोले स्वामी,
कैसे ले जाऊं अपने साथ में,
मोहन के सिवा वहाँ,
कोई पुरुष ना जाए रास में
हंसी करेगी ब्रज की नारी,
मानों बात हमारी,
वृंदावन आ गए हैं।

ऐसा सजा दो मुझे,
कोई ना जाने इस राज को,
मैं हूँ सहेली तेरी,
ऐसा बताना बृजराज को,
बना के जुड़ा पहन के साड़ी,
चाल चले मतवाली,
गोकुल में आ गए हैं।।

देखा मोहन ने ऐसा,
समझ गये वो सारी बात रे,
ऐसी बजाई बंसी,
सुध बुध भूले भोलेनाथ रे,
खिसक गयी जब सर से साड़ी,
मुस्काये गिरधारी,
बिरज में आ गए हैं।।

एक दिन वो भोला भंडारी,
बनकर सुन्दर नारी,
गोकुल में आ गए हैं।
पार्वती ने मना किया तो,
ना माने त्रिपुरारी,
बिरज में आ गए हैं।।

शिव जी को "भोला" या "भोलेनाथ" भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है "सरल स्वभाव वाला " या "सहज अरु निष्कपट"। ऐसा इसलिए है क्योंकि शिव को सांसारिक इच्छाओं और आसक्तियों की जटिलताओं से मुक्त माना जाता है, और वे शुद्ध चेतना और जागरूकता की स्थिति में रहने में सक्षम हैं।

"भोला" शब्द इस विचार को भी व्यक्त करता है कि शिव सुलभ और प्रसन्न करने में आसान हैं, क्योंकि उन्हें गहन भक्ति की आवश्यकता नहीं होती है। भक्तों कि सामाजिक स्थिति, आध्यात्मिक स्तर की परवाह किए बिना शिव जी इच्छाओं को पूरा करने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

इसके अतिरिक्त, "भोला" शब्द का प्रयोग अक्सर प्यार से शिव के साथ घनिष्ठ संबंध को व्यक्त करने के लिए किया जाता है। यह याद दिलाता है कि वह दूर या अलग नहीं है, बल्कि एक मित्रवत और सुलभ देवता है जो अपने अनुयायियों का मार्गदर्शन और सुरक्षा करने के लिए हमेशा मौजूद रहता है।


Ek Din Wo Bhola Bhandari Jaya Kishori एक दिन वो भोले भंडारी
 
 भोले भंडारी का मन इतना निर्मल है कि वे सृष्टि के रंग में रंगने को आतुर रहते हैं। सुंदर नारी का रूप धर, पार्वती के मना करने पर भी, वे गोकुल की गलियों में चले आए। यह उनकी सहजता है, जो उन्हें त्रिपुरारी से ब्रज का रसिक बना देती है। राधा-श्याम के रास में शामिल होने की उनकी उत्सुकता उस बच्चे सी है, जो खेल देखकर खुद को रोक न पाए।

पार्वती समझाती हैं कि रास में केवल गोपियाँ ही नाचती हैं, पुरुष का प्रवेश नहीं। पर भोले तो भोले, वे कहते हैं—मुझे ऐसी सज्जा दो कि कोई न पहचाने। साड़ी पहन, जुड़ा सजा, मतवाली चाल चलते वे गोपियों के बीच खो जाना चाहते हैं। यहाँ उनकी भक्ति और भोलेपन का मेल दिखता है—वे न तो नियमों से बँधते, न ही मर्यादाओं से डरते।

पर मोहन की नजर से क्या छिपा? उनकी बंसी की तान ने भोले को भी मंत्रमुग्ध कर दिया। जब साड़ी सरकी, तो गिरधारी की मुस्कान ने सारा राज खोल दिया। यह रास नहीं, प्रेम का मिलन है—जहाँ भोले और मोहन, भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। जैसे नदी सागर में समा जाती है, वैसे ही भोले का मन ब्रज की भक्ति में डूब गया। यह लीला सिखाती है कि सच्चा भक्त वही, जो प्रभु के रंग में बिना संकोच रंग जाए।
 
Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

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