मैं गिरधर के घर जाऊं गिरधर म्हांरो सांचो

मैं गिरधर के घर जाऊं गिरधर म्हांरो सांचो प्रीतम

मैं गिरधर के घर जाऊं।
गिरधर म्हांरो सांचो प्रीतम देखत रूप लुभाऊं॥
रैण पड़ै तबही उठ जाऊं भोर भये उठि आऊं।
रैन दिना वाके संग खेलूं ज्यूं त।ह्यूं ताहि रिझाऊं॥
जो पहिरावै सोई पहिरूं जो दे सोई खाऊं।
मेरी उणकी प्रीति पुराणी उण बिन पल न रहाऊं।
जहां बैठावें तितही बैठूं बेचै तो बिक जाऊं।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर बार बार बलि जाऊं॥ 

मैं गिरधर के घर जाऊं

मीरा बाई कहती हैं कि वह कृष्ण के घर जाना चाहती हैं। वह कृष्ण को अपना सच्चा प्रेमी मानती हैं और उनके रूप को देखकर मोहित हो जाती हैं। वह रात-दिन कृष्ण के साथ खेलना चाहती हैं और उन्हें खुश करना चाहती हैं। वह कृष्ण को जो भी पहनाते हैं, वह पहनती हैं और जो भी खाते हैं, वह खाती हैं। वह कृष्ण के बिना एक पल भी नहीं रह सकतीं। वह कृष्ण के हर आदेश का पालन करती हैं और उन्हें अपना सब कुछ अर्पित कर देती हैं।
 
प्रभु के प्रति प्रेम वह अनमोल बंधन है, जो हृदय को सदा उनकी शरण में ले जाता है। गिरधर का घर केवल एक स्थान नहीं, बल्कि वह अवस्था है जहाँ मन हर पल उनके रंग में रमा रहता है। उनका रूप निहारना, उनकी स्मृति में डूबना, ऐसा सुख है जो संसार के सारे आकर्षणों को फीका कर देता है। जैसे कोई प्रेमी अपने प्रिय की एक झलक के लिए तड़पता है, वैसे ही भक्त का मन हर क्षण प्रभु के दर्शन की चाह में व्याकुल रहता है।

यह प्रेम इतना गहरा है कि दिन-रात का भेद मिट जाता है। रात को उनकी पुकार सुनकर उठना, भोर में उनकी सेवा में जुट जाना, और हर पल उनके साथ रमना—यह भक्ति का वह स्वरूप है जो जीवन को प्रभु के खेल का हिस्सा बना देता है। जैसे कोई बच्चा अपने सखा के साथ खेल में मगन रहता है, वैसे ही भक्त प्रभु को रिझाने में अपनी सारी साधना लगा देता है। यह रिझाना माँग नहीं, बल्कि प्रेम का वह भाव है जो हर कार्य को प्रभु को समर्पित कर देता है।

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