ब्रजलीला लख जण सुख पावाँ

ब्रजलीला लख जण सुख पावाँ

ब्रजलीला लख जण सुख पावाँ
ब्रजलीला लख जण सुख पावाँ, ब्रजबणताँ सुखरासी।
णाच्याँ गावाँ ताल बजावाँ, पावाँ आणद हाँसी।
णन्द जसोदा पुन्न रो प्रगटह्याँ, प्रभु अविनासी।
पीताम्बर कट उर बैजणताँ, कर सोहाँ री बाँसी।।
मीराँ रे प्रभु गिरधरनागर, दरसण दीज्यो दासी।।

(गोकल रो=गोकुल का, जण=जन,प्रत्येक व्यक्ति, ब्रजबणताँ=ब्रज-वनिता,ब्रज की नारियाँ, सुखरासी= अपार सुख, णन्द=नन्द,कृष्ण के पिता, कट=कटि, बैजणताँ=बैजयन्ती माला, बाँसी=बाँसुरी, रे=के, नागर=चतुर)
 
ब्रज की लीलाओं को देख मन आनंद से भर जाता है, जैसे सुख का अथाह समंदर उमड़ पड़े। ब्रज की गोपियां नाचतीं, गातीं, ताल बजाती हैं, और हंसी-खुशी में डूब जाती हैं। नंद-यशोदा के पुण्य से अविनाशी प्रभु ने गोकुल में अवतार लिया। पीतांबर पहने, कमर पर बैजयंती माला सजाए, बांसुरी की मधुर तान से वे सबको मोह लेते हैं। मीरां का मन गिरधर के दर्शन को तरसता है, उनकी दासी बन उनकी एक झलक पाने को आतुर। यह भक्ति का वह रस है, जो प्रभु की लीलाओं में डूबकर आत्मा को परमानंद देता है।
 मेरो मनमोहना, आयो नहीं सखी री॥
कैं कहुं काज किया संतन का, कै कहुं गैल भुलावना॥
कहा करूं कित जाऊं मेरी सजनी, लाग्यो है बिरह सतावना॥
मीरा दासी दरसण प्यासी, हरिचरणां चित लावना॥

हरिनाम बिना नर ऐसा है। दीपकबीन मंदिर जैसा है॥ध्रु०॥
जैसे बिना पुरुखकी नारी है। जैसे पुत्रबिना मातारी है।
जलबिन सरोबर जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥१॥
जैसे सशीविन रजनी सोई है। जैसे बिना लौकनी रसोई है।
घरधनी बिन घर जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥२॥
ठुठर बिन वृक्ष बनाया है। जैसा सुम संचरी नाया है।
गिनका घर पूतेर जैसा है। हरिनम बिना नर ऐसा है॥३॥
कहे हरिसे मिलना। जहां जन्ममरणकी नही कलना।
बिन गुरुका चेला जैसा है। हरिनामबिना नर ऐसा है॥४॥
 
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