सतगुरु से मांगूं यही, मोहि गरीबी देहु।
दूर बडप्पन कीजिए, नान्हा ही कर लेहु॥
बचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज।
हीरा मोती नारि सुत सजन गेह गज बाज॥
प्रभु अपने सुख सूं कहेव, साधू मेरी देह।
उनके चरनन की मुझे प्यारी लागै खेह॥
प्रेमी को रिनिया रं यही हमारो सूल।
चारि मुक्ति दइ ब्याज मैं, दे न सकूं अब मूल॥
भक्त हमारो पग धरै, तहां धरूं मैं हाथ।
लारे लागो ही फिरूं, कबं न छोडूं साथ॥
प्रिथवी पावन होत है, सब ही तीरथ आद।
चरनदास हरि यौं कहैं, चरन धरैं जहं साध॥
मन मारे तन बस करै, साधै सकल सरीर।
फिकर फारि कफनी करै, ताको नाम फकीर॥
जग माहीं ऐसे रहो, ज्यों जिव्हा मुख माहिं।
घीव घना भच्छन करै, तो भी चिकनी नाहिं॥
चरनदास यों कहत हैं, सुनियो संत सुजान।
मुक्तिमूल आधीनता, नरक मूल अभिमान॥
सदगुरु शब्दी लागिया नावक का सा तीर।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर॥
सतगुरु से मांगूं यही, मोहि गरीबी देहु।
दूर बडप्पन कीजिए, नान्हा ही कर लेहु॥
सतगुरु से यही प्रार्थना है कि मुझे सादगी और विनम्रता मिले। अहंकार और बड़ेपन से दूर रखें और मुझे छोटा (विनम्र) बनाएं।
बचन लगा गुरुदेव का, छुटे राज के ताज।
हीरा मोती नारि सुत सजन गेह गज बाज॥
गुरु के वचनों का ऐसा प्रभाव हुआ कि राजा ने अपना ताज त्याग दिया। उसने धन-संपत्ति, परिवार और ऐश्वर्य सब कुछ छोड़ दिया।
प्रभु अपने सुख सूं कहेव, साधू मेरी देह।
उनके चरनन की मुझे प्यारी लागै खेह॥
प्रभु कहते हैं कि मेरा सुख मेरे साधु भक्त की सेवा में है। मुझे उनके चरणों की धूल भी प्रिय है।
प्रेमी को रिनिया रं यही हमारो सूल।
चारि मुक्ति दइ ब्याज मैं, दे न सकूं अब मूल॥
सच्चे प्रेमी का प्रेम मेरे लिए ऐसा कर्ज है, जिसे मैं ब्याज में चारों मुक्ति देकर भी पूरा नहीं कर सकता।
भक्त हमारो पग धरै, तहां धरूं मैं हाथ।
लारे लागो ही फिरूं, कबं न छोडूं साथ॥
जहां मेरा भक्त अपने पैर रखता है, वहीं मैं अपने हाथ रखता हूं। मैं उसके साथ-साथ चलता हूं और कभी उसका साथ नहीं छोड़ता।
प्रिथवी पावन होत है, सब ही तीरथ आद।
चरनदास हरि यौं कहैं, चरन धरैं जहं साध॥
जहां साधु के चरण पड़ते हैं, वहां धरती पवित्र हो जाती है। ऐसे स्थान सभी तीर्थों से अधिक पवित्र हो जाते हैं।
मन मारे तन बस करै, साधै सकल सरीर।
फिकर फारि कफनी करै, ताको नाम फकीर॥
जो अपने मन को वश में कर लेता है, शरीर को साध लेता है और चिंता छोड़कर फकीरी अपनाता है, वही सच्चा फकीर है।
जग माहीं ऐसे रहो, ज्यों जिव्हा मुख माहिं।
घीव घना भच्छन करै, तो भी चिकनी नाहिं॥
इस संसार में ऐसे रहो जैसे जीभ मुख के अंदर रहती है। घी और तेल खाने के बाद भी वह चिकनी नहीं होती।
चरनदास यों कहत हैं, सुनियो संत सुजान।
मुक्तिमूल आधीनता, नरक मूल अभिमान॥
चरनदास कहते हैं, हे संतों! सुनो, विनम्रता से मुक्ति मिलती है और अहंकार नरक का कारण बनता है।
सदगुरु शब्दी लागिया नावक का सा तीर।
कसकत है निकसत नहीं, होत प्रेम की पीर॥
सद्गुरु का वचन ऐसा तीर है जो प्रेम की पीड़ा देता है। यह तीर ऐसा लगता है कि निकलता नहीं और सदा हृदय में कसक बनाए रखता है।