मन निर्मल करने वाले कबीरदास जी के दोहे Kabir Ke Dohe Man Nirmal Karne Wale

मन निर्मल करने वाले कबीरदास जी के दोहे | दोहावली | कबीर दास के दोहे हिन्दी |

गुरु मिला तब जानिये, मिटै मोह तन ताप ।
हरष शोष व्यापे नहीं, तब गुरु आपे आप ॥

साबुन बिचारा क्या करे, गाँठे राखे मोय ।
जल सो अरसां नहिं, क्यों कर ऊजल होय ॥

सतगुरु को माने नही, अपनी कहै बनाय ।
कहै कबीर क्या कीजिये, और मता मन जाय ॥

मन निर्मल करने वाले कबीरदास जी के दोहे Kabir Ke Dohe Man Nirmal Karne Wale


भावार्थ : सच्चे गुरु के मिलाने पर ही मन और तन का ताप मिटता है। गुरु सच्चा कौन है ये साधक को तय करना है। दस बीस लोगों को अनुयायी बनाकर, भीड़ जुटाकर कोई भी गुरु होने का ढोंग कर सकता है लेकिन सच्चा गुरु कौन है ढूंढ पाना इतना आसान नहीं हैं। झूठ विज्ञापन ज्यादा करता है और सच एकांत में रहता है। ये दोनों की मूल प्रकृति हैं। सच्चा गुरु हमारे विषय विकारों को साबुन की धो देता है। यदि साबुन को गाठ में बांधकर रख छोड़ा है तो साबुन मेल को कैसे धो सकता है। साबुन तभी कारगर है जब हम उसे पानी के संपर्क में लाते हैं। इसी प्रकार यदि गुरु की शिक्षाओं पर अमल ही नहीं किया जाता है तो वे सब व्यर्थ हो जाती हैं।

कबीर का व्यक्ति के चरित्र निर्माण पर बल देना : कबीर संत थे, आध्यात्मिक गुरु थे, समाज सुधारक थे और सही मायनों में कबीर वो सब थे जो आज के समाज को सत्य की राह पर ला सके। कबीर ने व्यक्तिगत चरित्र निर्माण पर बल दिया और बताया की जो कुछ अच्छा और बुरा है हमारे अंदर है। मुर्ख इंसान दूसरों के अवगुणों को देखता है जबकि हमें हमारी बुराइयों को पहचान कर उसमें सुधार करना चाहिए। बाह्याचार से कुछ भला नहीं होने वाला। कबीर ने प्रेम को सर्वोपरि माना और बताया की बिना प्रेम के इंसान जानवर से भी बदतर है। मीठी वाणी को उन्होंने आभूषण बताया है और चारित्रिक निर्माण पर बल दिया । यही कारन है की कबीर आज भी प्रासंगिक हैं। 

सब ही भूमि बनारसी, सब नीर गंगा तोय।
ज्ञानी आतम राम है, जो निर्मल घट होय ॥
 
अर्थ: कबीर दास जी के इस दोहे में उन्होंने मन की निर्मलता पर जोर दिया है। वे कहते हैं कि जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी स्थान बनारस की तरह ही पवित्र हैं। जिसका मन निर्मल है, उसके लिए सभी जल गंगा की तरह निर्मल है। जिसका मन निर्मल है, वही राम रहते हैं।

कबीर दास जी यह समझाते हैं कि राम एक आध्यात्मिक अवधारणा हैं। वे एक स्थान या किसी विशेष वस्तु में नहीं रहते हैं। वे तो हमारे मन में ही रहते हैं। अगर हमारा मन निर्मल है, तो हम राम को अपने भीतर ही पा सकते हैं। कबीर दास जी यह भी कहते हैं कि अगर हमारा मन निर्मल नहीं है, तो हम तीर्थ यात्रा करने, गंगा में डुबकी लगाने या मंदिर में जाने से भी राम को नहीं पा सकते हैं। ये सब तो केवल बाहरी क्रियाएं हैं। इनसे हमारे भीतर के मन को शुद्ध नहीं किया जा सकता है।

इसलिए, कबीर दास जी कहते हैं कि हमें अपने मन को निर्मल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। अगर हमारा मन निर्मल होगा, तो हम राम को अपने भीतर पा लेंगे। कबीर दास जी के इस दोहे का संदेश यह है कि हमें अपने मन को निर्मल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। अगर हमारा मन निर्मल होगा, तो हम जीवन में सुख, शांति और आनंद प्राप्त कर सकते हैं। इस दोहे से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि बाहरी क्रियाओं से हमें कुछ नहीं मिलता है। हमें अपने भीतर की ओर ध्यान देना चाहिए और अपने मन को शुद्ध करना चाहिए।
 
कबीर मन निर्मल भया, जैसे गंगा नीर।
तो फिर पीछे हरी लागे, कहत कबीर कबीर।
 
अर्थ - कबीर दास जी के इस दोहे में उन्होंने मन की निर्मलता और भगवान की प्राप्ति के संबंध में एक महत्वपूर्ण बात कही है। वे कहते हैं कि अगर मन निर्मल हो जाए, तो भगवान स्वयं उसके पीछे लग जाते हैं। कबीर दास जी यह समझाते हैं कि भगवान एक आध्यात्मिक शक्ति हैं। वे हमारे बाहर नहीं हैं, बल्कि हमारे भीतर ही हैं। अगर हमारा मन निर्मल है, तो हम अपने भीतर भगवान को पा सकते हैं। कबीर दास जी का कहना है कि मन की निर्मलता के लिए हमें अपने मन से सभी तरह के विकार और बुराइयों को दूर करना होगा। हमें अपने मन को ईश्वर के प्रति समर्पित करना होगा। अगर हम ऐसा करेंगे, तो हमारा मन निर्मल हो जाएगा और हम भगवान को अपने भीतर पा लेंगे।

कबीर के दोहे का संदेश- कबीर दास जी के इस दोहे का संदेश यह है कि हमें अपने मन को निर्मल बनाने पर ध्यान देना चाहिए। अगर हमारा मन निर्मल होगा, तो हम भगवान को अपने भीतर पा सकते हैं। इस दोहे से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि भगवान को पाने के लिए हमें बाहरी क्रियाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं है। हमें अपने भीतर की ओर ध्यान देना चाहिए और अपने मन को शुद्ध करना चाहिए।

कबीर के दोहे का व्यावहारिक अनुप्रयोग- कबीर दास जी के इस दोहे का व्यावहारिक अनुप्रयोग यह है कि हमें अपने मन को निर्मल बनाने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए:- हमें अपने मन से सभी तरह के विकार और बुराइयों को दूर करना चाहिए। हमें अपने मन को ईश्वर के प्रति समर्पित करना चाहिए। हमें अपने मन को सकारात्मक विचारों और भावनाओं से भरना चाहिए। हमें अपने मन को ध्यान और योग के माध्यम से शुद्ध करना चाहिए। अगर हम इन बातों पर ध्यान देंगे, तो हमारा मन निर्मल हो जाएगा और हम भगवान को अपने भीतर पा सकते हैं। 
 
कबीर मन तो एक है, भावै तहाँ लगाव ।
भावै गुरु की भक्ति करूं, भावै विषय कमाव ।।
 
अनुवाद:  कबीर दास जी के इस दोहे में उन्होंने मन की एकता पर जोर दिया है। वे कहते हैं कि मन तो एक ही है, इसे हम कहीं भी लगा सकते हैं। अगर हम चाहते हैं कि हमारा मन अच्छे कार्यों में लगा रहे, तो हमें अपने मन को अच्छे कार्यों की ओर आकर्षित करना होगा। अगर हम चाहते हैं कि हमारा मन बुरे कार्यों में लगा रहे, तो हमें अपने मन को बुरे कार्यों की ओर आकर्षित करना होगा। कबीर दास जी का कहना है कि मन को किसी भी दिशा में लगाने की शक्ति हमें ही है। अगर हम अपने मन को अच्छे कार्यों में लगाएंगे, तो हम अच्छे बनेंगे। अगर हम अपने मन को बुरे कार्यों में लगाएंगे, तो हम बुरे बनेंगे।

कबीर दास जी के इस दोहे का संदेश यह है कि हमें अपने मन को अच्छे कार्यों में लगाना चाहिए। अगर हम अपने मन को अच्छे कार्यों में लगाएंगे, तो हम जीवन में सुख, शांति और आनंद प्राप्त कर सकते हैं। इस दोहे से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि हमारे कार्य हमारे मन को प्रभावित करते हैं। अगर हम अच्छे कार्य करते हैं, तो हमारा मन भी अच्छा बनता है। अगर हम बुरे कार्य करते हैं, तो हमारा मन भी बुरा बनता है। कबीर दास जी के इस दोहे का व्यावहारिक अनुप्रयोग यह है कि हमें अपने मन को अच्छे कार्यों की ओर आकर्षित करने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए:- हमें अपने मन में अच्छे विचारों और भावनाओं को भरना चाहिए। हमें अपने मन को अच्छे कार्यों में लगाने के लिए प्रेरित करना चाहिए। हमें अपने मन को बुरे कार्यों से दूर रखना चाहिए। अगर हम इन बातों पर ध्यान देंगे, तो हम अपने मन को अच्छे कार्यों में लगा पाएंगे और जीवन में सुख, शांति और आनंद प्राप्त कर पाएंगे।

कबीर मनहिं गयन्द है, अंकुश दै दै राखु ।
विष की बेली परिहारो, अमृत का फल चाखु ।।
 
अनुवाद:  कबीर दास जी के इस दोहे में उन्होंने मन की तुलना एक मस्ताने हाथी से की है। वे कहते हैं कि मन बहुत ही चंचल है। यह इधर-उधर भटकता रहता है। अगर हम अपने मन को नियंत्रित नहीं करते हैं, तो यह हमें बुरी दिशा में ले जा सकता है।

कबीर दास जी का कहना है कि मन को नियंत्रित करने के लिए हमें ज्ञान का अंकुश देना चाहिए। ज्ञान का अंकुश हमें अपने मन को बुरी चीजों से दूर रखने में मदद करता है। कबीर दास जी का कहना है कि हमें विषयों के विष से बचना चाहिए। विषय भोग हमें अशांति और दुख देते हैं। हमें ज्ञान का अमृत पीना चाहिए। ज्ञान हमें शांति और आनंद देता है। कबीर दास जी के इस दोहे का संदेश यह है कि हमें अपने मन को नियंत्रित करना चाहिए। अगर हम अपने मन को नियंत्रित कर सकते हैं, तो हम जीवन में सुख, शांति और आनंद प्राप्त कर सकते हैं। इस दोहे से हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि ज्ञान हमारे जीवन में बहुत ही महत्वपूर्ण है। ज्ञान हमें बुरी चीजों से बचाता है और हमें अच्छी चीजों की ओर ले जाता है।

मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।।
 
अनुवाद: इस दोहे में कबीर दास जी मन की चंचलता और अस्थिरता पर प्रकाश डालते हैं। वे कहते हैं कि मन के मन में अनेक विचार और भावनाएं उठती हैं। मन कभी एक बात कहता है, तो कभी दूसरी। इसलिए, मन के मत में चलना उचित नहीं है। जो मन को अपने अधीन कर लेता है, वह साधु कहलाता है। साधु वह है जो अपने मन को वश में कर लेता है और उसे अपने इच्छानुसार चलाता है। ऐसा व्यक्ति अपने जीवन में सफलता और सुख प्राप्त करता है।

इस दोहे का आशय यह है कि हमें अपने मन पर नियंत्रण रखना चाहिए। हमें अपने मन के अनुसार नहीं चलना चाहिए, बल्कि अपने मन को अपने अनुसार चलाना चाहिए। इस दोहे का व्यावहारिक जीवन में भी बहुत महत्व है। यदि हम अपने मन पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं, तो हम अपने जीवन में सफलता और सुख प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हम अपने मन के अधीन होकर गलत कार्यों में भी लिप्त हो सकते हैं। इसलिए, हमें अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए प्रयास करना चाहिए।

मन के मते न चलिये, मन के मते अनेक।
जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।।
 
अनुवाद: पहले चरण में कबीर साहेब हमें बताते हैं कि मन के मत में नहीं चलना चाहिए। मन के अनेको मत होते हैं, कभी वह हमें अच्छा करने के लिए प्रेरित करता है, तो कभी बुरा करने के लिए। इसलिए, मन के अनुसार चलने से हम भटक सकते हैं। दूसरे चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि जो मन को सदैव अपने अधीन रखता है, वह साधु कोई विरला ही होता है। मन को वश में करना बहुत ही कठिन कार्य है। इसके लिए हमें निरंतर अभ्यास और प्रयास की आवश्यकता होती है। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए। मन को वश में करने से ही हम सही मार्ग पर चल सकते हैं और अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

मन के मारे बन गये, बन तजि बस्ती माहिं।
कहैं कबीर क्या कीजिये, यह मन ठहरै नाहिं ।।
 
अनुवाद: कबीर के इस दोहे में मन की चंचलता और मन को वश में करने की कठिनाई पर प्रकाश डाला गया है। पहले चरण में कबीर साहेब बताते हैं कि मन की चंचलता के कारण लोग वन में चले जाते हैं। वन में वे सोचते हैं कि मन शांत हो जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होता। दूसरे चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन को वश में करना बहुत ही कठिन कार्य है। इसके लिए निरंतर अभ्यास और प्रयास की आवश्यकता होती है।
इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए। मन को वश में करने के लिए हमें निरंतर प्रयास करना चाहिए।

इस दोहे का एक अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि मन की चंचलता के कारण लोग भटक जाते हैं। वे कभी एक काम करते हैं, तो कभी दूसरा। इससे उन्हें कोई लाभ नहीं होता। इस अर्थ में, कबीर साहेब कहते हैं कि हमें अपने मन को एक दिशा में केंद्रित करना चाहिए। इससे हम अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
 
मन को मारूँ पटकि के, टूक टूक है जाय।
विष की क्यारी बोय के, लुनता क्यों पछिताय।।


अनुवाद: पहले चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन बहुत ही चंचल है। यह इधर-उधर भटकता रहता है। उसे पटक कर मारना भी मुश्किल है। दूसरे चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन की चंचलता के कारण हम बुरे कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। जब हम बुरे कार्यों के परिणामों को भोगते हैं, तो हमें पश्चाताप होता है। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए। मन को वश में करने के लिए हमें निरंतर प्रयास करना चाहिए। इस दोहे का एक अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि मन की चंचलता के कारण हम भटक जाते हैं। हम कभी एक काम करते हैं, तो कभी दूसरा। इससे हमें कोई लाभ नहीं होता। इस अर्थ में, कबीर साहेब कहते हैं कि हमें अपने मन को एक दिशा में केंद्रित करना चाहिए। इससे हम अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। 

मन दाता मन लालची, मन राजा मन रंक।
जो यह मन गुरु सों मिलै, तो गुरु मिलै निसंक ।।


अनुवाद: पहले चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन बहुत ही चंचल है। यह कभी दाता होता है, तो कभी लालची। कभी राजा होता है, तो कभी रंक।
दूसरे चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन को शुद्ध करके गुरु से मिलना चाहिए। यदि मन शुद्ध है, तो उसे गुरु पद मिल जाएगा। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। इस दोहे का एक अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि मन ही हमें सही मार्ग पर ले जाता है या गलत मार्ग पर ले जाता है। यदि मन शुद्ध है, तो वह हमें सही मार्ग पर ले जाता है। यदि मन अशुद्ध है, तो वह हमें गलत मार्ग पर ले जाता है।

इस अर्थ में, कबीर साहेब कहते हैं कि हमें अपने मन को शुद्ध करना चाहिए। मन को शुद्ध करने से ही हम सही मार्ग पर चल सकते हैं और अपने जीवन में सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

मनुवा तो पंछी भया, उड़ि के चला अकास ।
ऊपर ही ते गिरि पड़ा, मन माया के पास ।।


अनुवाद: पहले चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन एक पक्षी की तरह है। यह इधर-उधर भटकता रहता है। दूसरे चरण में कबीर साहेब कहते हैं कि मन जब भी कुछ अच्छा करने की कोशिश करता है, तो वह माया के प्रभाव से फिर से भटक जाता है। इस दोहे से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने मन पर नियंत्रण करना चाहिए। इस दोहे का एक अन्य अर्थ यह भी हो सकता है कि मन जब भी किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है, तो वह माया के प्रभाव से फिर से पीछे हट जाता है। इस अर्थ में, कबीर साहेब कहते हैं कि हमें अपने मन को दृढ़ रखना चाहिए। मन को दृढ़ रखने के लिए हमें निरंतर प्रयास करने चाहिए।

मन पंछी तब लग उड़ै, विषय वासना माहिं।
ज्ञान बाज के झपट में, तब लगि आवै नाहिं ।।


इस दोहे में संत कबीर दास जी मन की चंचलता और ज्ञान के महत्व को बता रहे हैं। वे कहते हैं कि मन रूपी पक्षी विषय-वासनाओं के पीछे-पीछे भागता रहता है, जब तक कि उसे ज्ञान रूपी बाज नहीं मिल जाता। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मन विषयों से दूर हो जाता है और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।

इस दोहे की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है:- मन रूपी पक्षी: मन एक अत्यंत चंचल शक्ति है। यह हर समय कुछ न कुछ करने की इच्छा रखता है। यह विषय-वासनाओं के पीछे-पीछे भागता रहता है।
विषय-वासनाएँ: विषय-वासनाएँ मन को मोहित करने वाली चीजें हैं। ये मन को भटकाने और पतन की ओर ले जाने का काम करती हैं।
ज्ञान रूपी बाज: ज्ञान एक शक्तिशाली शक्ति है। यह मन को विषय-वासनाओं से दूर करने में सक्षम है।
इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मन की चंचलता को दूर करने के लिए ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। ज्ञान प्राप्त हो जाने पर मन विषय-वासनाओं से दूर हो जाता है और परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर चल पड़ता है।

मनवा तो फूला फिरै, कहै जो करूँ धरम।
कोटि करम सिर पै चढ़े, चेति न देखे मरम ।।


अनुवाद: इस दोहे में संत कबीर दास जी मन की अज्ञानता और अहंकार को बता रहे हैं। वे कहते हैं कि मन अपने आप को धर्मात्मा समझकर फूला-फूला फिरता है। वह करोड़ों कर्मों के जाल में फंसा हुआ है, लेकिन वह अपनी करनी का रहस्य नहीं देख पाता है।

इस दोहे की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है:
मन का फूलना-फूलना: मन अपने आप को धर्मात्मा समझकर अहंकार में फंस जाता है। वह यह नहीं समझ पाता है कि वह अभी भी कर्मों के जाल में फंसा हुआ है।
करोड़ों कर्मों के जाल: मन करोड़ों कर्मों के जाल में फंसा हुआ है। ये कर्म उसे मोहित करते हैं और उसे परमात्मा की प्राप्ति से रोकते हैं।
करनी का रहस्य न देखना: मन अपनी करनी का रहस्य नहीं देख पाता है। वह यह नहीं समझ पाता है कि उसके कर्मों का क्या परिणाम होगा।

इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मन की अज्ञानता और अहंकार से बचना चाहिए। हमें अपनी करनी का रहस्य समझना चाहिए और अपने कर्मों को सही दिशा में लगाना चाहिए। यहाँ दोहे की व्याख्या को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है। एक व्यक्ति अपने आप को धर्मात्मा समझकर रोजाना मंदिर जाता है, दान देता है, और दूसरों की मदद करता है। वह सोचता है कि वह बहुत अच्छा काम कर रहा है, लेकिन वह यह नहीं समझ पाता है कि वह अभी भी अहंकार में फंसा हुआ है। वह यह नहीं समझ पाता है कि उसके कर्मों का क्या परिणाम होगा। हो सकता है कि वह अपने कर्मों के बल पर कुछ समय के लिए सुख-सुविधा प्राप्त कर ले, लेकिन अंत में उसे अपने कर्मों का फल भोगना होगा। इस प्रकार, हमें अपने कर्मों के पीछे का रहस्य समझना चाहिए और अपने कर्मों को सही दिशा में लगाना चाहिए।

मन की घाली हूँ गयी, मन की घालि जोऊँ।
सँग जो परी कुसंग के, हटै हाट बिकाऊँ ।।


अनुवाद: इस दोहे में संत कबीर दास जी मन की चंचलता और कुसंगति के प्रभाव को बता रहे हैं। वे कहते हैं कि मन के द्वारा पतित होकर पहले चौरासी में भ्रमित हुआ हूँ और मन के द्वारा भ्रम में पड़कर अब भी भ्रमित हूँ। कुसंगी मन-इन्द्रियों की संगत में पड़कर, चौरासी बाजार में बिक रहा हूँ। इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मन की चंचलता और कुसंगति से बचना चाहिए। हमें अपने मन को नियंत्रित करना चाहिए और बुरी संगति से दूर रहना चाहिए।

इस दोहे की व्याख्या को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है। एक व्यक्ति अपने मन के द्वारा वासनाओं के वशीभूत होकर बुरे काम करता है। वह अपने मन के द्वारा भ्रमित होकर चौरासी के मार्ग पर चल पड़ता है। वह कुसंगी मन-इन्द्रियों की संगत में पड़कर अपने जीवन को बर्बाद कर देता है।

महमंता मन मारि ले, घट ही माहीं घेर ।
जबही चालै पीठ दे, आँकुस दै दै फेर ।।


अनुवाद: आपने सही अनुवाद किया है। इस दोहे में संत कबीर दास जी मन की चंचलता और ज्ञान के महत्व को बता रहे हैं। वे कहते हैं कि मन को अन्तःकरण में ही घेर-घेरकर मार डालना चाहिए। जब भी मन भागने की कोशिश करे, तो ज्ञान के अंकुश से उसे वापस लाना चाहिए।
इस दोहे की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है:
महमंता मन: उन्मत्त मन।
घट ही माहीं घेर: अन्तःकरण में ही घेरना।
पीठ दे: ज्ञान के अंकुश से वापस लाना।
आँकुस दै दै फेर: बार-बार ज्ञान के अंकुश से वापस लाना।

इस दोहे से हमें यह शिक्षा मिलती है कि मन को नियंत्रित करना आवश्यक है। मन को अन्तःकरण में ही घेरकर मार डालना चाहिए। जब भी मन भागने की कोशिश करे, तो ज्ञान के अंकुश से उसे वापस लाना चाहिए।
इस दोहे को और स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया जा सकता है। एक व्यक्ति अपने मन को नियंत्रित करने के लिए ध्यान और योग का अभ्यास करता है। वह अपने मन को अन्तःकरण में ही घेरने की कोशिश करता है। जब भी उसका मन भटकने लगता है, तो वह ज्ञान के अंकुश से उसे वापस लाता है। इस प्रकार, हमें अपने मन को नियंत्रित करने के लिए ज्ञान और ध्यान का अभ्यास करना चाहिए।

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