रानी सती दादी मंगल पाठ द्वितीय स्कंध रानी सती दादी भजन Rani Sati Dadi Mangal Paath Dvitiya Skandha
ॐ श्री राणी सत्यै नमः श्री नारायणी चरित मानस
द्वितीय स्कन्ध
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,
स्वस्थैः स्मृता मति मतीव शुभां ददासि।
दारिद्रयदुःख भय हारिणी का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥।
द्वितीय स्कन्ध
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः,
स्वस्थैः स्मृता मति मतीव शुभां ददासि।
दारिद्रयदुःख भय हारिणी का त्वदन्या,
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता ॥।
भाषा टीका
माँ दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं, और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दुःख दरिद्रता और भय हरनेवाली देवी! आपके सिवा दूसरा कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिए सदा ही दयार्द्र रहता हो ॥ एक डोकवा गाँव सुहाना, पुरवासी हरि भगत सुजाना। गुरसामल व्यापार प्रधाना। वैश्य जाति का पुरुष सुजाना। विनयवान, सुंदर, गुणशीला। अंर्द्धांगिनी सुजान, सुशीला ।
दोहा
पत्नी सुलोचनी सुमुखी। पति में दृढ़ विश्वास।
पति अनुकूला प्रेम दृढ़। हरि पद अति विश्वास ॥1 ॥
चौपाई
अनधन के भण्डार भरे थे। सब विधि वैश्य भरे पूरे थे।
गौ, ब्राह्मण, गुरु की सेवा से। गुरसामल प्रसन्न थे मन से ॥
दयावान सुंदर मति धीरा। गौर वर्ण था पुष्ट शरीरा॥
मिर्ची का धंधा करते थे। संतों की सेवा करते थे ॥
दोहा
कथा सत्य भगवान की। घर बैठाई आय।
द्विज वर से सुनने लगे। दोनों चित लगाय 112 ॥
चौपाई
की आरती अति हर्षाकर। दरस दिया भगवन ने आकर ॥
शंख, चक्र, अरु गदा विराजे। कमल नाल इक हाथ में साजे ।
मोर मुकुट मणि जड़ित सुहाये। मृगलोचनि मूरत मन भाये ॥
गल वैजन्ती माल विराजे काँधे बीच जनेउ साजे ॥
विप्र चरण वक्षः स्थल सोहे। पीताम्बरी रूचिर मन मोहे ॥
कोटिक काम लजावन हारे। चकित भये दम्पति बिचारे ॥
हाथ जोड़कर वंदन कीन्हा। आशीर्वाद प्रभु ने दीन्हा॥
माँगहू जो मन भाय तुम्हारे। कुछ भी नहीं अदेय हमारे ॥
गुरसामल दोउ हाथ पसारी। बोले वचन सुनहुँ असुरारी ॥
सकल भाँति हम भये सुखारे । दर्शन कर भगवंत तुम्हारे ॥
हाथ जोड़ बोली सेठानी। परम प्रसन्न प्रभु को जानी ॥
आशा एक यही असुरारी। बालक खेले गोद हमारी ।
एवमस्तु कह कृपा निधाना। दम्पति हृदय परम सुख माना ॥
महाभारत सब कथा सुनाई। जनमेगी कन्या घर आई ।
आशीर्वाद देय भगवंता। अंतर्ध्यान भये श्रीकंता ॥
सुदिन सुमंगल अवसरु आनी। गर्भ कियो धारण सेठानी ॥
जब नारायणी गर्भहिं आई। मन में मात बहुत हरषाई ॥
गुरसामल भी अति हरषाये। विप्र बुला सस्नेह जिमाये ॥
सब प्रकार विग्रन्ह को खुश कर। द्विज आशीष लई जी भरकर ॥
बहु प्रकार दक्षिण दिवाई। ब्राह्मण विदा किये सिरुनाई ॥
एहि विधि कछुक काल चलि गयऊ। प्रगट भवानी अवसर भयऊ ।
सम्वत् तेरह सौ अड़तीसा। परम पुनीत पवन सुत दिवसा ॥
बीत गई अष्टमी सुहाई। कार्तिक शुक्ला नवमी आई ॥
मध्य निशा की बेला आई। प्रगट भई नारायणी बाई ॥
बरसई सुमन जय ध्वनि छाई भेर दुन्दुभी गगन सुहाई ॥
छंद
भई प्रगट भवानी सब गुणखानी। रूप राशि अरू तेज लिए ॥
भक्तन सुखराशी घट-घट वासी। मुख पर तेज प्रकाश लिए ॥
माता हरषाई दासी बुलाई। गुरसामल को खबर करी ॥
कन्या जब देखी रूप विशेषी मन में बहुत उमंग भरी ॥
नरनारी डोकवा ग्राम निवासी सब मिल जय जयकार करी ॥
कर विनय विशाला देव कृपाला। सुमन वृष्टि नभ जाय करी ॥
नर वेष बनाकर देवन्ह आये। दे दर्शन आशीष दई ।
कलयुग में सत की देवी है। शिव शंकर ने आशीष दई ।
की आरती अति हर्षाकर। दरस दिया भगवन ने आकर ॥
शंख, चक्र, अरु गदा विराजे। कमल नाल इक हाथ में साजे ।
मोर मुकुट मणि जड़ित सुहाये। मृगलोचनि मूरत मन भाये ॥
गल वैजन्ती माल विराजे काँधे बीच जनेउ साजे ॥
विप्र चरण वक्षः स्थल सोहे। पीताम्बरी रूचिर मन मोहे ॥
कोटिक काम लजावन हारे। चकित भये दम्पति बिचारे ॥
हाथ जोड़कर वंदन कीन्हा। आशीर्वाद प्रभु ने दीन्हा॥
माँगहू जो मन भाय तुम्हारे। कुछ भी नहीं अदेय हमारे ॥
गुरसामल दोउ हाथ पसारी। बोले वचन सुनहुँ असुरारी ॥
सकल भाँति हम भये सुखारे । दर्शन कर भगवंत तुम्हारे ॥
हाथ जोड़ बोली सेठानी। परम प्रसन्न प्रभु को जानी ॥
आशा एक यही असुरारी। बालक खेले गोद हमारी ।
एवमस्तु कह कृपा निधाना। दम्पति हृदय परम सुख माना ॥
महाभारत सब कथा सुनाई। जनमेगी कन्या घर आई ।
आशीर्वाद देय भगवंता। अंतर्ध्यान भये श्रीकंता ॥
सुदिन सुमंगल अवसरु आनी। गर्भ कियो धारण सेठानी ॥
जब नारायणी गर्भहिं आई। मन में मात बहुत हरषाई ॥
गुरसामल भी अति हरषाये। विप्र बुला सस्नेह जिमाये ॥
सब प्रकार विग्रन्ह को खुश कर। द्विज आशीष लई जी भरकर ॥
बहु प्रकार दक्षिण दिवाई। ब्राह्मण विदा किये सिरुनाई ॥
एहि विधि कछुक काल चलि गयऊ। प्रगट भवानी अवसर भयऊ ।
सम्वत् तेरह सौ अड़तीसा। परम पुनीत पवन सुत दिवसा ॥
बीत गई अष्टमी सुहाई। कार्तिक शुक्ला नवमी आई ॥
मध्य निशा की बेला आई। प्रगट भई नारायणी बाई ॥
बरसई सुमन जय ध्वनि छाई भेर दुन्दुभी गगन सुहाई ॥
छंद
भई प्रगट भवानी सब गुणखानी। रूप राशि अरू तेज लिए ॥
भक्तन सुखराशी घट-घट वासी। मुख पर तेज प्रकाश लिए ॥
माता हरषाई दासी बुलाई। गुरसामल को खबर करी ॥
कन्या जब देखी रूप विशेषी मन में बहुत उमंग भरी ॥
नरनारी डोकवा ग्राम निवासी सब मिल जय जयकार करी ॥
कर विनय विशाला देव कृपाला। सुमन वृष्टि नभ जाय करी ॥
नर वेष बनाकर देवन्ह आये। दे दर्शन आशीष दई ।
कलयुग में सत की देवी है। शिव शंकर ने आशीष दई ।
एहि भाँति जन्म उत्सव भयो भारी। निज-निज धाम सभी आये ।
यह चरित जे गावहिं सतीपद पावहि। 'रमाकांत' मस्तक नाये ॥
भई प्रगट भवानी सब गुणखानी। रूप राशि अरु तेज लिए ॥
दोहा
गृह-गृह बाज बधाव शुभ, प्रगट भई सती मात ।
हरषवंत सब नारी नर, प्रेम न हृदय समात ॥3॥
(भजन माला-३)
चौपाई
गुरसामल मन में हरषाये। अन धन वस्त्र खूब बँटवाये ॥
थी सन्तान प्रथम दम्पति के दिये जलाये घर में घी के ॥
सुंदर सुता लखी महतारी तेरे मुख पर मैं बलिहारी ॥
डोकवा गाँव के लोग लुगाई। देखि सुकन्या खुशी मनाई ॥
समय जानि द्विज आयसु दीन्हा। चूड़ाकरण कर्म सब कीन्हा॥
नामकरण कर अवसर जानी। वैश्य बोलि पठये द्विज ज्ञानी ॥
कन्या के है नाम अनेका। परम विचित्र एक से एका ॥
तदापि नाम इक कहऊँ बखानी। सुंदर नाम धरो 'नारायणी' ॥
अमर सुहागन सुता तुम्हारी। वैश्य न झूठी बात हमारी॥
यह चरित जे गावहिं सतीपद पावहि। 'रमाकांत' मस्तक नाये ॥
भई प्रगट भवानी सब गुणखानी। रूप राशि अरु तेज लिए ॥
दोहा
गृह-गृह बाज बधाव शुभ, प्रगट भई सती मात ।
हरषवंत सब नारी नर, प्रेम न हृदय समात ॥3॥
(भजन माला-३)
चौपाई
गुरसामल मन में हरषाये। अन धन वस्त्र खूब बँटवाये ॥
थी सन्तान प्रथम दम्पति के दिये जलाये घर में घी के ॥
सुंदर सुता लखी महतारी तेरे मुख पर मैं बलिहारी ॥
डोकवा गाँव के लोग लुगाई। देखि सुकन्या खुशी मनाई ॥
समय जानि द्विज आयसु दीन्हा। चूड़ाकरण कर्म सब कीन्हा॥
नामकरण कर अवसर जानी। वैश्य बोलि पठये द्विज ज्ञानी ॥
कन्या के है नाम अनेका। परम विचित्र एक से एका ॥
तदापि नाम इक कहऊँ बखानी। सुंदर नाम धरो 'नारायणी' ॥
अमर सुहागन सुता तुम्हारी। वैश्य न झूठी बात हमारी॥
रूप राशि शोभा की खानी। गुरसामल तेरी नारायणी ॥
जग में ऊँचा नाम करेगी। भक्तों के भण्डार भरेगी ॥
एहि विधि बहुत देहि आशीषा। विप्र गवन कीन्हों निज देशा ॥
दोहा
सब विधि सबहिं प्रसन्न करी, दम्पति परम सुजान।
सुता, प्रेम, हरि भक्ति में, लगा दियो निज ध्यान ॥4॥
चौपाई
एक बार कियो चरित अपारा। पाय न सकी मात भी पारा ॥
दूध पिलाय रही थी माता। सुन्यो मात बछड़ा रंभाता ॥
बछड़ा गाय एक संग देखी। दूध पिलाती गैया देखी ॥
छोड़ बालिका माता धाई। बछड़ा गाय तुरत छुड़ाई ॥
माता अचरज में घिर आई। केवल थे बछड़ा नहीं गाई ॥
उधर बालिका रूदन मचाये। वांय वांय कह मात बुलाये ॥
तुरन्त मात शिशु पहिं जब आई। दूध जले की गंध समाई ॥
पटक शिशु को माता धाई। आगी जाकर तुरत बुझाई।
दूध पड्यो ठंडो मेरी माई। गंध जले की कैसे आई ॥
तुरत सती अग्नि प्रगटाई। डर गई माता होश गँवाई ॥
जग में ऊँचा नाम करेगी। भक्तों के भण्डार भरेगी ॥
एहि विधि बहुत देहि आशीषा। विप्र गवन कीन्हों निज देशा ॥
दोहा
सब विधि सबहिं प्रसन्न करी, दम्पति परम सुजान।
सुता, प्रेम, हरि भक्ति में, लगा दियो निज ध्यान ॥4॥
चौपाई
एक बार कियो चरित अपारा। पाय न सकी मात भी पारा ॥
दूध पिलाय रही थी माता। सुन्यो मात बछड़ा रंभाता ॥
बछड़ा गाय एक संग देखी। दूध पिलाती गैया देखी ॥
छोड़ बालिका माता धाई। बछड़ा गाय तुरत छुड़ाई ॥
माता अचरज में घिर आई। केवल थे बछड़ा नहीं गाई ॥
उधर बालिका रूदन मचाये। वांय वांय कह मात बुलाये ॥
तुरन्त मात शिशु पहिं जब आई। दूध जले की गंध समाई ॥
पटक शिशु को माता धाई। आगी जाकर तुरत बुझाई।
दूध पड्यो ठंडो मेरी माई। गंध जले की कैसे आई ॥
तुरत सती अग्नि प्रगटाई। डर गई माता होश गँवाई ॥
दोहा
एहि विधि चरित अनेक कर, बचपन लियो बुलाय ।
पाँच बरस की उमर में, विद्या पढ़ने जाय ॥5॥
(भजन माला-4)
चौपाई
गुरु गृह जाई गणेश मनाई। लगी पढ़न शारद सिरु नाई ॥
जो-जो गुरु अनुशासन दीन्हा। तुरत सीख नारायणी लीन्हा ॥
आप सीख सखियन समुझाये। भाँति-भाँति के ज्ञान बताये ॥
चारों वेद तुरत पढ़ डारे। भगवद् गीता के गुण सारे ॥
विद्या पढ़ गुरु शीश नवाई। नारायणी अपने घर आई ।
एक चरित मैं कहुँ बखानी। जेहि विधि डाकिन दूर भगानी ॥
डाकिनी एक गाँव में आई। छोटे बालक हर ले जाई ॥
नर-नारी थे बहुत दुखारी। नारायणी ने बात विचारी ॥
अंधी कर डाकिनी भगाई। सुखी भये सब लोग लुगाई |
मात-पिता आज्ञा अनुसरही। नाना विधि पूजा नित करही ॥
विष्णु सहस्त्रजपे नितनामा। नित उठकर पितुमात प्रणामा ॥
बाल्मीकि, तुलसी, रामायण। नियमित करती थी पारायण ॥
पूर्व जन्म कथा चित आई। जब महाभारत ग्रंथ उठाई।
सुमिरि कथा व्याकुलता जागी मन में ज्योति सत्य की जागी ॥
नाशवान नहिं आनी जानी हुयो ज्ञान मन में नारायणी ॥
दोहा
जालीराम दीवान हैं, उनके घर में जाय ॥
अभिमन्यु ने जन्म लिया, तनधन नाम धराय ॥6॥
चौपाई
पति पहचान चित हरषाया। पार्वती का ध्यान लगाया ॥
गणपति मात, प्रिया शंकर की। आशा पूर्ण करो मेरे मन की ॥
माता आस यही है मन की। जन्म-जन्म दासी तनधन की ॥
प्रगट होय दर्शन सती दीन्हा। सिर पर हाथ फेर वर दीन्हा॥
नारायणी आशीष हमारी पूजहिं मनोकामना थारी ॥
सतयुग सावित्री प्रगटाई। त्रेता सीता सती कहाई॥
एहि प्रकार कलयुग के मांई ॥ नारायणी तेरा नाम सुहाई ॥
आशीर्वाद देय कर अम्बा। अन्तधर्यान भई जगदम्बा ॥
मन भावति आशीषा पाई। हरि भक्ति में चित लगाई ॥
कार्य करे नित मंगलकारी। मात-पिता लखि होय सुखारी ॥
जेहि विधि होई सुखी पुरवासी। वही चरित करती सुखराशि ॥
नारायणी ने कला दिखाई। सुख सम्पति घर-घर में छाई ॥
दोहा
एहि प्रकार बचपन गया।
कन्या हुई किशोर गुरसामल
ढूँढन लगे, सुंदर वर चहूँ ओर 117 ||
जनम चरित जो नित पढ़े, सती पद शीश नवाय।
पुत्र, पौत्र, जस, धन बढ़े, 'रमाकांत' जस गाय ॥18॥
एहि विधि चरित अनेक कर, बचपन लियो बुलाय ।
पाँच बरस की उमर में, विद्या पढ़ने जाय ॥5॥
(भजन माला-4)
चौपाई
गुरु गृह जाई गणेश मनाई। लगी पढ़न शारद सिरु नाई ॥
जो-जो गुरु अनुशासन दीन्हा। तुरत सीख नारायणी लीन्हा ॥
आप सीख सखियन समुझाये। भाँति-भाँति के ज्ञान बताये ॥
चारों वेद तुरत पढ़ डारे। भगवद् गीता के गुण सारे ॥
विद्या पढ़ गुरु शीश नवाई। नारायणी अपने घर आई ।
एक चरित मैं कहुँ बखानी। जेहि विधि डाकिन दूर भगानी ॥
डाकिनी एक गाँव में आई। छोटे बालक हर ले जाई ॥
नर-नारी थे बहुत दुखारी। नारायणी ने बात विचारी ॥
अंधी कर डाकिनी भगाई। सुखी भये सब लोग लुगाई |
मात-पिता आज्ञा अनुसरही। नाना विधि पूजा नित करही ॥
विष्णु सहस्त्रजपे नितनामा। नित उठकर पितुमात प्रणामा ॥
बाल्मीकि, तुलसी, रामायण। नियमित करती थी पारायण ॥
पूर्व जन्म कथा चित आई। जब महाभारत ग्रंथ उठाई।
सुमिरि कथा व्याकुलता जागी मन में ज्योति सत्य की जागी ॥
नाशवान नहिं आनी जानी हुयो ज्ञान मन में नारायणी ॥
दोहा
जालीराम दीवान हैं, उनके घर में जाय ॥
अभिमन्यु ने जन्म लिया, तनधन नाम धराय ॥6॥
चौपाई
पति पहचान चित हरषाया। पार्वती का ध्यान लगाया ॥
गणपति मात, प्रिया शंकर की। आशा पूर्ण करो मेरे मन की ॥
माता आस यही है मन की। जन्म-जन्म दासी तनधन की ॥
प्रगट होय दर्शन सती दीन्हा। सिर पर हाथ फेर वर दीन्हा॥
नारायणी आशीष हमारी पूजहिं मनोकामना थारी ॥
सतयुग सावित्री प्रगटाई। त्रेता सीता सती कहाई॥
एहि प्रकार कलयुग के मांई ॥ नारायणी तेरा नाम सुहाई ॥
आशीर्वाद देय कर अम्बा। अन्तधर्यान भई जगदम्बा ॥
मन भावति आशीषा पाई। हरि भक्ति में चित लगाई ॥
कार्य करे नित मंगलकारी। मात-पिता लखि होय सुखारी ॥
जेहि विधि होई सुखी पुरवासी। वही चरित करती सुखराशि ॥
नारायणी ने कला दिखाई। सुख सम्पति घर-घर में छाई ॥
दोहा
एहि प्रकार बचपन गया।
कन्या हुई किशोर गुरसामल
ढूँढन लगे, सुंदर वर चहूँ ओर 117 ||
जनम चरित जो नित पढ़े, सती पद शीश नवाय।
पुत्र, पौत्र, जस, धन बढ़े, 'रमाकांत' जस गाय ॥18॥
रानी सती दादी मंगल पाठ || द्वितीय स्कंध || ऋषि कुमार शर्मा
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Author - Saroj Jangir
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