जानंता बुझा नहीं बुझि लिया नहि गौन हिंदी मीनिंग कबीर के दोहे

जानंता  बुझा नहीं बुझि लिया नहि गौन हिंदी मीनिंग Janta Bujha Nahi Bujhi Liya Nahi Gon Hindi Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Meaning


जानंता  बुझा नहीं बुझि लिया नहि गौन।
अंधे को अंधा मिला, राह बतावे कौन॥  
 
Jaananta  Bujha Nahin Bujhi Liya Nahi Gaun.
Andhe Ko Andha Mila, Raah Bataave Kaun. 
 
जानंता बुझा नहीं बुझि लिया नहि गौन हिंदी मीनिंग Janta Bujha Nahi Bujhi Liya Nahi Gon Hindi Meaning

दोहे का हिंदी मीनिंग: जो विषय का जानकार है, जिसे समझ है और जो ज्ञान दे सकता है, उस गुरु से कभी ज्ञान के विषय में पूछा ही नहीं। अब अंधों की नगरी में राह कौन बताये ? कबीर साहेब की वाणी में सदा ही गुरु की महिमा का वर्णन प्राप्त होता है। गुरु किसे बनाये इस पर साहेब का स्पष्ट मत है की गुरु भी सोच समझकर बनाना है, विवेक और बुद्धि का उपयोग करना है, अन्यथा वर्तमान समय में आप धर्म गुरुओं की स्थिति देख रहे हैं की कितने ही जेल में पड़े हैं, इन्हे गुरु किसने बनाया, प्रायोजित भीड़ ने। 
 
ये प्रायोजित भीड़ किसी को भी गुरु बना सकती है, गौरतलब है की जो खुद ही विषय वासनाओं और माया के कीचड में सना हुआ है वह किसी को क्या राह दिखायेगा। बहरहाल, जो भी हो गुरु बनाने में जितना वक़्त लगाना चाहिए वो लगाना ही चाहिए क्योंकि सच्चा गुरु खोज पाना कोई आसान कार्य नहीं है। 
 
गुरु से ज्ञान की प्राप्ति में भी 'अहम्' ही आड़े आता है। मैं सबकुछ जानता हूँ, मुझे सब पता है, यदि ये भाव हैं तो समझे की अभी पूर्ण साधक का रूप ग्रहण नहीं किया है। जब अहम् शांत हो जाता है, वस्तुतः अहम् भी गुरु ज्ञान से ही समाप्त होता है, अन्यथा अंधे ही बने रहते हैं। अंधे को अँधा क्या राह बताये।
 
है कोई संत सहज सुख उपजै, जाकौ जब तप देउ दलाली।
एक बूँद भरि देइ राम रस, ज्यूँ भरि देई कलाली॥
काया कलाली लाँहनि करिहूँ, गुरु सबद गुड़ कीन्हाँ॥
काँम क्रोध मोह मद मंछर, काटि काटि कस दीन्हाँ॥
भवन चतुरदस भाटी पुरई, ब्रह्म अगनि परजारी।
मूँदे मदन सहज धुनि उपजी, सुखमन पीसनहारी॥
नीझर झरै अँमी रस निकसै, निहि मदिरावल छाका॥
कहैं कबीर यहु बास बिकट अनि, ग्याँन गुरु ले बाँका॥ 
गुरू को सिर पर राखिये, चलिये आज्ञा मांहि।
कहे कबीर ता दास को, तीन लोक भय नाहिं॥

गुरू को मानुष जो गिनै, चरनामृत को पान।
ते नर नरके जायेंगे, जनम जनम ह्वै स्वान॥

गुरू को मानुष जानते, ते नर कहिये अंध।
होय दुखी संसार में, आगे जम का फ़ंद॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न भेव।
गुरू बिन संशय ना मिटै, जय जय जय गुरूदेव॥

गुरू बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरू बिन मिलै न मोष।
गुरू बिन लखै न सत्य को, गुरू बिन मिटै न दोष॥

गुरू नारायन रूप है, गुरू ज्ञान को घाट।
सतगुरू वचन प्रताप सों, मन के मिटे उचाट॥

गुरू महिमा गावत सदा, मन अति राखे मोद।
सो भव फ़िरि आवै नहीं, बैठे प्रभु की गोद॥

गुरू सेवा जन बंदगी, हरि सुमिरन वैराग।
ये चारों तबही मिले, पूरन होवै भाग॥

गुरू मुक्तावै जीव को, चौरासी बंद छोर।
मुक्त प्रवाना देहि गुरू, जम सों तिनुका तोर॥

गुरू सों प्रीति निबाहिये, जिहि तत निबहै संत।
प्रेम बिना ढिग दूर है, प्रेम निकट गुरू कंत॥

गुरू मारै गुरू झटकरै, गुरू बोरे गुरू तार।
गुरू सों प्रीति निबाहिये, गुरू हैं भव कङिहार॥
सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति।
हरिजी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति
बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार
सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार
राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।
क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं
सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।
सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ
सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर
सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक
सतगुर मार्या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥
हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥
गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥

ग्यान प्रकास्या गुर मिल्या, सो जिनि बीसरि जाइ।
जब गोबिंद कृपा करी, तब गुर मिलिया आइ॥

कबीर गुर गरवा मिल्या, रलि गया आटैं लूँण।
जाति पाँति कुल सब मिटै, नांव धरोगे कौण॥
जाका गुर भी अंधला, चेला खरा निरंध।
अंधा अंधा ठेलिया, दून्यूँ कूप पड़ंत॥

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