राम नाम के पटतरै देबै कौं कछु मीनिंग
राम नाम के पटतरै देबै कौं कछु नाहिं हिंदी मीनिंग
राम नाम के पटतरै देबै कौं कछु नाहिं।
क्या लै गुरु संतोषिए, हौस रही मन मौहि।
or
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहि।
क्या ले गुरू संतोषिए , हौस रही मन मांहि।
Raam Naam Ke Patatarai Debai Kaun Kachhu Naahin.
Kya Lai Guru Santoshie, Haus Rahee Man Mauhi.
क्या लै गुरु संतोषिए, हौस रही मन मौहि।
or
राम नाम के पटतरे, देबे कौं कछु नाहि।
क्या ले गुरू संतोषिए , हौस रही मन मांहि।
Raam Naam Ke Patatarai Debai Kaun Kachhu Naahin.
Kya Lai Guru Santoshie, Haus Rahee Man Mauhi.
Ram Nam Ke Patare Deve Ko Kuch Nahi Hindi Bhavarth
राम नाम के पटतरै कबीर साखी के शब्दार्थ - पटतरै = समान वस्तु, होनी =तीव्र अभिलाषा, हौंस-इच्छा, संतोषिए-संतोष करके चुप रह जाना, माँहि -अंदर।
कबीर की साखी का हिंदी मीनिंग : कबीर साहेब इस साखी में गुरु की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं की गुरु ने मुझे राम नाम का धन दिया है जिसके बदले में मेरे पास देने के लिए कुछ भी नहीं है. गुरु को दक्षिणा के रूप में कुछ भी देने के अभाव में एहसान चुकाने/बदले में कुछ देने की भावना मन की मन में ही रह गई.
राम नाम के पटतरे में साखी में विशेष
- इस साखी में सधुक्कड़ी भाषा का उपयोग हुआ है.
- क्या ले गुरू संतोषिए में वक्रोक्ति अलंकार का उपयोग हुआ है.
- कबीर साहेब ने इस साखी में गुरु की महिमा को स्थापित किया है.
-कबीर साहेब ने राम नाम को अमूल्य माना है जिसके बदले में
गुरु की महिमा के बारे में कबीर साहेब के विचार : कबीर साहेब ने अनेकों स्थान पर गुरु की महिमा को स्थापित करते हुए, गुरु की पहचान भी बताई है. गुरु कैसा होना चाहिए,
गुरु के गुण आदि पर साहेब ने विस्तार से बताया है. गुरु से सबंधित कबीर साहेब के विचारों को गुरुदेव के अंग में संकलित किया गया है. गुरु को इश्वर से भी बढकर बताया क्योंकि गुरु ही है जो इश्वर से साक्षात्कार करवाने में सक्षम है,
“हरि रुँठे गुरु ठौर है, गुरु रुँठे नहिं ठौर”
साहेब आगे वाणी देते हैं की -
साहेब आगे वाणी देते हैं की -
गुरु गोविन्द दोऊ खडे, काके लागों पाया।
बलिहारी गुरु आपणै, गोविन्द दियो बताय।।
बलिहारी गुरु आपणै, गोविन्द दियो बताय।।
गुरु और गोविन्द दोनों खड़े हैं दोनों में से पहले किसका अभिवादन किया जाय, निश्चित ही गुरुदेव के. गुरु के ज्ञान को शीश देकर भी ग्रहण कर लेना चाहिए.
गुरु सो ज्ञान जु लीजिये, सीस दीजये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट ना जाने भ्रूंग को, गुरु करिले आप समान।।
बहुतक भोंदू बहि गये, सखि जीव अभिमान॥
गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम।
कीट ना जाने भ्रूंग को, गुरु करिले आप समान।।
जैसे कीड़ा भ्रूंग को नहीं जानता है लेकिन भ्रूंग कीड़े को अपने जैसा बना लेता है, ऐसे ही गुरु साधक को अपने समान बना लेता है.
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