सतगुर सवाँन को सगा हिंदी मीनिंग Satguru Sawaan Ko Saga Hindi Meaning Kabir Ke Dohe Hindi Meaning
सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सई न दाति ।
हरि जी सवाँन को हितू, हरिजन सईं न जाति ।।
Satagur Savaann Ko Saga, Sodhee Saee Na Daati .
Hari Jee Savaann Ko Hitoo, Harijan Saeen Na Jaati
सतगुर सवाँन को सगा शब्दार्थ : सवान/सवाँन= समान, बराबर - के समान, को=कौन, सोधी-शुद्धि, तत्त्व को शोध करने वाला, शोधक, दाति = दान, दाता,दातृ, दानी, हितू - हितैषी, हरिजन - ईश्वर के भक्तजन ।
Satguru Sawan Ko Saga Hindi Meaning : सतगुरु का व्यक्तित्व असाधारन , स्मादरगगोय और अत्यन्त कल्याणकारी ज्ञान का दाता होता है. सतगुरु के तुल्य कोई सगा और अपना नहीं है. सतगुरु ही हरिजनों का परम हितैषी होता है.
वैसे तो संसार में सगे सबंधियों की बाढ़ जैसी अवस्था होती है लेकिन ये सभी रिश्ते नाते केवल लाभ तक सीमित होते हैं। दुःख में सभी छोड़कर भाग जाते हैं, ऐसे ही कबीर साहेब की वाणी है की सतगुरु ही सबसे बड़ा 'सगा' है। सतगुरु के समान अन्य कोई सगा नहीं है। सतगुरु ही सबसे बड़ा दाता भी है जो समस्त जगत के कल्याण के लिए शोधि का दान करने को भी आतुर रहता है। यह दान अन्य भौतिक वस्तुओं के दान से श्रेष्ठ है। ईश्वर के समान अन्य कोई हमारा हितैषी नहीं है। ईश्वर ही हमें इस भव सागर से पार ले जा सकता है। जातियों में वैसे तो ब्राह्मण जाती को श्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि ऐसी मान्यता है की वे ईश्वर की पूजा पाठ करते हैं लेकिन साहेब ने हरिजन को श्रेष्ठ माना है।
वे सभी लोग हरिजन हैं जो ईश्वर की प्राप्ति के लिए सत्य मार्ग का अनुसरण करते हैं और अपना जीवन माया को समर्पित नहीं करते हैं।कबीर साहेब की इस साखी (साक्षी ) में (वर्ण - "स" और "ह" ) अनुप्रास और इस सम्पूर्ण छंद में वक्रोक्ति अलंकार का प्रयोग किया गया है। सवान और सईं तद्भव शब्द हैं.
सतगुर सवाँन को सगा, सोधी सईं न दाति में सवाँन से आशय "के समान"से है, सतगुरु के समान/तुल्य।
वक्रोक्ति अलंकार : वक्रोक्ति एक काव्य अलंकार है जिसमें काकु या श्लेष से वाक्य का और अर्थग्रहण किया जाता है और जहाँ किसी उक्ति का अर्थ जान बूझकर वक्ता के अभिप्राय से अलग लिया जाता है, उसे वक्रोक्ति अलंकार कहा जाता है. अन्य शब्दों में जब श्रोता कहने वाले के कथन का अन्य, विषय से परे अर्थ लगा ले वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है.
वक्रोक्ति अलंकार के दो भेद माने गए हैं-
(1) श्लेष वक्रोक्ति-जहां एक शब्द के ही एक से अधिक अर्थ लगा लिए जाएं, वक्ता का अर्थ और श्रोता का एक शब्द का भिन्न अर्थ ग्रहण करना, श्लेष वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है.
कौन द्वार पर ,राधे मैं हरि।
हरि का क्या काम यहाँ ।।
अन्य उदाहरण
को तुम हो इत आये कहा,
घनश्याम हो तू कितू बरसों ।
इस उदाहरण में घनश्याम शब्द का अर्थ काले बादल और श्री कृष्ण से लिया गया है. श्रोता द्वारा जानबुझकर घनश्याम का अर्थ काले बादल से लिया गया है.
यहाँ पर "हरि" का अर्थ राधा जी के द्वारा बन्दर जी से लिया जाता है, और वक्ता के द्वारा कृष्ण से लिया गया है इसलिए यहाँ पर श्लेष अलंकार है.
(2) काकु वक्रोक्ति-काकू वक्रोक्ति अलंकार में श्रोता किसी शब्द के उच्चारण के कारण श्रोता और वक्ता भिन्न अर्थ निकाल लेता है, वहाँ पर काकू वक्रोक्ति अलंकार होता है. यहाँ बोलने वाले के लहजे में भेद होता है, बोलने के ढंग से अर्थ प्रथक निकाल लिया जाता है.
उदाहरण
वक्ता -ईश्वर नहीं है |
श्रोता -ईश्वर नहीं है ? ( इश्वर अवश्य है )
एक दूसरा उदाहरण
देते हैं वरदान शिव भाव चाहिए मीत |
भोले को वरदान हित भाव चाहिए मीत |
वक्ता ने कहा शिव वरदान देते हैं लेकिन मन में भक्ति भाव होना चाहिए, वहीँ पर श्रोता कहता है की शंकर (भोले) भगवान् बिना भाव के ही वर दे देते हैं.
वक्रोक्ति अलंकार : वक्रोक्ति एक काव्य अलंकार है जिसमें काकु या श्लेष से वाक्य का और अर्थग्रहण किया जाता है और जहाँ किसी उक्ति का अर्थ जान बूझकर वक्ता के अभिप्राय से अलग लिया जाता है, उसे वक्रोक्ति अलंकार कहा जाता है. अन्य शब्दों में जब श्रोता कहने वाले के कथन का अन्य, विषय से परे अर्थ लगा ले वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है.
वक्रोक्ति अलंकार के दो भेद माने गए हैं-
(1) श्लेष वक्रोक्ति-जहां एक शब्द के ही एक से अधिक अर्थ लगा लिए जाएं, वक्ता का अर्थ और श्रोता का एक शब्द का भिन्न अर्थ ग्रहण करना, श्लेष वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है.
कौन द्वार पर ,राधे मैं हरि।
हरि का क्या काम यहाँ ।।
अन्य उदाहरण
को तुम हो इत आये कहा,
घनश्याम हो तू कितू बरसों ।
इस उदाहरण में घनश्याम शब्द का अर्थ काले बादल और श्री कृष्ण से लिया गया है. श्रोता द्वारा जानबुझकर घनश्याम का अर्थ काले बादल से लिया गया है.
यहाँ पर "हरि" का अर्थ राधा जी के द्वारा बन्दर जी से लिया जाता है, और वक्ता के द्वारा कृष्ण से लिया गया है इसलिए यहाँ पर श्लेष अलंकार है.
(2) काकु वक्रोक्ति-काकू वक्रोक्ति अलंकार में श्रोता किसी शब्द के उच्चारण के कारण श्रोता और वक्ता भिन्न अर्थ निकाल लेता है, वहाँ पर काकू वक्रोक्ति अलंकार होता है. यहाँ बोलने वाले के लहजे में भेद होता है, बोलने के ढंग से अर्थ प्रथक निकाल लिया जाता है.
उदाहरण
वक्ता -ईश्वर नहीं है |
श्रोता -ईश्वर नहीं है ? ( इश्वर अवश्य है )
एक दूसरा उदाहरण
देते हैं वरदान शिव भाव चाहिए मीत |
भोले को वरदान हित भाव चाहिए मीत |
वक्ता ने कहा शिव वरदान देते हैं लेकिन मन में भक्ति भाव होना चाहिए, वहीँ पर श्रोता कहता है की शंकर (भोले) भगवान् बिना भाव के ही वर दे देते हैं.
कबीर साहेब की अन्य वाणी/Kabir Saheb Ki Sakhi
बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥
सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥
राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।
क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥
सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।
सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥
सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥
सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥
सतगुर मार्या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥
हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥
गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥
बलिहारी गुर आपणैं द्यौं हाड़ी कै बार।
जिनि मानिष तैं देवता, करत न लागी बार॥
सतगुर की महिमा, अनँत, अनँत किया उपगार।
लोचन अनँत उघाड़िया, अनँत दिखावणहार॥
राम नाम के पटतरे, देबे कौ कुछ नाहिं।
क्या ले गुर सन्तोषिए, हौंस रही मन माहिं॥
सतगुर के सदकै करूँ, दिल अपणी का साछ।
सतगुर हम स्यूँ लड़ि पड़ा महकम मेरा बाछ॥
सतगुर लई कमाँण करि, बाँहण लागा तीर।
एक जु बाह्यां प्रीति सूँ, भीतरि रह्या सरीर॥
सतगुर साँवा सूरिवाँ, सबद जू बाह्या एक।
लागत ही में मिलि गया, पढ़ा कलेजै छेक॥
सतगुर मार्या बाण भरि, धरि करि सूधी मूठि।
अंगि उघाड़ै लागिया, गई दवा सूँ फूंटि॥
हँसै न बोलै उनमनी, चंचल मेल्ह्या मारि।
कहै कबीर भीतरि भिद्या, सतगुर कै हथियार॥
गूँगा हूवा बावला, बहरा हुआ कान।
पाऊँ थै पंगुल भया, सतगुर मार्या बाण॥
पीछे लागा जाइ था, लोक वेद के साथि।
आगै थैं सतगुर मिल्या, दीपक दीया हाथि॥
दीपक दीया तेल भरि, बाती दई अघट्ट।
पूरा किया बिसाहूणाँ, बहुरि न आँवौं हट्ट॥
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