बिरह भुवंगम पैसि करि मीनिंग Birah Bhuvangam Pesi Kari Hindi Meaning, Kabir Ke Dohe Hindi Meaning, Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit.
बिरह भुवंगम पैसि करि, किया कलेजै घाव।
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥
साधू अंग न मोड़ही, ज्यूँ भावै त्यूँ खाव॥
Birah Bhuvangm Pesi Kari, Kiya kaleje Ghaav,
Sadhu Ang Na Modahi, Jyu Bhave Tyu Khaav.
बिरह भुवंगम दोहा हिंदी शब्दार्थ Birah Bhuvangam Word Meaning Hindi
बिरह भुवंगम पैसि करि-विरह रूपी सर्प कलेजे के अंदर तक प्रवेश कर चुका है।
किया कलेजै घाव-इसने कलेजे के अन्दर तक घाव कर दिया है.
साधू अंग न मोड़ही-हरी भक्त अपने अपने तन (सांप से) को, तन के अंगों को दूर नहीं करता है.
ज्यूँ भावै त्यूँ खाव-जैसे भाए वैसे ही खा सकता है.
बिरह-विरह (इश्वर से अलग होने का संताप)
भुवंगम-सर्प/सांप.
पैसि करि-प्रवेश किया.
किया-करना.
कलेजै घाव-कलेजे में घाव.
साधू -हरी भक्त.
अंग न-शरीर के अंगो को.
मोड़ही-मोड़ता नहीं है, दूर नहीं करता है.
ज्यूँ भावै-जैसे भावे.
त्यूँ-वैसे ही,
खाव-खाए.
प्रस्तुत साखी में सन्देश प्राप्त होता है की हरी भक्त विरह की वेदना से विचलित नहीं होते हैं. संतजन जीवात्मा विरह को स्वीकार करते हैं. वह विरह को छूट देते हैं की वह जैसे चाहे वैसे उसे खा ले. हरी भक्त कठिन यातनाओं से भी पथ भ्रष्ट नहीं होते हैं और अपना सम्पूर्ण ध्यान हरी भक्ति पर ही लगाते हैं, भले ही अनेकों प्रकार के कष्ट सहने पड़े. प्रस्तुत साखी में विशेशोक्ति अलंकार की व्यंजना हुई है.
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किया कलेजै घाव-इसने कलेजे के अन्दर तक घाव कर दिया है.
साधू अंग न मोड़ही-हरी भक्त अपने अपने तन (सांप से) को, तन के अंगों को दूर नहीं करता है.
ज्यूँ भावै त्यूँ खाव-जैसे भाए वैसे ही खा सकता है.
बिरह-विरह (इश्वर से अलग होने का संताप)
भुवंगम-सर्प/सांप.
पैसि करि-प्रवेश किया.
किया-करना.
कलेजै घाव-कलेजे में घाव.
साधू -हरी भक्त.
अंग न-शरीर के अंगो को.
मोड़ही-मोड़ता नहीं है, दूर नहीं करता है.
ज्यूँ भावै-जैसे भावे.
त्यूँ-वैसे ही,
खाव-खाए.
कबीर दोहा हिंदी मीनिंग Kabir Doha/Sakhi Hindi Meaning
विरह रूपी सांप हृदय के अन्दर तक प्रवेश कर चूका है और अंदर ही अंदर उसे खाए जा रहा है. विरह के इस सांप ने उसके हृदय में घाव कर दिया है. जो जन हरी भक्त हैं वे इस सांप के ने से व्यथित नहीं होते हैं, अपने शरीर के अंग को दूर नहीं करते हैं और उसे काटने देते हैं. विरह का सांप जैसे चाहे वैसे उसे काट कर खा सकता है.प्रस्तुत साखी में सन्देश प्राप्त होता है की हरी भक्त विरह की वेदना से विचलित नहीं होते हैं. संतजन जीवात्मा विरह को स्वीकार करते हैं. वह विरह को छूट देते हैं की वह जैसे चाहे वैसे उसे खा ले. हरी भक्त कठिन यातनाओं से भी पथ भ्रष्ट नहीं होते हैं और अपना सम्पूर्ण ध्यान हरी भक्ति पर ही लगाते हैं, भले ही अनेकों प्रकार के कष्ट सहने पड़े. प्रस्तुत साखी में विशेशोक्ति अलंकार की व्यंजना हुई है.
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