कबीर सीप समंद की मीनिंग Kabir Seep Samand Ki Meaning Kabir Ke Dohe Hindi arth Sahit/Hidi Bhavarth
कबीर सीप समंद की, रटै पियास पियास।संमदहि तिणका बरि गिणै स्वाँति बूँद की आस॥
Kabir Seep Samand Ki, Rate Piyas Piyas,
संमदहि : समुद्र को.
तिणका बरि : तिनके के बराबर समझता है.
गिणै : गिनती है,
स्वाँति बूँद की आस : भागवत प्रेम की आस, भक्ति रस.
तिणका बरि : तिनके के बराबर समझता है.
गिणै : गिनती है,
स्वाँति बूँद की आस : भागवत प्रेम की आस, भक्ति रस.
समुद्र की सीपी यद्यपि समुद्र के अथाह जल में रहती है लेकिन फिर भी वह प्यासी रह जाती है। समुद्र का जल उसके लिए एक तिनके के समान होती है। स्वाति बून्द की तुलना में समुद्र का जल कोई मायने नहीं रखता है।
ऐसे ही जीवात्मा जिसे भगवत प्रेम का बोध हो चूका है वह जगत के समस्त आकर्षणों को तुच्छ मानती है और हरी रस को श्रेष्ठ मानती है।
जीवात्मा की प्यास सांसारिक रसपान से संतृप्त नहीं होती है उसे हरी रस से संतुष्टि प्राप्त होती है। भाव है की प्रेम से बढ़कर कोई रस नहीं होता है। इस साखी में अन्योक्ति अलंकार की व्यंजना हुई है।
अन्योक्ति अलंकार : जहाँ उपमान के वर्णन के माध्यम से उपमेय का वर्णन हो, जहाँ किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। इसमें किसी बात को सीधे तरीके से ना कहकर, उसे घुमा फिरा कर कहा जाता है। इस अलंकार में लक्ष्य भिन्न होता है। अन्योक्ति अलंकार में उपमान के बहाने उपमेय को लक्ष्य किया जाता है और कोई बात सीधे न कहकर किसी के सहारे से कही जाती है, अतः अप्रस्तुत कथन के माध्यम से प्रस्तुत का बोध हो, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
फूलों के आसपास रहते हैं।
फिर भी काँटे उदास रहते हैं।
माली आवत देखकर कलियन करी पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार ॥
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली ही सो बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।
इहिं आस अटक्यो रहत, अली गुलाब के मूल ।
अइहैं फेरि बसन्त रितु , इन डारन के मूल ॥
करि फुलेल को आचमन , मीठो कहत सराहि ।
ए गंधी मतिमंद तू अतर दिखावत काहि॥
मरतु प्यास पिंजरा पइयौ , सुआ समय के फेर।
आदर दै-दै बोलियतु बायसु बलि की बेर॥
स्वारथ , सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि , तू पच्छीनु न मारि॥
भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता,
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कतोपकारः॥
ऐसे ही जीवात्मा जिसे भगवत प्रेम का बोध हो चूका है वह जगत के समस्त आकर्षणों को तुच्छ मानती है और हरी रस को श्रेष्ठ मानती है।
जीवात्मा की प्यास सांसारिक रसपान से संतृप्त नहीं होती है उसे हरी रस से संतुष्टि प्राप्त होती है। भाव है की प्रेम से बढ़कर कोई रस नहीं होता है। इस साखी में अन्योक्ति अलंकार की व्यंजना हुई है।
अन्योक्ति अलंकार : जहाँ उपमान के वर्णन के माध्यम से उपमेय का वर्णन हो, जहाँ किसी उक्ति के माध्यम से किसी अन्य को कोई बात कही जाए वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है। इसमें किसी बात को सीधे तरीके से ना कहकर, उसे घुमा फिरा कर कहा जाता है। इस अलंकार में लक्ष्य भिन्न होता है। अन्योक्ति अलंकार में उपमान के बहाने उपमेय को लक्ष्य किया जाता है और कोई बात सीधे न कहकर किसी के सहारे से कही जाती है, अतः अप्रस्तुत कथन के माध्यम से प्रस्तुत का बोध हो, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
फूलों के आसपास रहते हैं।
फिर भी काँटे उदास रहते हैं।
माली आवत देखकर कलियन करी पुकार ।
फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार ॥
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल।
अली कली ही सो बिंध्यौ, आगे कौन हवाल।।
इहिं आस अटक्यो रहत, अली गुलाब के मूल ।
अइहैं फेरि बसन्त रितु , इन डारन के मूल ॥
करि फुलेल को आचमन , मीठो कहत सराहि ।
ए गंधी मतिमंद तू अतर दिखावत काहि॥
मरतु प्यास पिंजरा पइयौ , सुआ समय के फेर।
आदर दै-दै बोलियतु बायसु बलि की बेर॥
स्वारथ , सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि।
बाज पराए पानि परि , तू पच्छीनु न मारि॥
भुक्ता मृणालपटली भवता निपीता,
न्यम्बूनि यत्र नलिनानि निषेवितानि।
रे राजहंस वद तस्य सरोवरस्य,
कृत्येन केन भवितासि कतोपकारः॥