मेरा मुझ में कुछ नहीं हिंदी मीनिंग
मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा,
तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा।
अथवा
मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कछु है सो तोर।
तेरा तुझको सौंपते, क्या लागत है मोर।।
Tera Mujh Me Kuch Nahi, Jo Kuch Hai So Tera,
Tera Tujhko Soupata, Kya Laage Hai Mera.
मेरा मुझ में कुछ नहीं: मेरा (जीवात्मा) मेरे अंदर भी कुछ नहीं है।
जो कुछ है सो तेरा : जो कुछ भी है वह आपका (परमात्मा) का ही है।
तेरा तुझको सौंपता : जो आपका है मैं उसे आपको ही समर्पित करता हूँ।
क्या लागै है मेरा : इसमें मेरा क्या लग रहा है, मेरा क्या जा रहा है।
जीवात्मा को बोध हुआ है की यह सम्पूर्ण जिवन ही ईश्वर के द्वारा प्रदत्त है। जीव का तो जीवन भी नहीं है। मालिक के हाथों में ही साँसों की डोर है। इस जगत में भी जो जीव अर्जित करता है, यथा, धन दौलत, यश आदि वह सभी ईश्वर का ही दिया है। जो ईश्वर का उसे पुनः ईश्वर को ही समर्पित कर रहा हूँ, ऐसे में मेरा क्या लगता है।
माया के भरम में पड़कर ही जीव का अहम प्रधान होता है। वह सोचता है की मैंने यह कार्य किया है, मैं ही कर्ता हूँ। सत्य के प्रकाश में उसे बोध होता है की वस्तुतः वह तो कुछ नहीं है। जो है साईं का है। अहम के समाप्त होने पर जीव अपने यश, मान सम्मान, प्रतिष्ठा और गुण अवगुण को ईश्वर के ही चरणों में समर्पित कर देता है। जब यह जीवन ही ईश्वर के द्वारा दिया गया है और ना जाने कब वो इसे वापस ले ले तो क्यों नहीं जीवन को उसके नाम सुमिरण में समर्पित कर दिया जाए।
सलोक महला,
मन की मन ही माहि रही
न हरि भजै न तीरथ सेवियो, चोटी काल गही (रहाओ)
दारा मीत पूत रथ संपति, धन पूरन सब मही
अवर सगल मिथिआ ये जानौ, भजनराम को सही
फिरत-फिरत बहुते जुग हारिओ, मानस देह लही
नानक कहत मिलन की बरीआ, सिमरत कहा नहीं।
कबीर दास जी का यह दोहा आत्मज्ञान की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण संदेश देता है। इस दोहे में, कबीर दास जी कहते हैं कि आत्मा के पास कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है, वह सब ईश्वर का है। जब आत्मा को यह बोध हो जाता है, तो वह अपना सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देती है।
"मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा" - आत्मा को यह बोध हो जाता है कि वह स्वयं कुछ भी नहीं है। उसका शरीर, मन, बुद्धि, ज्ञान, और कर्म सभी ईश्वर की देन हैं।
"तेरा तुझको सौंपता, क्या लागै है मेरा" - जब आत्मा अपना सब कुछ ईश्वर को समर्पित कर देती है, तो उसे कोई मोह या आसक्ति नहीं रहती है। वह ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन जीती है।
माया के भरम में पड़कर आत्मा का अहम प्रधान हो जाता है। वह सोचती है कि वह स्वयं सब कुछ कर सकती है। लेकिन जब आत्मा को सत्य का बोध होता है, तो उसे पता चलता है कि वह तो कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी है, वह सब ईश्वर का है।
जब अहम समाप्त हो जाता है, तो आत्मा अपने यश, मान सम्मान, प्रतिष्ठा और गुण अवगुण को ईश्वर के ही चरणों में समर्पित कर देती है। वह जानती है कि यह जीवन ईश्वर का दिया हुआ है और वह कभी भी इसे वापस ले सकता है। इसलिए, वह अपने जीवन को ईश्वर के नाम सुमिरण में समर्पित कर देती है।
इस दोहे का आध्यात्मिक महत्व बहुत बड़ा है। यह हमें आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है। जब हम आत्मज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो हम अपने अहंकार से मुक्त हो जाते हैं और ईश्वर के प्रति समर्पित हो जाते हैं।
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