श्री पार्श्वनाथ चालीसा अर्थ महत्त्व
श्री पार्श्वनाथ चालीसा जानिये अर्थ और महत्त्व
श्री पार्श्वनाथ चालीसा भगवान पार्श्वनाथ की स्तुति में रचित 40 छंदों का भजन है, जो जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर हैं। इस चालीसा में उनके जीवन, उपदेशों और करुणा का वर्णन किया गया है, जिससे भक्तों को प्रेरणा मिलती है। नियमित रूप से इस चालीसा का पाठ करने से मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
पार्श्वनाथ चालीसा का पाठ करने से भक्तों को भगवान पार्श्वनाथ की कृपा प्राप्त होती है, जिससे जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति मिलती है। यह चालीसा सरल भाषा में रचित है, जिससे सभी आयु के लोग इसे आसानी से समझ और गा सकते हैं। इसका नियमित पाठ आत्मिक शुद्धि, मन की एकाग्रता और धर्म के प्रति समर्पण को बढ़ावा देता है, जिससे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है।
पार्श्वनाथ चालीसा का पाठ करने से भक्तों को भगवान पार्श्वनाथ की कृपा प्राप्त होती है, जिससे जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की शक्ति मिलती है। यह चालीसा सरल भाषा में रचित है, जिससे सभी आयु के लोग इसे आसानी से समझ और गा सकते हैं। इसका नियमित पाठ आत्मिक शुद्धि, मन की एकाग्रता और धर्म के प्रति समर्पण को बढ़ावा देता है, जिससे जीवन में सुख, शांति और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है।
शीश नवां अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम।।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
अहिच्छत्र ओर पार्श्व को, मन मंदिर में धार।।
पारस नाथ जगत हितकारी, हो स्वामी तुम व्रत के धारी।
सुर नर असुर करे तुम सेवा, तुम ही सब देवन के देवा।।
तुमसे करम शत्रु भी हारा, तुम कीना जग का निस्तारां।
अश्वसेन के राज दुलारे, वामा की आँखों के तारें।
काशी जी के स्वामि कहाए, सारी परजा मौज उड़ाए।
इक दिन सब मित्रों को लेके, सैर करन को वन में पहुँचे।
हाथी पर कसकर अम्बारी, इक जंगल में गई सवारी।
एक तपस्वी देख वहाँ पर, उससे बोले वचन सुनाकर।
तपसी तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते।
तपसी तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया।
निकलें नाग नागनी कारे, मरने के थे निकट बिचारें।
रहम प्रभू के दिल में आया, तभी मंत्र नवकार सुनाया।
मरकर वो पाताल सिधाये, पद्मावति धरणेन्द्र कहाये।
तपसी मरकर देव कहाया, नाम कमठ ग्रंथों में गाया।
एक समय श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन की ठानी।
तप करते थे ध्यान लगाए, इक दिन कमठ वहाँ पर आये।
फौरन ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना।
बहुत अधिक बारिश बरसाई, बादल गरजे बिजली गिराई।
बहुत अधिक पत्थर बरसाये, स्वामी तन को नहीं हिलाये।
पद्मावति धरणेन्द्र भी आये, प्रभु की सेवा में चित लाये।
पद्मावति ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया।
धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सर पर छत्र बनाया।
कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, समोशरण देवेन्द्र रचाया।
यही जगह अहिच्छत्र कहाये, पात्रकेशरी जहाँ पर आये।
शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, जिनको जाने सकल जहाना।
पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, सबने जैन धरम अपनाया।
अहिच्छत्र श्री सुन्दर नगरी, जहाँ सुखी थी परजा सगरी।
राजा श्री वसुपाल कहाये, वो इक दिन जिनमंदिर बनवाये।
प्रतिमा पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया।
वह मिस्तरी मांस खाता था, इससे पालिश गिर जाता था।
मुनि ने उसे उपाय बताया, पारस दर्शन व्रत दिलवाया।
मिस्त्री ने व्रत पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना।
गदर सतावन का किस्सा है, इक माली को यों लिक्खा है।
माली इक प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुए के अंदर।
उस पानी का अतिशय भारी, दूर होय सारी बीमारी।
जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे, सो नर उत्तम पदवी पावे।
पुत्र संपदा की बढ़ती हो, पापों की इक दम घटती हो।
है तहसील आंवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी।
रामनगर एक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी नर।
चालीसे को ‘चन्द्र’ बनाये, हाथ जोड़कर शीश नवाये।
।।सोरठा।।
नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम।।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
अहिच्छत्र ओर पार्श्व को, मन मंदिर में धार।।
पारस नाथ जगत हितकारी, हो स्वामी तुम व्रत के धारी।
सुर नर असुर करे तुम सेवा, तुम ही सब देवन के देवा।।
तुमसे करम शत्रु भी हारा, तुम कीना जग का निस्तारां।
अश्वसेन के राज दुलारे, वामा की आँखों के तारें।
काशी जी के स्वामि कहाए, सारी परजा मौज उड़ाए।
इक दिन सब मित्रों को लेके, सैर करन को वन में पहुँचे।
हाथी पर कसकर अम्बारी, इक जंगल में गई सवारी।
एक तपस्वी देख वहाँ पर, उससे बोले वचन सुनाकर।
तपसी तुम क्यों पाप कमाते, इस लक्कड़ में जीव जलाते।
तपसी तभी कुदाल उठाया, उस लक्कड़ को चीर गिराया।
निकलें नाग नागनी कारे, मरने के थे निकट बिचारें।
रहम प्रभू के दिल में आया, तभी मंत्र नवकार सुनाया।
मरकर वो पाताल सिधाये, पद्मावति धरणेन्द्र कहाये।
तपसी मरकर देव कहाया, नाम कमठ ग्रंथों में गाया।
एक समय श्री पारस स्वामी, राज छोड़कर वन की ठानी।
तप करते थे ध्यान लगाए, इक दिन कमठ वहाँ पर आये।
फौरन ही प्रभु को पहिचाना, बदला लेना दिल में ठाना।
बहुत अधिक बारिश बरसाई, बादल गरजे बिजली गिराई।
बहुत अधिक पत्थर बरसाये, स्वामी तन को नहीं हिलाये।
पद्मावति धरणेन्द्र भी आये, प्रभु की सेवा में चित लाये।
पद्मावति ने फन फैलाया, उस पर स्वामी को बैठाया।
धरणेन्द्र ने फन फैलाया, प्रभु के सर पर छत्र बनाया।
कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, समोशरण देवेन्द्र रचाया।
यही जगह अहिच्छत्र कहाये, पात्रकेशरी जहाँ पर आये।
शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, जिनको जाने सकल जहाना।
पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, सबने जैन धरम अपनाया।
अहिच्छत्र श्री सुन्दर नगरी, जहाँ सुखी थी परजा सगरी।
राजा श्री वसुपाल कहाये, वो इक दिन जिनमंदिर बनवाये।
प्रतिमा पर पालिश करवाया, फौरन इक मिस्त्री बुलवाया।
वह मिस्तरी मांस खाता था, इससे पालिश गिर जाता था।
मुनि ने उसे उपाय बताया, पारस दर्शन व्रत दिलवाया।
मिस्त्री ने व्रत पालन कीना, फौरन ही रंग चढ़ा नवीना।
गदर सतावन का किस्सा है, इक माली को यों लिक्खा है।
माली इक प्रतिमा को लेकर, झट छुप गया कुए के अंदर।
उस पानी का अतिशय भारी, दूर होय सारी बीमारी।
जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे, सो नर उत्तम पदवी पावे।
पुत्र संपदा की बढ़ती हो, पापों की इक दम घटती हो।
है तहसील आंवला भारी, स्टेशन पर मिले सवारी।
रामनगर एक ग्राम बराबर, जिसको जाने सब नारी नर।
चालीसे को ‘चन्द्र’ बनाये, हाथ जोड़कर शीश नवाये।
।।सोरठा।।
नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के।।
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो।
जिसके नहिं संतान, नाम वंश जग में चले।।
श्री पार्श्वनाथ चालीसा। Jain Mantra |Shri Parshwanath Chalisa | KC Nimesh | Parasnath Jagat Hitkari
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Author - Saroj Jangir
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