कबीर मारग अगम है लिरिक्स Kabir Marag Agam Hai Lyrics

कबीर मारग अगम है लिरिक्स Kabir Marag Agam Hai Lyrics Kabir Bhajan Lyrics Hindi

कबीर मारग अगम है, मुनिजन बैठे थाक ।
तहाँ कबीरा चल गया, गहि सद्गुरु की साख॥
(कबीर मारग अगम है, सब मुनिजन बैठे थाकि।
तहाँ कबीरा चलि गया गहि सतगुर कीसाषि॥9॥)

भक्ति मार्ग सुगम नहीं है। सुगम इसलिए नहीं है क्योंकि साधक सांसारिक जतन, क्रियाओं से वहां तक पहुंचना चाहते हैं। वे लोकाचार और शास्त्र का सहारा लेते हैं। लेकिन इन भौतिक माध्यम से वहां तक पंहुच पाना सम्भव नहीं है। बहुत से मुनिजन वहां पंहुचने में असफल रहे हैं, वे थक गए हैं। उस स्थान पर कबीर साहेब पंहुच गए हैं क्योंकि उन्होंने गुरु के बताये मार्ग का अनुसरण किया है। 

गगन मण्डल में घर किया, बाजे शब्द रसाल ।
रोम रोम दीपक बरे, प्रगटे दीन दयाल ॥

गगन मंडल में अब साधक का वास है जहाँ पर मात्र शब्द रसाल है। शब्द रूपी रसायन ही रस है। साधक के रोम रोम में ज्ञान का दीपक प्रज्वलित है क्योंकि ऐसी अवस्था में ही पूर्ण के दर्शन हो पाते हैं।
दीपक देखा ज्ञान का, पेखा अपरमदेव |
चार वेद की गम नहीं, तहाँ कबीरा सेव ॥

Kabir Bhajan | सद्गुरु कबीर साहेब | Sadguru Kabir Bhajan

Kabir Maarag Agam Hai, Munijan Baithe Thaak .
Tahaan Kabira Chal Gaya, Gahi Sadguru Ki Saakh.

Gagan Mandal Mein Ghar Kiya, Baaje Shabd Rasaal .
Rom Rom Dipak Bare, Pragate Din Dayaal .

Dipak Dekha Gyaan Ka, Pekha Aparamadev |
Chaar Ved Ki Gam Nahin, Tahaan Kabira Sev .
 
 गगन गरजि बरसै अमी, बादल गहिर गम्भीर।
चहुँदिस दमके दामिनी, भीजै दास कबीर॥

गगन मंडल के बीच में, झलकै सत का नूर।
निगुरा गम पावै नहीं, पहुँचै गुरूमुख सूर॥

गगन मंडल के बीच में, महल पङा इक चीन्हि।
कहै कबीर सो पावई, जिहि गुरू परचै दीन्हि॥

गगन मंडल के बीच में, बिना कलम की छाप।
पुरुष तहाँ एक रमि रहा, नहीं मन्त्र नहि जाप॥

गगन मंडल के बीच में, तुरी तत्त इक गांव।
लच्छ निसाना रूप का, परखि दिखाया ठांव॥

गगन मंडल के बीच में, जहाँ सोहंगम डोर।
सब्द अनाहद होत है, सुरति लगी तहँ मोर॥

गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा संतजन, सत्तपुरुष के पास॥

गरजै गगन अमी चुवै, कदली कमल प्रकास।
तहाँ कबीरा बंदगी, कर कोई निजदास॥

दीपक जोया ज्ञान का, देखा अपरम देव।
चार वेद की गम नहीं, तहाँ कबीरा सेव॥

मान सरोवर सुगम जल, हंसा केलि कराय।
मुक्ताहल मोती चुगै, अब उङि अंत न जाय॥

सुन्न महल में घर किया, बाजै सब्द रसाल।
रोम रोम दीपक भया, प्रगटै दीन दयाल॥

पूरे से परिचय भया, दुख सुख मेला दूर।
जम सों बाकी कटि गई, साईं मिला हजूर॥70

सुरति उङानी गगन को, चरन बिलंबी जाय।
सुख पाया साहेब मिला, आनंद उर न समाय॥

जा वन सिंघ न संचरै, पंछी उङि नहि जाय।
रैन दिवस की गमि नही, रहा कबीर समाय॥

सीप नही सायर नही, स्वाति बूंद भी नांहि।
कबीर मोती नीपजै, सुन्न सरवर घट मांहि॥

काया सिप संसार में, पानी बूंद सरीर।
बिना सीप के मोतिया, प्रगटे दास कबीर॥

घट में औघट पाइया, औघट माहीं घाट।
कहैं कबीर परिचय भया, गुरू दिखाई बाट॥

जा कारन मैं जाय था, सो तो मिलिया आय।
साईं ते सनमुख भया, लगा कबीरा पाय।

जा कारन मैं जाय था, सो तो पाया ठौर।
सो ही फ़िर आपन भया, को कहता और॥

जा दिन किरतम ना हता, नहीं हाट नहि बाट।
हता कबीरा संतजन, देखा औघट घाट॥

नहीं हाट नहि बाट था, नही धरति नहि नीर।

असंख जुग परलै गया, तबकी कहैं कबीर॥
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