कबीर माया मोहनी सब जग घाल्या घाँणि कबीर के दोहे

कबीर माया मोहनी सब जग घाल्या घाँणि Kabir Maya Mohani Sab Jag Ghalya Meaning Kabir Dohe, Kabir Ke Dohe Hindi Arth Sahit (Hindi Bhavarth/Hindi Arth)

कबीर माया मोहनी, सब जग घाल्या घाँणि।
कोइ एक जन ऊबरै, जिनि तोड़ी कुल की काँणि॥
Kabir Maya Mohani, Sab Jag Ghalya Ghani,
Koi Ek Jan Ubare, Jini Todi Kul Ki Kani.

कबीर माया मोहनी : माया मोहित कर देने वाली है.
मोहनी : मोहित करके अपने जाल में फंसाना.
सब जग घाल्या घाँणि : समस्त जगत को घानी में डाल रखा है.
घाल्या : डाल दिया है, लपेट लिया है.
घाँणि : कोल्हू की घानी, जिससे तेल निकाला जाता है. लकड़ी का एक बड़ा उखल जिसमे एक बड़ा मुसल होता है और जिसे बैल के बाँध कर गोल गोल घुमाकर तिलहन से तेल प्राप्त किया जाता है.
कोइ एक जन ऊबरै : कोई बच नहीं पता है, उबर नहीं पाता है.
ऊबरै : निकलना, मुक्त होना.
जिनि तोड़ी कुल की काँणि : जिसने कुल की मर्यादा, मान सम्मान को छोड़ दिया है.
काँणि : मान मर्यादा, लाज शर्म.

कबीर साहेब की वाणी है की यह माया (विषय विकार) समस्त जगत को अपने जाल में फंसा कर रखती है. समस्त जगत को इसने अपने पाश में फंसा लिया है. माया ने सभी को मोहित करके घाणी में जैसे तिलहन को डालकर पीसा जाता है ऐसे ही तिलहन की भाँती माया जीवों को प्रताड़ित करती है. जिस व्यक्ति ने भी अपने कुल की मान मर्यादा को छोड़ दिया है और भक्ति की और अग्रसर हो पाता है. कुल की मर्यादा से आशय यह है की जो व्यक्ति लोगों का अनुसरण नहीं करे, प्रचलित भक्ति मार्ग का अनुसरण छोड़ कर सद्मार्ग पर आगे बढे, ऐसी भक्ति करे भले ही लोगों के अनुसार सही ना हो, लेकिन हृदय से की जाए. प्रचलित मार्गों में मूर्तिपूजा, तीर्थ करना और शास्त्रीय पूजा पाठ का पालन किया जाता रहा है लेकिन कबीर साहेब ने हृदय से भक्ति करने पर जोर दिया है. अतः विरले ही जिन्होंने सांसारिक स्वाभाविक क्रियाओं का त्याग कर दिया है वे माया के प्रकोप से बच पाते हैं. अन्यथा में माया के भ्रम जाल में फंसकर रह जाते हैं. प्रस्तुत साखी में रूपक और विरोधाभाष अलंकार की व्यंजना हुई है.
रूपक अलंकार : रूपक एक अलंकार होता है जो हिंदी साहित्य में बहुत अधिक साम्य के आधार पर होता है. दुसरे शब्दों में जहाँ पर उपमेय और उपमान में कोई अंतर दिखाई ना दे, कोई भेद स्थापित नहीं किया जा सके वहाँ रूपक अलंकार होता है.
रूपक अलंकार के उदाहरण :-
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वन शारदी चन्द्रिका-चादर ओढ़े।
गोपी पद-पंकज पावन कि रज जामे सिर भीजे।
बीती विभावरी जागरी,
अम्बर पनघट में डुबो रही तारा घाट उषा नगरी।
प्रभात यौवन है वक्ष सर में कमल भी विकसित हुआ है कैसा।
मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों।
चरण-कमल बन्दौं हरिराई।
राम कृपा भव-निसा सिरानी।
प्रेम-सलिल से द्वेष का सारा मल धुल जाएगा।
चरण सरोज पखारन लागा।
प्रभात यौवन है वक्ष सर में
कमल भी विकसित हुआ है कैसा।
बंदौं गुरुपद पदुम परागा
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।
पायो जी मैंने नाम रतन धन पायो।
एक राम घनश्याम हित चातक तुलसीदास।
कर जाते हो व्यथा भार लघु
बार बार कर कंज बढ़ाकर।
भजमन चरण कँवल अविनाशी।
विरोधाभाष अलंकार : जहाँ विरोध का आभाष हो, विरोधाभाष अलंकार कहते हैं. इस अलंकार में विरोध का आभास होता है लेकिन विरोध होता नहीं है.
या अनुरागी चित्त की गति समुझें नहिं कोई ।
ज्यौं-ज्यों बूढ़ै स्याम रंग, त्यौ-त्यौ उज्जवल होय
विरोधाभास अलंकार में वाक्य में आपस में कटाक्ष करते हुए दो या दो से ज्यादा भावों का प्रयोग किया जाता है, लेकिन दोनों में कोई भेद भी नहीं होता है।
Saroj Jangir Author Author - Saroj Jangir

दैनिक रोचक विषयों पर में 20 वर्षों के अनुभव के साथ, मैं कबीर के दोहों को अर्थ सहित, कबीर भजन, आदि को सांझा करती हूँ, मेरे इस ब्लॉग पर। मेरे लेखों का उद्देश्य सामान्य जानकारियों को पाठकों तक पहुंचाना है। मैंने अपने करियर में कई विषयों पर गहन शोध और लेखन किया है, जिनमें जीवन शैली और सकारात्मक सोच के साथ वास्तु भी शामिल है....अधिक पढ़ें

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