चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय मीनिंग Chalati Chakki Dekh Ke Meaning
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दुइ पट भीतर आइके, साबित गया न कोय।
दुइ पट भीतर आइके, साबित गया न कोय।
Chalati Chakki Dekh Ke, Diya Kabira Roy,
Dui Patan Bheetar Aaike, Sabit Gaya Na Koy.
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोए।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई।।
Or
Chalatee Chakkee Dekh Ke Diya Kabeera Roe.
Duee Paatan Ke Beech Mein Saabut Bacha Na Koee.
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोई।।
Or
Chalatee Chakkee Dekh Ke Diya Kabeera Roe.
Duee Paatan Ke Beech Mein Saabut Bacha Na Koee.
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय शब्दार्थ Chalati Chakki Dekh Ke Shabdarth
- चलती चक्की : चक्की के घुमाने की क्रिया, चलती हुई चक्की। चक्की एक उपकरण होता है जिसको हाथों की सहायता से घुमाया जाता है और बीच में छेड़ के माध्यम से अनाज डाल कर पीसा जाता है।
- देख के : देखकर।
- दिया कबीरा रोए : कबीर साहेब व्यथित हो गए हैं, रोने लगे हैं।
- दुई : दो / चक्की के दो पाट
- पाटन : पाट / पत्थर के दो गोल हिस्से।
- के बीच में : के मध्य में।
- साबुत बचा न कोई : कोई साबुत नहीं बचता है।
चलती चक्की देख के दिया कबीरा रोय मीनिंग Chalati Chakki Dekh Ke Arth/Bhavarth
अर्थ : सांसारिकता और भक्ति मार्ग के मध्य में व्यक्ति पीसता है, इसका उदाहरण साहेब चक्की के दो पाट के माध्यम से देते हैं. जैसे चक्की के दो पाटों में अनाज पीस जाता है वैसे ही संसार में माया और हरी भक्ति के मध्य में जीव पीसता है। अतः इसे देखकर साहेब व्यथित हो जाते हैं।
भावार्थ : एक और माया है और दूसरी और भक्ति का मार्ग है। भक्ति के मार्ग में बाधा है माया और उसके द्वारा फैलाई गया लालच जिसमे उलझ कर व्यक्ति कहीं का भी नहीं रह जाता है। दोनों ही एक दुसरे के विपरीत हैं जिनमे व्यक्ति उलझ कर रह जाता है। उसे ना तो कभी माया मिलती है और ना ही कभी मुक्ति का मार्ग है। जीव का उद्देश्य कबीर साहेब ने भक्ति करना और अपनी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना बताया है लेकिन माया में फसकर वह ना तो माया का हो पाता है और ना ही हरी सुमिरन ही कर पाता है। एक रोज अल्प जीवन समाप्ति की और बढ़ जाता है तो जीव अपने मालिक को याद करने लगता है। लेकिन ऐसे साधक की पुकार को कौन सुनेगा जिसने अपने जीवन में कभी हरी के नाम का सुमिरन नहीं किया और अंतिम समय में हरी को याद करता है। अतः इस दोहे में कबीर साहेब ने जीवात्मा की स्थिति का चित्रण किया है.