आतम आप सकल में रमता ना वे जन्मे ना वे मरता
आतम आप सकल में रमता ना वे जन्मे ना वे मरता
देह मरे तू अमर है,
पारब्रह्म है सोय,
अज्ञानी भटकत फिरे,
लखे सो ज्ञानी होय।
देह नहीं तू ब्रह्म है,
अविनाशी निर्वाण,
नित न्यारो तू देह सूं,
तो कर वे चार पहचाण।
जाति, वर्ण, कुल देह की,
सुरति, मूरति नाय,
उपजे विनसे देह सूं,
तो पाँच तत्त्व को नाव।।
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता,
जन्म-मरण देहि का होई,
हरख-शोक ये मन का दोई,
भूख-प्यास प्राणों को लागे,
आत्मा है सठ उर्मि से आगे,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
छठी उर्मि त्यागे संत शूरा,
आत्म रूप लखे सो पूरा,
सो निज आत्म रूप पछाण्या,
छठी उर्मि से न्यारा जान्या,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
निर्विकल्प निर्वाण अच्छाई,
ऐसी सेन लखी उर माई,
जन्म-मरण का कट गया फंदा,
ना अब मुल्ला, ना अब बन्दा,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
ये निश्चय धारे सोई साधु,
जा ठहरे अपने घर आदू,
अचल राम कही यण भव युक्ति,
लखे जिया सुं जीवत मुक्ति,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा,
मेरे मात-पिता ना कोई,
भाई-बंधु, कुटुंब न होई,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
ये सब धर्म देहि का जाणा,
मम आत्म साक्षी निर्वाणा,
मैं नहीं देह, देह ना मेरी,
ये तो अनात्म तत्त्वों की केरी,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
मैं निज आत्म चेतन प्यारा,
मिथ्या शरीर, विलन विकारा,
मैं ही पंचभूत देह धारा,
सब में रहूं रे, सभी से न्यारा,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
निर्विकार सदा एकसारा,
मुझ में मिथ्या सकल पसारा,
निराधार मैं तो अखह अनादि,
माया, पंचभूत सब आदि,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
अचलाराम अटल अविनाशी,
ब्रह्मस्वरूप स्वयं प्रकाशी,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
पारब्रह्म है सोय,
अज्ञानी भटकत फिरे,
लखे सो ज्ञानी होय।
देह नहीं तू ब्रह्म है,
अविनाशी निर्वाण,
नित न्यारो तू देह सूं,
तो कर वे चार पहचाण।
जाति, वर्ण, कुल देह की,
सुरति, मूरति नाय,
उपजे विनसे देह सूं,
तो पाँच तत्त्व को नाव।।
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता,
जन्म-मरण देहि का होई,
हरख-शोक ये मन का दोई,
भूख-प्यास प्राणों को लागे,
आत्मा है सठ उर्मि से आगे,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
छठी उर्मि त्यागे संत शूरा,
आत्म रूप लखे सो पूरा,
सो निज आत्म रूप पछाण्या,
छठी उर्मि से न्यारा जान्या,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
निर्विकल्प निर्वाण अच्छाई,
ऐसी सेन लखी उर माई,
जन्म-मरण का कट गया फंदा,
ना अब मुल्ला, ना अब बन्दा,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
ये निश्चय धारे सोई साधु,
जा ठहरे अपने घर आदू,
अचल राम कही यण भव युक्ति,
लखे जिया सुं जीवत मुक्ति,
आत्मा आप सकल में रमता,
ना वे जन्मे, ना वे मरता।।
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा,
मेरे मात-पिता ना कोई,
भाई-बंधु, कुटुंब न होई,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
ये सब धर्म देहि का जाणा,
मम आत्म साक्षी निर्वाणा,
मैं नहीं देह, देह ना मेरी,
ये तो अनात्म तत्त्वों की केरी,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
मैं निज आत्म चेतन प्यारा,
मिथ्या शरीर, विलन विकारा,
मैं ही पंचभूत देह धारा,
सब में रहूं रे, सभी से न्यारा,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
निर्विकार सदा एकसारा,
मुझ में मिथ्या सकल पसारा,
निराधार मैं तो अखह अनादि,
माया, पंचभूत सब आदि,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
अचलाराम अटल अविनाशी,
ब्रह्मस्वरूप स्वयं प्रकाशी,
निश्चय करक्यूं प्रकट पुकारा,
मैं हूं अजन्मा, जन्म नहीं हमारा।।
आत्म आप सकल में रमता || श्री मोहन जी महाराज || Mohan Maharaj Padampur_ Satsang vaani
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Author - Saroj Jangir
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