तोसों लाग्यो नेह रे भजन अर्थ
तोसों लाग्यो नेह रे भजन अर्थ
तोसों लाग्यो नेह रे प्यारे नागर नंदकुमार।
मुरली तेरी मन हरह्ह्यौ बिसरह्ह्यौ घर ब्यौहार।।
जबतैं श्रवननि धुनि परी घर अंगणा न सुहाय।
पारधि ज्यूं चूकै नहीं म्रिगी बेधि द आय।।
पानी पीर न जान ज्यों मीन तडफ मरि जाय।
मुरली तेरी मन हरह्ह्यौ बिसरह्ह्यौ घर ब्यौहार।।
जबतैं श्रवननि धुनि परी घर अंगणा न सुहाय।
पारधि ज्यूं चूकै नहीं म्रिगी बेधि द आय।।
पानी पीर न जान ज्यों मीन तडफ मरि जाय।
रसिक मधुपके मरमको नहीं समुझत कमल सुभाय।।
दीपकको जो दया नहिं उडि-उडि मरत पतंग।
मीरा प्रभु गिरधर मिले जैसे पाणी मिलि गयौ रंग।।
दीपकको जो दया नहिं उडि-उडि मरत पतंग।
मीरा प्रभु गिरधर मिले जैसे पाणी मिलि गयौ रंग।।
Toso Lagyo Neh Re Pyare
प्रेम की वह तीव्रता, जो मीरा के हृदय में श्रीकृष्ण के लिए उमड़ती है, इस भजन का प्राण है। यह ऐसा प्रेम है, जो मन को गोविंद की ओर खींच लेता है, जैसे कोई नदी सागर में मिलने को आतुर हो। उनकी मुरली की धुन मन को इस कदर बाँधती है कि सांसारिक कार्य-व्यापार भूल जाते हैं, जैसे कोई हिरणी शिकारी की पुकार में खो जाए।
जैसे मछली पानी के बिना तड़प-तड़पकर प्राण छोड़ दे, वही तड़प मीरा के मन में कृष्ण के लिए है। यह प्रेम भँवरे सा है, जो कमल के रस में डूबने को व्याकुल है, भले ही उस रस का पूरा रहस्य न जान पाए। संत का स्वर कहता है—यह प्रेम दीपक की लौ है, जिसमें पतंगा बिना सोचे समा जाता है, क्योंकि उसे उसी प्रकाश में मुक्ति दिखती है।
जैसे मछली पानी के बिना तड़पकर प्राण त्याग दे, वैसे ही यह मन उनके बिना अधूरा है। यह प्रेम कोई साधारण आसक्ति नहीं, बल्कि वह तीव्र आकर्षण है जो कमल को भँवरे की तरह खींचता है, भले ही वह उस मधुर रस का रहस्य न समझे। संत कहता है—यह प्रेम दीपक की लौ सा है, जिसमें पतंगा बिना डरे झपट पड़ता है, क्योंकि उसे उस प्रकाश में ही जीवन दिखता है।
चिंतन का स्वर यही है कि यह प्रेम मनुष्य को बंधन से मुक्त करता है। यह वह रंग है, जो पानी में घुलकर एकरूप हो जाता है—न अलग, न अल्प। धर्म का मार्ग भी यही सिखाता है: सच्चा प्रेम वह है, जो स्वयं को मिटाकर प्रभु में समा जाए। जैसे मीरा का मन गिरधर में रम गया, वैसे ही प्रत्येक आत्मा को उस प्रेम में डूबना है, जहाँ "मैं" का कोई अस्तित्व न बचे।
जैसे मछली पानी के बिना तड़प-तड़पकर प्राण छोड़ दे, वही तड़प मीरा के मन में कृष्ण के लिए है। यह प्रेम भँवरे सा है, जो कमल के रस में डूबने को व्याकुल है, भले ही उस रस का पूरा रहस्य न जान पाए। संत का स्वर कहता है—यह प्रेम दीपक की लौ है, जिसमें पतंगा बिना सोचे समा जाता है, क्योंकि उसे उसी प्रकाश में मुक्ति दिखती है।
जैसे मछली पानी के बिना तड़पकर प्राण त्याग दे, वैसे ही यह मन उनके बिना अधूरा है। यह प्रेम कोई साधारण आसक्ति नहीं, बल्कि वह तीव्र आकर्षण है जो कमल को भँवरे की तरह खींचता है, भले ही वह उस मधुर रस का रहस्य न समझे। संत कहता है—यह प्रेम दीपक की लौ सा है, जिसमें पतंगा बिना डरे झपट पड़ता है, क्योंकि उसे उस प्रकाश में ही जीवन दिखता है।
चिंतन का स्वर यही है कि यह प्रेम मनुष्य को बंधन से मुक्त करता है। यह वह रंग है, जो पानी में घुलकर एकरूप हो जाता है—न अलग, न अल्प। धर्म का मार्ग भी यही सिखाता है: सच्चा प्रेम वह है, जो स्वयं को मिटाकर प्रभु में समा जाए। जैसे मीरा का मन गिरधर में रम गया, वैसे ही प्रत्येक आत्मा को उस प्रेम में डूबना है, जहाँ "मैं" का कोई अस्तित्व न बचे।
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