सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना लंका काण्ड

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना लंका काण्ड

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढ़े बिमाना।।
हमहू उमा रहे तेहि संगा। देखत राम चरित रन रंगा।।
सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते।।
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं।।
मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं।।
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं।।
निसिचर भट महि गाड़हि भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू।।
बीर बलिमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे।।
छं0-क्रुद्धे कृतांत समान कपि तन स्त्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवंत घन जिमि गाजहीं।।
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं।।
धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रहलादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अंगन खेलहीं।।
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही।।
दो0-निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढ़ि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप।।81।।
 
युद्ध का यह दृश्य सत्य और असत्य के बीच अनंत संघर्ष का प्रतीक है। देवता, सिद्ध, और मुनि आकाश से इस रण को देख रहे हैं, जैसे आत्मा अपने भीतर के द्वंद्व को निहारती है। वानरों और भालुओं की सेना, जो राम के बल से प्रेरित है, धर्म की शक्ति का रूप है। वे राक्षसों को कुचलते हैं, जैसे सत्य झूठ को मिट्टी में मिला देता है। कटे सिर, फटी देह, और बहता रक्त यह बताता है कि अधर्म का अंत कितना भयावह होता है।

वानरों का क्रोध और शौर्य, जो काल के समान प्रतीत होता है, उस शक्ति को दर्शाता है जो भक्ति और सत्य से जन्मती है। वे राक्षसों को मारते, काटते, और धराशायी करते हैं, जैसे कोई प्रबल आंधी वृक्षों को उखाड़ फेंके। यह युद्ध केवल शारीरिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक भी है। यह सिखाता है कि अहंकार और पाप का मार्ग कितना भी बलवान दिखे, वह प्रभु की कृपा के सामने टिक नहीं सकता।

राम का बल वह चमत्कार है, जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देता है। यह दृश्य मनुष्य को प्रेरित करता है कि वह अपने भीतर के राक्षस—क्रोध, लोभ, अहंकार—से लड़े। राम का नाम और उनकी शरण ही वह शक्ति है, जो हर संकट में विजय दिलाती है। रावण का रथ और उसका दर्प भले ही भयावह दिखे, पर सत्य के सामने उसका अंत निश्चित है।
 
धायउ परम क्रुद्ध दसकंधर। सन्मुख चले हूह दै बंदर।।
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा।।
लागहिं सैल बज्र तन तासू। खंड खंड होइ फूटहिं आसू।।
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी।।
इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा।।
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अंगद हनुमाना।।
पाहि पाहि रघुबीर गोसाई। यह खल खाइ काल की नाई।।
तेहि देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक संधाने।।
छं0-संधानि धनु सर निकर छाड़ेसि उरग जिमि उड़ि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदसि कहँ कपि भागहीं।।
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिंधु आरत बंधु जन रच्छक हरे।।
दो0-निज दल बिकल देखि कटि कसि निषंग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ।।82।।

रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू।।
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुड़ावउँ छाती।।
अस कहि छाड़ेसि बान प्रचंडा। लछिमन किए सकल सत खंडा।।
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे।।
पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यंदनु भंजि सारथी मारा।।
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृंगन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला।।
पुनि सत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं।।
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाड़िसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी।।
छं0-सो ब्रह्म दत्त प्रचंड सक्ति अनंत उर लागी सही।
पर्यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही।।
ब्रह्मांड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ़ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी।।
दो0-देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर।।83।।
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जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा।।
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा।।
मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा।।
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही।।
अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो।।
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतांत भच्छक सुर त्राता।।
सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला।।
पुनि कोदंड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए।।
छं0-आतुर बहोरि बिभंजि स्यंदन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर् यो धरनि दसकंधर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो।।
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लंका लै गयो।
रघुबीर बंधु प्रताप पुंज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो।।
दो0-उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य।।84।।

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई।।
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा।।
पठवहु नाथ बेगि भट बंदर। करहिं बिधंस आव दसकंधर।।
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अंगद सब धाए।।
कौतुक कूदि चढ़े कपि लंका। पैठे रावन भवन असंका।।
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा।।
रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।।
अस कहि अंगद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता।।
छं0-नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं।।
तब उठेउ क्रुद्ध कृतांत सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई।।
दो0-जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर क्रुर्द्ध होइ त्यागि जिवन कै आस।।85।।
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चलत होहिं अति असुभ भयंकर। बैठहिं गीध उड़ाइ सिरन्ह पर।।
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना।।
चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा।।
प्रभु सन्मुख धाए खल कैंसें। सलभ समूह अनल कहँ जैंसें।।
इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही।।
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही।।
देव बचन सुनि प्रभु मुसकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना।
जटा जूट दृढ़ बाँधै माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे।।
अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा।।
कटितट परिकर कस्यो निषंगा। कर कोदंड कठिन सारंगा।।
छं0-सारंग कर सुंदर निषंग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदंड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो।।
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्मांड दिग्गज कमठ अहि महि सिंधु भूधर डगमगे।।
दो0-सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार।।86।।
 
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