बिहारी के दोहे जानिये सरल अर्थ
बिहारी के दोहे जानिये सरल हिंदी अर्थ सहित
कहा लड़ैते दृग करे परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल॥
लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मुकुट की छाँह।
चटक भर्यौ नटु मिलि गयौ अटक-भटक बट माँह॥
फिरि फिरि बूझति कहि कहा कह्यौ साँवरे-गात।
कहा करत देखे कहाँ अली चली क्यौं बात॥
तो ही निरमोही लग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।
अनआऐं आवै नहीं आऐं आवतु आउ॥
दुखहाइनु चरचा नहीं आनन आनन आन।
लगी फिर ढूका दिये कानन कानन कान॥
बहके सब जिय की कहत ठौरु-कुठौरु लखैं न।
छिन औरें छिन और से ए छबि-छाके नैन॥
कहत सबै कबि कमल-से मो मति नैन पखानु।
नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु बिरह-कृसानु॥
लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं।
ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूँ चलि जाहिं॥
इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं।
देखैं बनैं न देखतै अनदेखैं अकुलाहिं॥
लरिका लैबै कैं मिसनु लंगर मो ढिग आइ।
गयौ अचानक आँगुरी छाती छैलु छुवाइ॥
डगकु डगति-सी चलि ठठुकि चितई सँभारि।
लिये जाति चितु चोरटी वहै गोरटी नारि॥
कहुँ मुरली कहुँ पीतपटु कहूँ मुकुट बनमाल॥
लटकि लटकि लटकतु चलतु डटतु मुकुट की छाँह।
चटक भर्यौ नटु मिलि गयौ अटक-भटक बट माँह॥
फिरि फिरि बूझति कहि कहा कह्यौ साँवरे-गात।
कहा करत देखे कहाँ अली चली क्यौं बात॥
तो ही निरमोही लग्यौ मो ही इहैं सुभाउ।
अनआऐं आवै नहीं आऐं आवतु आउ॥
दुखहाइनु चरचा नहीं आनन आनन आन।
लगी फिर ढूका दिये कानन कानन कान॥
बहके सब जिय की कहत ठौरु-कुठौरु लखैं न।
छिन औरें छिन और से ए छबि-छाके नैन॥
कहत सबै कबि कमल-से मो मति नैन पखानु।
नतरुक कत इन बिय लगत उपजतु बिरह-कृसानु॥
लाज-लगाम न मानही नैना मो बस नाहिं।
ए मुँहजोर तुरंग ज्यौं ऐंचत हूँ चलि जाहिं॥
इन दुखिया अँखियानु कौं सुखु सिरज्यौई नाहिं।
देखैं बनैं न देखतै अनदेखैं अकुलाहिं॥
लरिका लैबै कैं मिसनु लंगर मो ढिग आइ।
गयौ अचानक आँगुरी छाती छैलु छुवाइ॥
डगकु डगति-सी चलि ठठुकि चितई सँभारि।
लिये जाति चितु चोरटी वहै गोरटी नारि॥
कहा लड़ैते दृग करे, परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली, कहुँ पीतपटु, कहुँ मुकुट बनमाल॥
सरलार्थ: नायिका के तीखे नेत्र-बाणों की चोट से श्रीकृष्ण व्याकुल होकर भूमि पर पड़े हैं। उनकी स्थिति ऐसी हो गई है कि उनकी प्रिय वस्तुएँ—मुरली, पीतांबर, मुकुट और वनमाला—सब इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं।
इस दोहे में बिहारी ने नेत्रों की शक्ति और प्रेम की तीव्रता को सुंदर रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जहाँ नायिका के नेत्रों की मारकता से श्रीकृष्ण की यह दशा हो गई है। यह पद शैलीगत सौंदर्य और गहन भावनात्मक अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है, जिसमें विरह, प्रेम और श्रीकृष्ण के अनुपम स्वरूप की अनुभूति का मनोहारी चित्रण किया गया है। कवि की अभिव्यक्ति न केवल शृंगारिक भावों को दर्शाती है, बल्कि उस आंतरिक पीड़ा को भी उजागर करती है जो प्रियतम के दूर होने पर मन में उत्पन्न होती है।
प्रारंभिक पंक्तियाँ नेत्रों की व्याकुलता को दर्शाती हैं—प्रेम में डूबे हुए ये नयन श्रीकृष्ण की छवि को देखने के लिए तड़प रहे हैं। उनकी पीतांबर, मुरली, मुकुट और वनमाला की मोहकता मन को पूरी तरह बांध लेती है, और उनके दर्शन के बिना मन अशांत हो जाता है।
पद में आगे, विरह के कारण मन की बेचैनी को व्यक्त किया गया है। श्रीकृष्ण को पुकारने के बावजूद वे विरक्त दिखाई देते हैं, और उनकी लीला एक रहस्य बनी रहती है। यह अनुभूति बताती है कि ईश्वर को प्राप्त करने की आकांक्षा केवल बाह्य स्तर पर नहीं, बल्कि आंतरिक स्तर पर भी होती है, जहाँ प्रेम और भक्ति के माध्यम से आत्मा उनकी निकटता का अनुभव करती है।
शब्दों की गहनता और छंदों की लयात्मकता इस पद को एक अद्भुत काव्यात्मक स्वरूप प्रदान करती है। कवि नयनों के मुँहजोर होने की बात करता है—वे प्रेम के वश में होकर नियंत्रित नहीं हो सकते। इसी तरह, प्रियतम के दर्शन की चाह में मन भटकता रहता है और उनकी अनुपस्थिति में बेचैनी बढ़ जाती है।
कहुँ मुरली, कहुँ पीतपटु, कहुँ मुकुट बनमाल॥
सरलार्थ: नायिका के तीखे नेत्र-बाणों की चोट से श्रीकृष्ण व्याकुल होकर भूमि पर पड़े हैं। उनकी स्थिति ऐसी हो गई है कि उनकी प्रिय वस्तुएँ—मुरली, पीतांबर, मुकुट और वनमाला—सब इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं।
इस दोहे में बिहारी ने नेत्रों की शक्ति और प्रेम की तीव्रता को सुंदर रूपक के माध्यम से प्रस्तुत किया है, जहाँ नायिका के नेत्रों की मारकता से श्रीकृष्ण की यह दशा हो गई है। यह पद शैलीगत सौंदर्य और गहन भावनात्मक अभिव्यक्ति से परिपूर्ण है, जिसमें विरह, प्रेम और श्रीकृष्ण के अनुपम स्वरूप की अनुभूति का मनोहारी चित्रण किया गया है। कवि की अभिव्यक्ति न केवल शृंगारिक भावों को दर्शाती है, बल्कि उस आंतरिक पीड़ा को भी उजागर करती है जो प्रियतम के दूर होने पर मन में उत्पन्न होती है।
प्रारंभिक पंक्तियाँ नेत्रों की व्याकुलता को दर्शाती हैं—प्रेम में डूबे हुए ये नयन श्रीकृष्ण की छवि को देखने के लिए तड़प रहे हैं। उनकी पीतांबर, मुरली, मुकुट और वनमाला की मोहकता मन को पूरी तरह बांध लेती है, और उनके दर्शन के बिना मन अशांत हो जाता है।
पद में आगे, विरह के कारण मन की बेचैनी को व्यक्त किया गया है। श्रीकृष्ण को पुकारने के बावजूद वे विरक्त दिखाई देते हैं, और उनकी लीला एक रहस्य बनी रहती है। यह अनुभूति बताती है कि ईश्वर को प्राप्त करने की आकांक्षा केवल बाह्य स्तर पर नहीं, बल्कि आंतरिक स्तर पर भी होती है, जहाँ प्रेम और भक्ति के माध्यम से आत्मा उनकी निकटता का अनुभव करती है।
शब्दों की गहनता और छंदों की लयात्मकता इस पद को एक अद्भुत काव्यात्मक स्वरूप प्रदान करती है। कवि नयनों के मुँहजोर होने की बात करता है—वे प्रेम के वश में होकर नियंत्रित नहीं हो सकते। इसी तरह, प्रियतम के दर्शन की चाह में मन भटकता रहता है और उनकी अनुपस्थिति में बेचैनी बढ़ जाती है।