मेरो मन अनत कहां सचु पावै मीनिंग सूरदास
मेरो मन अनत कहां सचु पावै मीनिंग सूरदास
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै॥
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै॥
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ क्यों करील-फल खावै।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै॥१९॥
इस पद में सूरदास जी अपने मन की अस्थिरता का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं कि उनका मन अन्यत्र सुख-शांति नहीं पा रहा है। वह केवल श्रीकृष्ण में ही सच्ची सुख-शांति पा सकता है।
जैसे उड़ि जहाज कौ पंछी पुनि जहाज पै आवै
सूरदास जी एक उदाहरण देते हैं कि जैसे एक उड़ता हुआ पक्षी अपने जहाज से दूर जा सकता है, लेकिन अंत में वह फिर से अपने जहाज पर वापस आ जाता है। उसी प्रकार, मनुष्य चाहे कितने भी प्रयास करे, लेकिन वह अंत में अपने प्रभु की तरफ ही लौटता है।
कमलनैन कौ छांड़ि महातम और देव को ध्यावै
सूरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य महात्माओं या देवताओं की आराधना करता है, वह मूर्ख है। श्रीकृष्ण ही परम सत्य हैं और केवल उनसे ही सच्ची सुख-शांति प्राप्त होती है।
परमगंग कों छांड़ि पियासो दुर्मति कूप खनावै
सूरदास जी एक और उदाहरण देते हैं कि जैसे एक प्यासा व्यक्ति परम गंगा को छोड़कर कुएं खोदता है, तो उसे कभी भी पानी नहीं मिल सकता। उसी प्रकार, जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य सुखों की खोज करता है, वह कभी भी सच्ची सुख-शांति प्राप्त नहीं कर सकता।
जिन मधुकर अंबुज-रस चाख्यौ क्यों करील-फल खावै
सूरदास जी एक और उदाहरण देते हैं कि जैसे एक भ्रमर जो कमल का रस चख चुका है, वह कभी भी करील का कड़वा फल नहीं खाएगा। उसी प्रकार, जो व्यक्ति श्रीकृष्ण के प्रेम का अनुभव कर चुका है, वह कभी भी अन्य सुखों में रुचि नहीं लेगा।
सूरदास प्रभु कामधेनु तजि छेरी कौन दुहावै
सूरदास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति कामधेनु को छोड़कर बकरी को दुहता है, वह मूर्ख है। कामधेनु ही अमृत का स्त्रोत है और वह ही सच्ची सुख-शांति प्रदान कर सकती है।
भावार्थ
इस पद में सूरदास जी भक्त की भगवान् के प्रति अनन्यता की ऊंची अवस्था दिखा रहे हैं। वे कहते हैं कि जीवात्मा परमात्मा की अंश-स्वरूपा है। उसका विश्रान्ति-स्थल परमात्माही है। अन्यत्र उसे सच्ची सुख-शान्ति मिलने की नहीं। प्रभु को छोड़कर जो इधर-उधर सुख खोजता है, वह मूढ़ है। सूरदास जी के अनुसार, केवल श्रीकृष्ण में ही सच्ची सुख-शांति प्राप्त होती है। अन्य सभी सुख अस्थायी और क्षणिक हैं।
मन की चंचलता ऐसी है, जैसे कोई पक्षी जहाज से उड़कर फिर लौट आता है, पर सच्चा ठिकाना नहीं पाता। यह मन भटकता है, सत्य की खोज में, पर बार-बार भटकाव में उलझ जाता है। कमलनैन प्रभु की महिमा को छोड़कर, वह अन्यत्र ध्यान लगाता है, जैसे कोई अमृत को छोड़कर विष चुन ले।
परम गंगा का निर्मल जल पास हो, फिर भी प्यासा मूर्ख कुएं खोदता है। यह मूर्खता मन की अज्ञानता है, जो सत्य को देखकर भी उसे ग्रहण नहीं करती। जैसे मधुमक्खी, जो कमल के रस का स्वाद चख चुकी हो, फिर कड़वे करील के फल की ओर क्यों जाए? प्रभु, जो कामधेनु-से सर्वसुखदायी हैं, उन्हें छोड़कर कोई भला दासी की सेवा क्यों करे?
यह जीवन की सैर है, जहां मन को बार-बार स्मरण करना पड़ता है कि सच्चा सुख केवल प्रभु की शरण में है। जैसे पक्षी अंततः जहाज पर लौटता है, वैसे ही मन को प्रभु के चरणों में विश्राम मिलता है। यह भक्ति का मार्ग है, जो मन को भटकने से रोकता है और उसे सत्य के आलिंगन में बांधता है, जहां हर खोज पूर्ण होती है।
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