उपमा हरि तनु देखि लजानी।
कोउ जल मैं कोउ बननि रहीं दुरि कोउ कोउ गगन समानी॥
मुख निरखत ससि गयौ अंबर कौं तडि़त दसन-छबि हेरि।
मीन कमल कर चरन नयन डर जल मैं कियौ बसेरि॥
भुजा देखि अहिराज लजाने बिबरनि पैठे धाइ।
कटि निरखत केहरि डर मान्यौ बन-बन रहे दुराइ॥
गारी देहिं कबिनि कैं बरनत श्रीअंग पटतर देत।
सूरदास हमकौं सरमावत नाउं हमारौ लेत॥
ऐसी प्रीति की बलि जाऊं।
सिंहासन तजि चले मिलन कौं, सुनत सुदामा नाउं।
कर जोरे हरि विप्र जानि कै, हित करि चरन पखारे।
अंकमाल दै मिले सुदामा, अर्धासन बैठारे।
अर्धांगी पूछति मोहन सौं, कैसे हितू तुम्हारे।
तन अति छीन मलीन देखियत, पाउं कहां तैं धारे।
संदीपन कैं हम अरु सुदामा, पढै एक चटसार।
सूर स्याम की कौन चलावै, भक्तनि कृपा अपार।
आजु मैं गाई चरावन जैहों
बृंदाबन के भाँति भाँति फल, अपने कर मैं खैहौं।
ऎसी बात कहौ जनि बारे, देखौ अपनी भांति।
तनक तनक पग चलिहौ कैसें, आवत ह्वै है राति।
प्रात जात गैया लै चारन, घर आवत है साँझ।
तुम्हारौ कमल बदन कुम्हलैहै, रेंगत घामहिं माँझ।
तेरी सौं मोहि घाम न लागत, भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कहयौ न मानत, परयौ आपनी टेक॥
अब मैं जानी देह बुढ़ानी ।
सीस, पाउँ, कर कह्यौ न मानत, तन की दसा सिरानी।
आन कहत, आनै कहि आवत, नैन-नाक बहै पानी।
मिटि गई चमक-दमक अँग-अँग की, मति अरु दृष्टि हिरानी।
नाहिं रही कछु सुधि तन-मन की, भई जु बात बिरानी।
सूरदास अब होत बिगूचनि, भजि लै सारँगपानी
39. औरन सों खेले धमार श्याम मोंसों मुख हू न बोले
औरन सों खेले धमार श्याम मोंसों मुख हू न बोले।
नंदमहर को लाडिलो मोसो ऐंठ्यो ही डोले॥१॥
राधा जू पनिया निकसी वाको घूंघट खोले।
’सूरदास’ प्रभु सांवरो हियरा बिच डोले॥२॥
प्रेम और सादगी का ऐसा संगम है, जहाँ भेदभाव की कोई जगह नहीं। प्रभु का हृदय इतना विशाल है कि वह सखाओं के साथ सहजता से भोजन करता है, जैसे कोई साधारण बालक। कमल के पत्तों और पलाश के दोनों में रखा भोजन, ग्वालों की मंडली में आपस का प्रेम और समर्पण ही उसे स्वादिष्ट बनाता है। माता यशोदा का स्नेह भरा भोजन और ग्वालों का अपनापन प्रभु के लिए सबसे अनमोल है। यह सादगी जीवन को सिखाती है कि सच्चा सुख धन-दौलत में नहीं, बल्कि प्रेम, साहचर्य, और निश्छल भक्ति में बसता है। जैसे सखा अपने हिस्से का भोजन बाँटते हैं, वैसे ही जीवन में प्रेम का बँटवारा ही हर क्षण को आनंदमय बनाता है।