मैया री मोहिं माखन भावै हिंदी मीनिंग
मैया री मोहिं माखन भावै।
मधु मेवा पकवान मिठा मोंहि नाहिं रुचि आवे॥
ब्रज जुवती इक पाछें ठाड़ी सुनति स्याम की बातें।
मन-मन कहति कबहुं अपने घर देखौ माखन खातें॥
बैठें जाय मथनियां के ढिंग मैं तब रहौं छिपानी।
सूरदास प्रभु अन्तरजामी ग्वालि मनहिं की जानी॥१३॥
हिंदी अर्थ/भावार्थ : श्री कृष्ण जी अपने बाल रूप में कहते हैं की मैया मुझे तो माखन बहुत अच्छा लगता है. हे मैया मुझे मेवा और अन्य पकवान अच्छे नहीं लगते हैं. जब श्री कृष्ण जी माता जसोदा जी से ये बाते कर रहे होते हैं उस समय बृज की एक गोपी पीछे उनकी बाते सुन रही होती है. बृज की गोपी अपने मन में ही कहती हैं की / सोचती हैं की ऐसा समय आये जब मैं भी श्री कृष्ण जी को अपने मक्खन के मटके के पास बैठा देखूं और मैं छिप जाऊं, भाव है की वे भी चाहती हैं की श्री कृष्ण जी उनका मक्खन खाएं. श्री कृष्ण जी बाल रूप में भले ही हों वे अंतर्यामी हैं इसलिए वे बृज की गोपी के मन की बात जान लेती हैं. इस पद में सूरदास जी श्रीकृष्ण और एक गोपी की लीला का वर्णन करते हैं। श्रीकृष्ण अपनी माँ यशोदा जी से कह रहे हैं कि उन्हें मक्खन बहुत अच्छा लगता है। वे मेवा और पकवानों में रुचि नहीं रखते हैं।
यह बात सुनकर एक गोपी जो पास खड़ी थी, मन-ही-मन सोचती है कि वह कभी श्रीकृष्ण को अपने घर में मक्खन खाते हुए देखेगी। वह चाहती है कि श्रीकृष्ण उसके घर आकर मटके के पास बैठें और वह उस समय छिपकर उन्हें देखे। सूरदास जी कहते हैं कि श्रीकृष्ण अन्तर्यामी हैं। उन्होंने गोपी के मन की बात जान ली। इस पद में सूरदास जी श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करते हैं। वे बताते हैं कि श्रीकृष्ण कितने भोले और सरल थे। वे मक्खन खाना बहुत पसंद करते थे।
शब्दार्थ मधु स्वादिष्ट। नहिं रुचि आवै पसंद नहीं आते। मन-मन कहति मन ही मन अभिलाषा करती है। ढिंग पास।
इस भजन की राग "राग गौरी" है.
आपको ये पोस्ट पसंद आ सकती हैं