वृन्द के दोहे Vrind Ke Dohe in Hindi

वृन्द के दोहे Vrind Ke Dohe in Hindi

वृन्द रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनका जन्म सन् 1643 में मेड़ता (राजस्थान) में हुआ था। इनके पिता का नाम रूप जी और माता का नाम कौशल्या था। वृन्द जाति के सेवक अथवा भोजक थे। वृन्द ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मेड़ता में ही प्राप्त की। इसके बाद वे काशी गए और वहाँ तारा जी नामक एक पंडित के पास रहकर साहित्य, दर्शन आदि का ज्ञान प्राप्त किया। काशी में इन्होंने व्याकरण, साहित्य, वेदान्त, गणित आदि का ज्ञान प्राप्त किया और काव्य रचना सीखी। वृन्द की काव्य प्रतिभा का पता चलने पर उन्हें मुगल सम्राट औरंगजेब के दरबार में बुलाया गया। वहाँ उन्होंने अपनी काव्य प्रतिभा से औरंगजेब को प्रसन्न कर दिया। औरंगजेब ने उन्हें अपने पौत्र अजी मुशशान का अध्यापक नियुक्त कर दिया। अजी मुशशान के बंगाल के शासक बनने पर वृन्द भी उनके साथ चले गए। सन् 1707 में किशनगढ़ के राजा राजसिंह ने अजी मुशशान से वृन्द को माँगा लिया। सन् 1723 में किशनगढ़ में ही वृन्द का देहावसान हो गया।

रचनाएँ
वृन्द की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:
वृंद सतसई - यह वृन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल 700 दोहे हैं।
भारत कथा - इसमें 100 दोहे हैं।
नयन पचीसी - इसमें 52 दोहे हैं।
पवन पचीसी - इसमें 52 दोहे हैं।
भाव पंचशिखा - इसमें 50 दोहे हैं।
हितोपदेशाष्टक - इसमें 8 दोहे हैं।
साहित्यिक विशेषताएँ

वृन्द की काव्य रचनाओं में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं:
रसात्मकता - वृन्द की काव्य रचनाएँ अत्यंत रसात्मक हैं। इनमें श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस, वीर रस आदि सभी रसों का सुंदर चित्रण मिलता है।
भाषा - वृन्द की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी है। इनकी भाषा में राजस्थानी, खड़ी बोली और ब्रजभाषा का मिश्रण मिलता है।
शैली - वृन्द की शैली सरल, सहज और स्वाभाविक है। इनकी रचनाओं में छंदविधान का भी सुंदर निर्वाह मिलता है।
प्रभाव
वृन्द की काव्य रचनाओं का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इनकी रचनाओं का अनुकरण अनेक कवियों ने किया है। वृन्द को हिंदी रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक माना जाता है। 

वृन्द की कृतियाँ
वृन्द की ग्यारह रचनाएँ प्राप्त हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं:
वृंद सतसई - यह वृन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल 700 दोहे हैं।
भारत कथा - इसमें 100 दोहे हैं।
नयन पचीसी - इसमें 52 दोहे हैं।
पवन पचीसी - इसमें 52 दोहे हैं।
भाव पंचशिखा - इसमें 50 दोहे हैं।
हितोपदेशाष्टक - इसमें 8 दोहे हैं।
वृंद सतसई

वृंद सतसई वृन्द की सर्वाधिक प्रसिद्ध रचना है। इसमें कुल 700 दोहे हैं। यह रचना दोहा छंद में लिखी गई है। इस रचना में वृन्द ने विभिन्न विषयों पर सरल और सुबोध दोहे लिखे हैं। इन दोहों में श्रृंगार, हास्य, नीति, धर्म, ज्ञान आदि सभी विषयों का समावेश है। वृंद सतसई को हिंदी साहित्य की एक अमूल्य निधि माना जाता है।

भारत कथा
भारत कथा में वृन्द ने रामायण और महाभारत की कथाओं का वर्णन किया है। इस रचना में वृन्द ने दोहा छंद का प्रयोग किया है। भारत कथा में वृन्द ने रामायण और महाभारत की कथाओं को सरल और सुबोध भाषा में बताया है।

नयन पचीसी
नयन पचीसी में वृन्द ने नेत्रों के महत्व का वर्णन किया है। इस रचना में वृन्द ने दोहा, सवैया और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग किया है। नयन पचीसी में वृन्द ने नेत्रों के विभिन्न गुणों और दोषों का वर्णन किया है।

पवन पचीसी
पवन पचीसी में वृन्द ने ऋतुओं का वर्णन किया है। इस रचना में वृन्द ने दोहा, सवैया और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग किया है। पवन पचीसी में वृन्द ने वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर ऋतुओं का सुंदर वर्णन किया है।

भाव पंचशिखा
भाव पंचशिखा में वृन्द ने श्रृंगार के विभिन्न भावों का वर्णन किया है। इस रचना में वृन्द ने दोहा छंद का प्रयोग किया है। भाव पंचशिखा में वृन्द ने श्रृंगार के विभिन्न भावों को सरल और सुबोध भाषा में बताया है।

हितोपदेशाष्टक
हितोपदेशाष्टक में वृन्द ने आठ दोहों में नीति का उपदेश दिया है। इस रचना में वृन्द ने दोहा छंद का प्रयोग किया है। हितोपदेशाष्टक में वृन्द ने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करने के लिए आवश्यक नीतियां बताई हैं।

वृन्द की साहित्यिक विशेषताएँ
वृन्द की काव्य रचनाओं में निम्नलिखित विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं:
रसात्मकता - वृन्द की काव्य रचनाएँ अत्यंत रसात्मक हैं। इनमें श्रृंगार रस, हास्य रस, करुण रस, वीर रस आदि सभी रसों का सुंदर चित्रण मिलता है।
भाषा - वृन्द की भाषा सरल, सुबोध और प्रवाहमयी है। इनकी भाषा में राजस्थानी, खड़ी बोली और ब्रजभाषा का मिश्रण मिलता है।
शैली - वृन्द की शैली सरल, सहज और स्वाभाविक है। इनकी रचनाओं में छंदविधान का भी सुंदर निर्वाह मिलता है।
वृन्द का प्रभाव
वृन्द की काव्य रचनाओं का हिंदी साहित्य पर गहरा प्रभाव पड़ा है। इनकी रचनाओं का अनुकरण अनेक कवियों ने किया है। वृन्द को हिंदी रीतिकाल के श्रेष्ठ कवियों में से एक माना जाता है।


जैसो गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥
अपनी-अपनी गरज सब, बोलत करत निहोर ।
बिन गरजै बोले नहीं, गिरवर हू को मोर ॥
जैसे बंधन प्रेम कौ, तैसो बन्ध न और ।
काठहिं भेदै कमल को, छेद न निकलै भौंर ॥
स्वारथ के सबहिं सगे,बिन स्वारथ कोउ नाहिं ।
सेवै पंछी सरस तरु, निरस भए उड़ि जाहिं ॥
मूढ़ तहाँ ही मानिये, जहाँ न पंडित होय ।
दीपक को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥
बिन स्वारथ कैसे सहे, कोऊ करुवे बैन ।
लात खाय पुचकारिये, होय दुधारू धैन ॥
होय बुराई तें बुरो, यह कीनों करतार ।
खाड़ खनैगो और को, ताको कूप तयार ॥
जाको जहाँ स्वारथ सधै, सोई ताहि सुहात ।
चोर न प्यारी चाँदनी, जैसे कारी रात ॥
अति सरल न हूजियो, देखो ज्यौं बनराय ।
सीधे-सीधे छेदिये, बाँको तरु बच जाय ॥
कन –कन जोरै मन जुरै, काढ़ै निबरै सोय ।
बूँद –बूँद ज्यों घट भरै, टपकत रीतै तोय ॥

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